पीलीभीत से लेकर लखनऊ तक गोमती को मारने की कहानी
उत्तर प्रदेश के आठ जिलों से होकर बहने वाली गोमती का अस्तित्व संकट में क्यों है, इसे जानने के लिए गांव कनेक्शन की टीम ने नदी के उद्गम स्थल (माधव टांडा, पीलीभीत) से लेकर लखनऊ तक करीब 425 किमी की बाइक यात्रा की। यात्रा के दौरान उन तमाम मुद्दों को जानने की कोशिश की गई जिनकी अनदेखी से गोमती अंतिम सांसे गिन रही है।
Ranvijay Singh 12 March 2019 7:04 AM GMT
रणविजय सिंह/दया सागर
लखनऊ। ''गोमती नदी जीवन दायनी है, आजादी के बाद पूर्व पाकिस्तान से हमारे पुरखे जब इस जंगल में आए तो इसी नदी ने उन्हें जीवन दिया। आज हम सब इसकी गोद में जी रहे हैं। लेकिन अब नदी का बहाव पहले से काफी कम हो गया है। इसे देखकर हमें दुख होता है।'' यह बात उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के गांव मीयापुर के रहने वाले प्रशांत ढाले (68 साल) कहते हैं।
'गांव कनेक्शन की गोमती यात्रा' के तहत हमने गोमती नदी के उद्गम स्थल (पीलीभीत की ग्राम पंचायत माधवटांडा) से लेकर लखनऊ तक नदी को बाइक से ट्रैक किया। चार दिन में गोमती को ट्रैक करते हुए गांव कनेक्शन की टीम ने पीलीभीत, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, सीतापुर और लखनऊ में करीब 425 किमी बाइक से यात्रा की। इस बाइक यात्रा में हमने नदी का जीवन को जानने, उसकी हाल की स्थिति देखने के साथ ही इसके आस पास बसने वाले लोगों से समझा कि गोमती नदी उनके लिए क्या मायने रखती है।
इसी कड़ी में हमारी मुलाकात पीलीभीत के पुरनपुर तहसील के हमरिया पट्टी निवासी कीरथ सिंह से हुई। कीरथ सिंह के मुताबिक, उनकी उम्र करीब 65 साल है। वो बताते हैं, ''इस नदी को मैंने बहते देखा है, लेकिन अब तो नाला बन गई है। पहले बहुत चौड़ी हुआ करती थी, लेकिन धीमे-धीमे कब गायब हो गई पता ही न चला।'' पीलीभीत में कीरथ की तरह ही बहुत से लोग अपनी स्मृतियों में नदी को बहते हुए देखने की बात कहते हैं और हाल की स्थिति पर अफसोस भी जाहिर करते हैं।
भूजल दोहन से गोमती को खतरा
गोमती नदी का उद्गम पीलीभीत के माधवटांडा में स्थित गोमत ताल से होता है। ऐसे में पीलीभीत को गोमती नदी का जन्म स्थान भी कहा जा सकता है। लेकिन स्थिति यह है कि जिस स्थान पर इस नदी का जन्म हुआ, वहीं इसे मारने की शुरुआत भी हो जाती है। गोमती का अस्तित्व भूजल पर निर्भर करता था। ऐसे में भूजल दोहन का सीधा असर गोमती नदी पर पड़ेगा और पीलीभीत में भारी मात्रा में पंपसेट की मदद से भूजल से खेती की जाती है। आलम यह है कि खेतों में 100 से 200 मीटर की दूरी पर पंपसेट लगे दिख जाते हैं। यहां तक कि गोमत ताल पर भी एक सोलर पंप लगा है, जिसकी मदद से ताल में पानी भरा जाता है।
गोमती नदी गोमत ताल के बाद करीब 10 किमी की दूरी पर पीलीभीत के पंचखेड़ा गांव के पास नजर आती है। इसके बीच में यह पूरी तरह सूख चुकी है। लगभग ऐसा ही हाल पीलीभीत के बहुत से इलाके में है। पंचखेड़ा गांव के रहने वाले किसान मंजीत सिंह बताते हैं, ''बचपन में जब गोमती के आस पास जाते तो लगता कि नदी है, लेकिन अब तो नाले से बदतर स्थिति हो गई है। पिछले 10 साल में नदी को खत्म होते देख रहा हूं। हर साल नदी सिकुड़ रही है, पिछले साल तो पूरी तरह से सूख गई थी।'' मंजीत सिंह इसके पीछे भूजल के अनियंत्रित दोहन की बात कहते हैं। खेती के लिए उपयुक्त इस इलाके में किसान साठा धान की खेती भी खूब करते हैं। मंजीत साठा धान की खेती को भी भूजल के गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
मंजीत कहते हैं, ''पीलीभीत क्षेत्र में साठा धान खूब लगाया जा रहा है। मार्च से लेकर मई तक लगने वाली इस फसल में पानी अन्य धान के मुकाबले 10 गुना ज्यादा लगता है। ऐसे में क्षेत्र में पानी का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है। गोमती नदी भी गोमत ताल में मौजूद पांच स्रोत से बनती है। जब भूजल का स्तर कम होगा तो स्रोत बंद हो जाएंगे और ऐसा हो भी रहा है।'' मंजीत साठा धान की खेती पर रोक लगाने के लिए स्थानीय अधिकारियों से लेकर नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल तक में शिकायत कर चुके हैं, लेकिन उनकी शिकायत का कुछ खास असर नहीं दिखता।
मंजीत निराश मन से कहते हैं, ''इसके पीछे बहुत बड़ा चैनल है। इलाके में राइस मिल बहुत हैं, पेस्टिसाइड की दुकानें बहुत हैं, क्योंकि उनके लिए पीलीभीत बहुत बड़ा बाजार है। ऐसे में इसपर किसी का ध्यान नहीं जाता कि पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहा है। किसान को तो लग रहा है कि जमीन में पाइप लगाया और पानी निकाल लिया। वो तात्कालिक फायदा देख पा रहा है, लेकिन दूर का नुकसान देखने की उसकी समझ नहीं है।''
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India) के पूर्व निदेशक वीके जोशी पीलीभीत के ट्युबवेल के लगाने के ट्रेंड पर कहते हैं, ''गोमती का अस्तित्व ही भुगर्भ जल पर है। किसानों को समझना होगा कि गोमती नहीं रहेगी तो उनके खेत भी नहीं रहेंगे। आज के वक्त में इतना आसान हो गया है ट्युबवेल लगाना कि जिसकी मर्जी आई उसने जमीन में छेद किया और पानी निकाल लिया। भूजल एक बैंक एकाउंट की तरह है। यह बारिश के पानी से रिचार्ज होता है। आप बैंक अकाउंट में पैसा न डालें और एटीएम से निकालते रहें तो एक दिन नोटिस आ जाएगा। भूजल का एक नोटिस आ चुका है, लेकिन हम इसे नजरअंदाज कर रहे हैं।''
वीके जोशी आगे कहते हैं, ''भूजल का हम अंधाधुन दोहन कर रहे हैं। ट्युबवेल का एक रूल होता है कि अगर 300 फीट का ट्युबवेल एक जगह लगा तो उसके एक हजार मीटर के दायरे में दूसरा ट्युबवेल नहीं लगता, लेकिन कायदे कानून को मानता कौन है। अब और ज्यादा और गहरे ट्युबवेल लगवाए जा रहे हैं। हालात ये हैं कि अब पानी की माइनिंग हो रही है। अभी तक तो यह होता था कि पानी निकाला और बरसात में रिचार्ज हो गया, लेकिन अब स्थिति उलट है। बरसात उस हिसाब की हो नहीं रही कि वॉटर रिचार्ज हो सके। ऐसे में यह खतरे की घंटी है।''
भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रायल और मौसम विभाग की 2013 की रिपोर्ट ''STATE LEVEL CLIMATE CHANGE TRENDS IN INDIA'' के मुताबिक, उत्तर प्रदेश भारत का एक मात्र राज्य है जहां 1951 से 2010 के बीच बारिश कम होती जा रही है। यह रिपोर्ट मंजीत सिंह की उस बात की ओर इशारा करती है कि साल दर साल पीलीभीत का वॉटर लेवल कम होता जा रहा है। पीलीभीत के गिरते भूजल को इस बात से भी समझा जा सकता है कि यहां के लोग बताते हैं, करीब 10 साल पहले वो 4 से 5 फीट पर पानी पा जाते थे, लेकिन अब 10 से 15 फीट पर पानी मिलता है। ऐसे में इसका सीधा असर गोमती पर भी हो रहा है, जिसकी वजह से साल दर साल गोमती सिकुड़ती जा रही है और किनारों पर किसान कब्जा करते जा रहे हैं।
वहीं, उत्तर प्रदेश राज्य भूजल विभाग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2005 के बाद से बढ़े ट्यूबवेल और बोरवेल कनेक्शनों के कारण लखनऊ शहर के अधिकांश इलाकों में प्रति वर्ष 0.5 मीटर से 1.0 मीटर तक भूजल में गिरावट दर्ज की जा रही है। ऐसा ही हाल उत्तर प्रदेश के ज्यादातर जिलों का भी है, जहां भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है।
प्रदूषण से चोक हो चुकी है गोमती
गोमती नदी पीलीभीत के आगे शाहजहांपुर से होकर भी गुजरती है। शाहजहांपुर में गोमती नदी में कुछ पानी नजर आता है, लेकिन यहां भी उसके किनारे ज्यादा चौड़ा नहीं होते। किनारों के दोनों ओर खेत दिखते हैं, वहीं नदी में गंदगी का अंबार लगा मिलता है। शाहजहांपुर के सोनासिर नाथ घाट पर श्रद्धालु पूजा पाठ करने आते हैं। कई श्रद्धालुओं के मुताबिक, गोमती उनके लिए मां के समान है। ऐसे में वो घाट पर श्रद्धा की डुबकी लगाते हैं, लेकिन जहां वो डुबकी लगाते हैं वहां नदी साफ की गई है। वहीं, ठीक 100 मीटर की दूरी पर नदी में कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है। इसमें प्लास्टिक की प्लेट, चावल, पूजा का सामान, मूर्तियां और न जाने कौन-कौन सी चीजें समाहित हैं। इसे देखकर पहला ख्याल मन में आता है कि किसी ने गोमती का गला घोंट दिया हो। इसकी वजह से नदी पूरी तरह से ठहरी मालूम देती है।
इसी घाट पर मिले एक युवक गोपाल शुक्ला (29 साल) बताते हैं ''गंदगी की वजह से यहां नदी पूरी तरह ब्लॉक हो गई है। इसकी सफाई होनी चाहिए, इस वजह से इसका प्रवाह भी बाधित हो रहा है। अभी स्वच्छ भारत मिशन चल रहा है तो लोग रैलियां निकालते हैं, कैमरे पर बाइट देते हैं, लेकिन असल में काम करने कोई नहीं आ रहा। शहरों तक स्वच्छ भारत मिशन चलाने से काम नहीं होगा। यहां आना चाहिए, लोगों को नदी को लेकर जागरूक करना चाहिए ताकि वो इसमें कूड़ा कचरा न डालें। अगर इसे मां कहते हैं तो मां मानना भी चाहिए।'' हमारी टीम ने गोमती को ट्रैक करते हुए पाया कि जहां धार्मिक तौर पर नदी से लोगों को जुड़ाव था, वहां इसमें कड़ा-कचरा ज्यादा देखने को मिला। गोपाल शुक्ला बताते हैं कि ''वो नदी को बचपन से देखते आ रहे हैं और यह नदी वो नहीं रही तो उन्होंने बचपन में देखी थी, जिसमें उन्होंने स्नान किया था।'' गोपाल प्रदूषण की वजह से इस नदी में आस्था होने के बावजूद नहाने से कतराने की बात कहते हैं।
लोक भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बृजेंद्र सिंह गोमती नदी में प्रदूषण और इसकी दुर्दशा पर कहते हैं, ''किसी भी नदी के जीवन के लिए दो चीजें जरूरी होती हैं। पहला कि उसमें प्रदूषण न हो, दूसरा उसका प्रवाह बना रहे। गोमती के लिए दोनों ही तरह की दिक्कतें हैं।'' बृजेंद्र कहते हैं, ''धार्मिक स्थलों पर गोमती में कूड़ा-कचरा बहुत प्रवाहित किया जाता है। यह उसके लिए नुकसान है। इसपर लोगों को खुद से रोक लगाना चाहिए।'' लोक भारती संस्थान पर्यावरण और विशेषकर गोमती नदी को फिर से जीवित करने को लेकर कार्य करती है।
बृजेंद्र सिंह से मिलती जुलती बात वीके जोशी भी कहते हैं। वो कहते हैं, ''गोमती 10 हजार साल से बहती चली आ रही है। यह तो हुई प्राकृतिक बात, लेकिन अप्राकृतिक यह हुआ कि हम लोगों ने बिना सोचे समझे नदी को प्रदूषित किया है। हम ये मान बैठे कि नदी तो मैला ले जाने का साधन है। इसमें फैक्ट्रियों का कचरा, हमारे द्वारा प्रवाहित की गई चीजें और कई अन्य तरीकों से इसे प्रदूषित करने का काम किया। यही हमारी गलती है। इसी वजह से नदी और प्रदूषित होती जा रही है।''
गोमती के प्रदूषण की बात करें तो इसकी सहायक नदियों का जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है। गोमती की सहायक नदियों (छोहा, कथिना, झुकना, सराएं) की बात करें तो इनका हाल भी बुरा ही दिखा। इनके पानी में टार की तरह मल तैरता मिला। लखीमपुर से लेकर सीतापुर तक यह नदियां गोमती में मिलती हैं और नदी के जल को दूषित करती जाती हैं।
वीके जोशी कहते हैं, ''गोमती के रास्ते में ऊपर की ओर से जितने शहर हैं उन सबका नाला गोमती में जा रहा है और लखनऊ का भी जा रहा है। मायावती के राज में एशिया का सबसे बड़ा एसटीपी (सीवेज ट्रिटमेंट प्लांट) लखनऊ में बनाया गया, लेकिन यह तय नहीं किया गया कि इतने बड़े एसटीपी को चलाने के लिए बिजली कहां से आएगी। इस वजह से यह बंद भी हो गया और बाद में अपनी एक चौथाई क्षमता पर चल रहा है। अब समझना होगा कि इससे कितना पानी साफ होता होगा।
वीके जोशी कहते हैं, ''गोमती नदी का पानी छूने लायक नहीं बचा है। गोमती में छोटे-छोटे सीवेज प्लांट बनाने की जरूरत थी। जब गंगा को साफ करने की बात हो रही है तो गंगा की इस सहायक नदी को साफ करना बेहद जरूरी हो जाता है, क्योंकि यह उसकी सहायक नदी है।
ताल और सहायक नदियों के सूखने से भी गोमती पर असर
प्रदूषण के अलावा तालों और झीलों का सूखना भी गोमती के अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। गोमती नदी ताल और झीलों से रिचार्ज होती है। यह इसके प्राकृतिक स्रोत हैं। हालांकि गोमती की कई सहायक नदियां सूख गई हैं या तो उनमें गंदा पानी बह रहा है। इसी कड़ी में हमारी टीम जब शाहजांपुर के बंडा-पुवायां रोड पर गई तो वहां भैंसी नदी पूरी तरह से सूखी मिली। स्थानीय लोगों ने बताया कि यह नदी आगे जाकर गोमती से मिलती थी, लेकिन पिछले साल से ही इसमें पानी नहीं है। हाल यह था कि नदी के ऊपर बड़ा पुल बना था, उसके किनारों पर कटान न हो इसके लिए पत्थर लगाए गए थे, लेकिन नदी में पानी की एक बूंद नहीं थी।
भैंसी की तरह ही गोमती की अन्य सहायक नदियों का हाल बुरा ही दिखा। कई नदियां तो बिल्कुल ठहरी हुई मालूम देती हैं। वीके जोशी तालों और जल स्रोतों के सूखने पर कहते हैं, ''गोमती भूगर्भ जल पर निर्भर करती है और हमने सुनियोजित ढंग से इसके जल स्रोतों को खत्म करने का काम किया है। बात करें लखनऊ की तो यहां कभी 300 से ज्यादा झीलें थीं। पिछले 40 साल में इनको सिस्टम के तहत पाट दिया गया। हमने एक-एक झील को म्युनिसिपल वेस्ट से भर दिया। आशियाना, राजाजीपुरम, यह सब झील थीं। यह सब नेचुरल वॉटर बॉडी थी, जिसे पाट दिया और यहां कॉलोनी बसा दी गई।''
किनारों पर कब्जा बड़ी समस्या
गोमती नदी के लिए बढ़ती आबादी भी खतरा लेकर आई। इसके चलते किनारों पर कब्जा बढ़ता गया और कई जगह तो नदी के लिए जगह भी नहीं छोड़ी गई। गोमत ताल से लेकर सीतापुर के नैमिषारणय से पहले तक गोमती नदी नाले की शक्ल में बहती नजर आती है। इसकी वजह किनारों पर खेत और नदी की जमीन पर अवैध कब्जा होना है।
नदी विशेषज्ञ डॉ. वेंकटेश दत्ता इस बात पर चिंता व्यक्त करते हैं। वो कहते हैं, ''हमने नदी की जमीन को बेच दिया। राजस्व में जमीनों का रिकॉर्ड खंगालने पर यह साफ दिखता है। इसमें लेखपालों की मिली भगत से यह काम किया गया। गांव के गांव नदी के किनारों पर बसे हैं और किसानों ने नदी की जमीन जोत ली है।'' इस बात को पीलीभीत के पंखखेड़ा गांव के रहने वाले किसान पुष्पजीत सिंह भी मानते हैं। वो बताते हैं, ''हमारे गांव में ही चकबंदी के दौरान कई किसानों की जमीन नदी की जमीन में आ गईं। वो सभी वहां खेती कर रहे हैं।''
वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''नदी ने अपना स्वभाव नहीं बदला है। वो तो अपने हिसाब से चल रही है, लेकिन हमने उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया। हम लोगों ने जब यात्रा की थी तो पीलीभीत और शाहजहांपुर में कई किसान जमीन देने को तैयार हो गए थे, लेकिन सरकार की ओर से इसपर ध्यान नहीं दिया गया।''
वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा प्रदूषण मामले में सुनवाई करते हुए पूर्व में एक निर्णय दिया था जिसमें इलाहाबाद में गंगा-यमुना नदी के तट से 500 मीटर तक की दूरी पर किसी भी प्रकार का नवीनीकृत निर्माण कार्य नहीं होगा। यह 500 मीटर नदी के बीच से दोनों किनारों तक 250-250 मीटर था। इस आदेश को अधार बनाते हुए ही नदी के आस पास विकास करना चाहिए, क्योंकि नदी का एक ब्रीथिंग स्पेस होता है। इसके साथ छेड़छाड़ करना सही नहीं है, लेकिन नियम मानता कौन है। इन कब्जों की वजह से नदी के बहाव पर भी असर हो रहा है।''
हालांकि इन तमाम रुकावटों के बावजूद सीतापुर के आगे नैमिषारणय में नदी का बहाव सही नजर आता है। वेंकटेश दत्ता इसके पीछे की वजह बताते हैं कि ''सीतापुर में कई छोटी-छोटी नदियां (छोहा, सराएं, कथिना) गोमती से मिलती हैं। साथ ही कई स्रोत भी नैमिष क्षेत्र में मौजूद हैं। इसकी वजह से नदी में पानी नजर आता है।''
रिवर फ्रंट से अधर में गोमती का भविष्य
सीतापुर के बाद गोमती नदी चौड़ी हो जाती है और बहाव के साथ लखनऊ तक पहुंचती है। लेकिन लखनऊ पहुंचते ही समस्या और विकराल हो जाती है। लखनऊ के कुड़ियाघाट पर मिले एक मछुआरे अनिल ने बताया कि पहले नदी में खूब मछलियां मिलती थीं। टेंगेन, रोहू, छोटी मछलियां यहां आसानी से मिल जातीं, लेकिन जबसे रिवट फ्रंट बना मछलियां यहां से खत्म हो गईं। अब हमें मछलियों को लिए दूर जाना होता है।'' बता दें, अखिलेश यादव ने मार्च 2015 में 656 करोड़ की लागत से गोमती रिवर फ्रंट प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी। इस प्रोजेक्ट का नदी विशेषज्ञ पहले दिन से विरोध कर रहे थे।
वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''लखनऊ में गोमती नदी रिसर्च का विषय बन गई। यहां सरकारें इसे लेकर अलग-अलग प्रोजेक्ट लाईं। इसी के तहत रिवट फ्रंट प्रोजेक्ट भी आया। नदी को अरबन और रूरल रिवर में बांटा दिया गया, लेकिन नदी तो नदी होती है। रिवर के दोनों तरफ के किनारे उसका ब्रीथिंग स्पेस होता है। स्टेट कैपिटल में ऐसी चाह रहती है कि हम नदी के किनारे तक पहुंच जाएं जिससे वहां अपार्टमेंट बना सकें, उसका व्यवसायिक उपयोग कर सकें। शहरों में प्लानर्स नदी को इस तरह से देखते हैं। नदी का किनारा प्राइम लैंड है। इसपर सबकी नजर है।''
वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''नदी इससे बहुत अलग है। वो ग्राउंड वॉटर से चार्ज भी होती है और ग्राउंड वॉटर को रिचार्ज भी करती है। लेकिन किनारों पर दीवार खड़ी होने से पानी रिचार्ज होना, नया वैजिटेशन बनना खत्म हो गया। जमीन से नदी का यह जो जुड़ाव है हमारे इंजीनियर समझ नहीं पाते। उनको बस केनाल का मतलब पता है कि नदी से कैसे पानी निकाला जाए तो यह उन्हें पता है, लेकिन अगर उनसे पूछा जाए कि नदी में पानी बढ़ाएं कैसे तो उन्हें इस बारे में पता नहीं होगा। यही वजह है कि यूपी में नदियों से ज्यादा कैनाल का अस्तित्व है। 74 हजार किलोमीटर का कैनाल का नेटवर्क है।''
वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''8.2 किमी का रिवर फ्रंट है। इसकी दीवार की चौड़ाई 600 एमएम है। 32 एमएम का सरिया का जाल लगा है। इतना मजबूत स्ट्रक्चर बनाने की जरूरत नहीं थी। आप स्टोन पिचिंग करते, लेकिन उसमें पैसा नहीं होता इस लिए यह काम नहीं किया गया।'' वेंकटेश दत्ता कहते हैं, रिवर फ्रंट ने गोमती के भविष्य को अधर में डाल दिया है। इसमें न तो मछलियां हैं, न कछुए हैं, क्योंकि पानी में ऑक्सिजन नहीं है, नाले गिरते हैं जिसकी वजह से यह और जहरीली हो गई है। हाल यह है कि रिवट फ्रंट के इलाके में गोमती का पानी ठहरा हुआ है और सड़ रहा है। इतना ही नहीं नदी के तल में सिल्ट भी जमी हुई है। हमारी जानकारी में यह डेढ़ मीटर है, लेकिन सरकार की ओर से दावा किया गया कि एक मीटर तक सिल्ट निकाली गई है, लेकिन इसमें क्या सच्चाई है कुछ पता नहीं।''
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India) के पूर्व निदेशक वीके जोशी रिवर फ्रंट पर कहते हैं, ''गोमती में जिंक, मरकरी, आरसेनिक, मैगनेशियम जैसे तमाम जहरीले पदार्थ पाए जा रहे हैं। यह तब है कि जब लखनऊ में कोई ऐसी इंडस्ट्री नहीं है। इसके पीछे की एक वजह इसके पानी का ठहराव भी है।''
वीके जोशी कहते हैं, ''नदी के दोनों ओर कंकरीट की दीवार बना दी गई। इससे नदी का ग्राउंड वॉटर से तालमेल बिगड़ गया। जब इसका विरोध किया गया तो उन्होंने कहा कि नदी के ग्राउंड वॉटर से लेन देने के लिए हमने दीवार में पीवीस पाइप लगा दी है। यह समझने की बात है कि ये प्राकृतिक तौर होता है कि नदी कहां से ग्राउंड वॉटर लेगी, इसे पीवीसी पाइप लगाकर तय नहीं किया जा सकता।'' वीके जोशी कहते हैं, ''रिवट फ्रंट गोमती नदी के लिए गोमती नगर प्रोजेक्ट की तरह ही गलत साबित हुआ। नदी के 500 मीटर से 5 किलोमीटर का इलाका खादर का होता है। खादर नदी के रेतीली तट को कहा जाता है जहां से पानी बढ़ने पर या बरसता होने पर पानी सीधे भूगर्भ में चला जाता है। गोमती नगर इसी खादर के इलाके में बसा दिया गया, जिससे भूगर्भ में जल जाना बंद हो गया।''
राज्य में योगी सरकार बनने के तुरंत बात रिवट फ्रंट परियोजना की जांच के लिए एक उच्च स्तरीय न्यायिक समिति गठित की गई। तीन सदस्यीय इस समिति के सदस्य आईआईटी बीएचयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और नदी वैज्ञानिक यूके चौधरी ने गांव कनेक्शन को बताया कि ''नदी का आधारभूत भोजन ग्राउंड वॉटर है। अगर ग्राउंड वॉटर पर असर होगा तो नदी पर भी असर होगा। आपने दीवार बनाकर गोमती को घेर दिया तो इसकी वजह से लखनऊ जोन में नदी में भूजल मिल ही नहीं रहा। आपने नदी का ढाल खत्म कर दिया और खड़ी दिवार चलाकर इसे कैनाल बना दिया। इसमें बसने वाले जीव जिनका जमीन से भी संपर्क होता था वो पूरी तरह से कट गया और वो यहां से खत्म हो गए। साथ ही जो दूसरी नाले-नदियां मिलती हैं उसे आपने पूरी तरह से खत्म कर दिया। हमारी जांच में हमने पाया कि गोमती प्राकृतिक रूप से समाप्त थी। अगर इसे सही करना है तो ग्राउंड वॉटर को नेचुलर वॉटर से मिलने दिया जाए।''
क्या है उपाय?
वीके जोशी कहते हैं, ''अबतक जो हुआ उसे ठीक करने का एक प्रयास किया जा सकता है। नदी को जीवित करने का एक मौका यह है कि लखनऊ तक तो जो कर दिया गया वो हो गया, लेकिन लखनऊ के आगे सुलतानुपर तक इलाके को ग्रीन छोड़ दिया जाए। नदी के तट पर कोई निर्माण न हों और वनीकरण किया जाए।'' वीके जोशी कहते हैं, ''नदियों को लेकर कलेक्टिव जानकारी नहीं है। कोई एक ऐसा संस्थान होना चाहिए जो नदियों पर काम करे। उनका डाटा एक जगह हो और इंजीनियर इन डाटा को देखते हुए काम करें।''
वहीं, वेंकटेश दत्ता कहते हैं, ''गोमती के लिए शॉर्ट टर्म, मिडिल टर्म और लॉन्ग ट्रम प्लान बनाना होगा। बाहर कई ऐसी नदिया थीं जो पूरी तरह से डेड हो गई थीं, उनको जीवित किया गया है तो गोमती भी क्यों नहीं हो सकती। हां, लेकिन इसमें वक्त जरूर लगेगा।'' वेंकटेश कहते हैं, ''साथ ही लोगों को जागरूक होना होगा तब कहीं नदी का अस्तित्व बच सकता है। पीलीभीत से लेकर लखीमपुर तक जहां नदी के किनारों पर कब्जा किया गया है, उन किसानों को खुद से यह अहसास होना चाहिए कि यह अपराध है और एक नदी को मारने की कोशिश है।''
(यह स्टोरी गांव कनेक्शन की सीरिज 'एक थी गोमती' के तहत की गई है। गोमती नदी को लेकर हमारी टीम ने एक पूरी सीरिज प्लान की थी। इसके तहत हमने गोमती नदी के उद्गम स्थल (पीलीभीत की ग्राम पंचायत माधवटांडा) से लेकर लखनऊ तक नदी को बाइक से ट्रैक किया। चार दिन में गोमती को ट्रैक करते हुए गांव कनेक्शन की टीम ने पीलीभीत, शाहजहांपुर, लखीमपुर खीरी, सीतापुर और लखनऊ में करीब 425 किमी बाइक से यात्रा की। इस बाइक यात्रा में हमने नदी के जीवन को जानने, उसकी हाल की स्थिति देखने के साथ ही इसके आस पास बसने वाले लोगों से समझा कि गोमती नदी उनके लिए क्या मायने रखती है। gaonconnection.com पर आप इस सीरिज की खबरें पढ़ सकते हैं।)
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