क्या सिर्फ यादों में ही जिंदा रह जाएंगे कुएं ?

करीब 4 दशक पहले तक ग्रामीण इलाकों में पानी का मुख्य श्रोत कुएं हुआ करते थे। पीने के साथ-साथ सिंचाई का मुख्य जरिया भी। वहीं हमारी संस्कृति और परंपराओं में भी कुएं की बड़ी महत्ता थी। कई मांगलिक कार्यक्रम भी कुएं के पास होते थे। लेकिन हर साल भूजल का गिरना और बदलते परिवेश के कारण कुएं अंतिम सांस गिन रहे हैं।

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   3 Nov 2018 1:18 PM GMT

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क्या सिर्फ यादों में ही जिंदा रह जाएंगे कुएं ?

लखनऊ। आज से करीब चार चार दशक पहले तक ग्रामीण इलाकों में पानी का मुख्य श्रोत कुएं हुआ करते थे। पीने के साथ-साथ सिंचाई के लिए कुएं ही साधन हुआ करते थे। वहीं हमारी संस्कृति और परंपराओं में भी कुएं की बड़ी महत्ता थी। मांगलिक कार्यक्रमों भी कुएं पास कई आयोजन हुआ करते थे। लेकिन हर साल भूजल का गिरना और बदलते परिवेश के कारण कुएं अंतिम सांस गिर रहे हैं।

" जब मेरे बेटे की शादी हुई थी तो घर के पास वाले कुएं पर मैंने बहुत सी रस्में निभाई थीं, लेकिन पिछले वर्ष जब मेरे पोते की शादी थी उन्हीं रस्मों को कुएं पास स्थित हैंडपंप पर निभाई गई, क्योंकि कुआं सूख चुका था। हमारे यहां शादी के पांच दिन पहले कुएं के पास एक गड्ढा खोदा जाता था, उसके बाद कुएं से पानी से उस गडढे को भरा जाता था उसी पानी से दूल्हा नहाता भी था, लेकिन अब गांव के सभी कुएं सूख चुके हैं। अब हैंडपंप ही सहारा है।" ये कहना है गोरखपुर स्थित विकास खंड पिपराइच के गांव रक्षवापार निवासी इंद्रावती देवी (70वर्ष) का।

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ये व्यथा बस इंद्रवती देवी की नहीं, बल्कि देश के ज्यादातर इलाकों की है जहां कुएं या तो सूख गए हैं या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं। एक समय था जब गाँवों में पानी का मुख्य साधन कुएं को माना जाता था। बड़ी से बड़ी बीमारियों से निपटने के लिए लोग इसका पानी पीते थे।

बिहार के ज्यादातर हिस्सों में छठ में खरना के प्रसाद के लिए कुएं के पानी का ही प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब कुएं सूख हैं और जो बचे हैं उनका पानी खराब हो गया है, जिससे मजबूरी में लोग हैंडपंप के पानी से प्रसाद तैयार करते हैं।

दरभंगा निवासी डा. जयशंकर मिश्रा (52वर्ष) ने बताया, " अब कुएं रहे नहीं, लेकिन मुझे याद है बचपन में हमारी दादी खरना का प्रसाद तैयार करती थीं। इसमें साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है। विभिन्न आयोजनों पर कुएं की पूजा किया जाता था। कोई भी जूता-चप्पल पहनकर कुएं पर नहीं जाता था। दादी कुएं से पानी लाती थी। उस समय खेती के साथ-साथ पीने के लिए कुएं का पानी ही एक माध्यम था। अब समय बदल गया है। कुएं की जगह हैंडपंप और टयूबवेल ने ले लिया है।"

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भारत में कुएं का इतिहास

भारत में प्रागैतिहासिक काल से भूमिगत जल का इस्तेमाल हो रहा है। कुएँ जलापूर्ति के महत्त्वपूर्ण साधन रहे हैं। मत्स्य पुराण में भी कुआँ खोदे जाने का उल्लेख है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चला है कि 3000 ईपू में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने ईंटों से कुओं का निर्माण किया था। मौर्यकाल में भी ऐसे कुओं का उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (300 ईपू) के दौरान कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रहट के जरिए कुओं से सिंचाई का विवरण प्राप्त होता है।

10 लाख से ज्यादा कुएं बुंदेलखंड में हुआ करते थे

60 के दशक के बाद होने लगी कुएं की उपेक्षा

1954 में पहली बार टयूबवेल लगाए गए

1954 में एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल्स ऑर्गेनाइजेशन (ईटीओ) की स्थापना की गई

केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा की गई पांचवीं छोटी सिंचाई जनगणना के अनुसार देश देश के 661 जिलों में गहरे कुंओं की संख्या 2.6 मिलियन है। रिपोर्ट के अनुसार, कुल गहरे कुएं, जो 12.68 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई करते हैं, मुख्यत: पंजाब, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में स्थित हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि गहरे कुएं 70 मीटर से अधिक गहरे हैं।

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नहीं हुए जल संरक्षण के प्रयास, खतरे का संकेत

भूमिगत जल के अतिदोहन से भारत के कई राज्यों में भूमिगत जल के स्तर में काफी गिरावट दर्ज की गई है, जो भविष्य के लिये हानिकारक है। भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन से सदावाहिनी नदियां भी सूख रही हैं। जल संरक्षण के लिए सरकार कई प्रयास कर रही है, लेकिन इसका लाभ नहीं मिल रहा है। सरकार ने तालाबों को मनरेगा के तहत गहरा करने का कार्य जरूर किया, लेकिन कुएं की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कु जल संरक्षण जैसे कार्य में लगे स्वयंसेवी संस्थाओं ने कुओं को बचाने का बीड़ा उठाया है। भूगर्भ जल हर साल नीचे जाना भविष्य के लिए खतरे का संकेत के रूप में माना जा रहा है।

तरक्की के नाम पर जमकर किया जल दोहन

कुएं की उपेक्षा 60 के दशक के बाद होने लगी। सन 1954 में केन्द्रीय कृषि विभाग के अन्तर्गत एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल्स ऑर्गेनाइजेशन (ईटीओ) की स्थापना की गई। वर्ष 1954 में पहली बार टयूबवेल लगाए गए। 1960 तक आते आते टयूबवेल मुख्य धारा में आ गया। सरकार ने भी टयूबवेल लगवाने के लिए खूब पैसा खर्च किया।क्षमता से ज्यादा टयूबवेल लगा दिए गए। वर्ष 1966 में हरित क्रांति का आगाज हुआ। अब हमें पानी की बहुत ज्यादा जरुरत होने लगी।

टयूबवेल और बोरवेल से लोगों से जल दोहन करना शुरू कर दिया। जब कुएं से सिंचाई होती थी तो लोग बाल्टी या चरस से पानी निकालते थे। इस प्रक्रिया में ताकत बहुत लगती थी, लोग कम पानी निकालते थे, लेकिन जब टयूबवेल आ गया तो एक बटन दबा दिया और खूब पानी निकालने लगे। तरक्की के नाम पर हमने जल का दुरुपयोग किया। इसका परिणाम यह रहा कि छिछले कुओं का जल स्तर गिर गया। जब पानी नहीं है तो लोग इन कुओं से दूरी बना लिए। इस तरह कुएं उपेक्षित होने लगे। कुछ लोगों इन बेकार कुओं का जिंदा करने की जगह उन्हें पाटकर उनपर कब्जा कर लिया।

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मध्यप्रदेश में पानी रोको अभियान की योजना बनाने वाली टीम के सदस्य और भूवैज्ञानिक केजी व्यास ने बताया, " सरकार की अनदेखी के चलते मौजूद प्राकृतिक जल स्त्रोत बदहाली का शिकार हो रहे हैं। इनमें से जोहड़ व कुएं तो समाप्त ही हो गए है। बदहाली का शिकार कुओं को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास तो बहुत बार किए गए हैं लेकिन सही तरह से क्रियान्वयन नहीं होने के कारण उनके सकारात्मक परिणाम नहीं निकले। अगर कुओं को जिंदा करना है तो सबसे पहले हमें नदियों को जिंदा रखना होगा। अगर नदियों में पानी का स्तर कम नहीं होने दे तो कुएं फिर से जिंदा हो जाएंगे।"

बुंदेलखंड में सिंचाई का एक मात्र साधन कुएं थे

बुंदेलखंड में जल संरक्षण पर काम कर रही परमार्थ संस्था के राष्ट्रीय संयोजक संजय कुमार ने बताया," बुंदेलखंड, महाकौशल और रीवांचल क्षेत्र में 80के दशक तक सिंचाई और पीने के लिए मात्र कुएं ही माध्यम थे। इन क्षेत्रों में करीब 10 लाख से ज्यादा कुएं हुआ करते थे। यहां पर सिंचाई के लिए अभी भी कुएं ही माध्यम हैं। इस क्षेत्र में पीने के लिए अलग और सिंचाई के अलग कुएं हुआ करते थे, जिनमें से पीने वाले करीब 96 प्रतिशत कुएं खत्म हो चुके हैं। लोगों ने अपने घरों में हैंडपंप लगवा लिए हैं। जो कुएं बचे हैं वे भी उपेक्षा के शिकार होते जा रहे हैं। अधिकतर बेकार पड़ गए हैं या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं। लेकिन थोड़े-से रुपए खर्च करके उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सकता है।"

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भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव

बढ़ते औद्योगिकीकरण तथा गाँवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन तथा फैलते शहरीकरण ने भी अन्य जलस्रोतों के साथ भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव उत्पन्न किया है। भूमिगत जल-स्तर के तेजी से गिरने के पीछे ये सभी कारक भी जिम्मेदार रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण जहाँ जल की आवश्यकता बढ़ी है वहीं प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है।

कुल आकलनों के अनुसार सन 2000 में जल की आवश्यकता 750 अरब घन मीटर (घन किलोमीटर) यानी 750 जीसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) थी। सन 2025 तक जल की यह आवश्यकता 1050 जीसीएस तथा सन 2050 तक 1180 बीसीएम तक बढ़ जाएगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में प्रति व्यक्ति जल की औसत उपलब्धता 5000 घन मीटर प्रति वर्ष थी।

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सन 2000 में यह घटकर 2000 घन मीटर प्रतिवर्ष रह गई। सन 2050 तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर प्रतिवर्ष से भी कम हो जाने की सम्भावना है।

केंद्रीय भूमि जल बोर्ड के क्षेत्रीय निदेश वाईबी कौशिश ने बताया, " बढ़ती आबादी के कारण पानी की आवश्यकता बढ़ी है। वहीं जबसे टयूबवेल का युग प्रारंभ हुआ तबसे लोगों ने जमकर भूमिगत जल का दोहन किया। जितनी जरुरत थी उससे कहीं ज्यादा पानी निकाल लिया। प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है।इसी का परिणाम रहा कि कुएं खत्म हो गए। जो बचे हैं वे अंतिम सांस गिर रहे हैं। सरकार ने जो कुएं खुदवाए थे उन्हें समाज का दे दिया। लेकिन लोगों ने उन कुएं को पाटकर कब्जा कर लिया।"जल के बिना जीवन नहीं है। लोगों को जल संरक्षण के महत्व का समझना होगा अभी और जागरूकता लाने की आवश्यकता है तभी साकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।

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