Water Index : पानी बना नहीं सकते, बचा तो लीजिए 

Dr SB MisraDr SB Misra   18 Jun 2018 12:18 PM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
Water Index  :  पानी बना नहीं सकते, बचा तो लीजिए घटता जल स्तर लोगों के लिए है खतरनाक।

कृषि प्रधान भारत की अर्थव्यवस्था को पानी के भगवान यानी इन्द्र देवता चलाते हैं। हमारे वैज्ञानिक भी इन्द्रदेव के अतिवृष्टि-अनावृष्टि के चक्रव्यूह को तोड़ नहीं पाए हैं। पिछले कुछ वर्षों से सारी दुनिया में पानी के अभाव की अधिक चिन्ता होने लगी है। इसका सर्वाधिक असर किसानों पर पड़ा है। आजादी के समय गांवों की 80 प्रतिशत आबादी अब घट कर 70 प्रतिशत रह गई है। इसका प्रमुख कारण है जल की अनिश्चित उपलब्धता। मौसम का नियंत्रण प्रकृति या इन्द्र जो भी कहें अपने ढंग से करते हैं।

महाराष्ट्र में पानी ले जाती महिला। फोटो गांव कनेक्शन

गर्मी में समुद्र की सतह से भाप बनकर पानी आसमान में जाता है जहां पर ठंडा होकर द्रव बनकर वर्षा ऋतु में धरती पर गिरता है। इस वर्षाजल का कुछ भाग पहाड़ों पर रह जाता है, कुछ धरती के अन्दर भूजल के रूप में चला जाता है और बाकी सब वापस समुद्र में जाता है। इसे जलचक्र कहते है जो हमेशा चलता रहता है। इस चक्र में यदि मानवजनित व्यवधान आया तो कभी अतिवृष्टि और कभी अनावृष्टि होती है। यानि कभी बाढ़ तो कभी सूखा। वैज्ञानिक समय समय पर ग्रीनहाउस प्रभाव, ओज़ोन परत में छेद, निर्वनीकरण जैसी बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते रहते हैं। एक मोटा सिद्धान्त है कि यदि हम प्रकृति को चैन से नहीं रहने देंगे तो प्रकृति भी हमें चैन से नहीं रहने देगी।

ये भी पढ़ें- बुंदेलखंड में पानी की किल्लत शुरू, महिलाएं मजदूरी और लड़कियां पढ़ाई छोड़ भर रहीं पानी

ये महाराष्ट्र के गांव की तस्वीर, फाइल फोटो-

किसान की खेती के लिए औसत वर्षा का महत्व नहीं है और ना ही इस बात का कि कुल कितने सेन्टीमीटर पानी बरसा, बल्कि महत्व इस बात का है कि कितने कितने अन्तराल पर पानी बरसा। साल की पूरी बरसात में पानी न बरसे और अन्त में घनघोर पानी बरस जाए और औसत पूरा हो जाय तो इससे किसान की फसल का भला नहीं होगा।

ये भी पढ़ें- बोतल बंद पानी और RO छोड़िए , हर्बल ट्रीटमेंट से भी पानी होता है शुद्ध, पढ़िए कुछ विधियां

मौसम विज्ञानी के. निरंजन और उनके साथी शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च का परिणाम 2013 में छापा और इन्टरनेट पर उपलब्ध कराया। इसमें कहा गया है कि 1901 से 2010 के बीच देश में 21 बार सूखा पड़ा है। समय के साथ हालात बिगड़ ही रहे हैं। जनवरी (2018) महीने में ग्रामीण इलाकों से गुजरते हुए देखा एक के बाद एक तालाब सूखे पड़े हैं। ये वही तालाब हैं जिन्हें पिछले साल सरकार ने मनरेगा के अन्तर्गत जल संचय के लिए बनवाया था। इस साल अनावृष्टि का बहाना भी नहीं चलेगा। ग्राम प्रधानों की जिम्मेदारी निश्चित की जानी चाहिए नहीं तो तालाब खुदते रहेंगे और नहरों की सफाई भी नाम के लिए होती रहेगी, किसान असहाय बना रहेगा। भूमिगत पानी की हालत और भी खराब हैं।

जब देश आजाद हुआ तो उत्तर भाररत के अनेक भागों में कुएं से पानी निकालने में करीब 7 फिट की रस्सी लगती थी, बरसात में तो रस्सी की जरूरत हीं नहीं पड़ती थी। अब कुएं बहुत कम बचे हैं और जो बचे हैं उनसे पानी निकालने में करीब 20 से 50 फिट की रस्सी लगती है। जलस्तर इतनी तेजी से नीचे गिर रहा है कि रस्सी की लम्बाई हर साल बढ़ती जा रही है। हमारी सरकारें विदेशी मुद्रा भंडार और खाद्य भंडार की चिन्ता तो करती हैं, उन्हें बढ़ाने की कोशिश भी करती हैं लेकिन इनसे कहीं अधिक जरूरी है जल भंडार जो प्रकृति ने हमारे जीवन के लिए जमीन के अन्दर संचित किया है, उसे बढ़ा न सकें तो कम नहीं करना था।

ये भी पढ़ें- भूगर्भ जल पर निर्भर रहने वाले किसानों की जल्द बढ़ेंगी मुश्किलें

भूजल संरक्षण के लिए रिपोर्टें तो खूब बनीं, गोष्ठियां और चर्चाएं होती हैं परन्तु राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी के प्रयास इसके आगे नहीं बढ़ते। देश के उत्तरी बलुअर क्षेत्रों में तो पर्याप्त भूजल मौजूद है लेकिन दक्षिण भारत के चट्टानी इलाकों में जमीन के नीचे जल संचय नहीं हो पाता। चीन जैसे देशों में भी भूजल की कमी है लेकिन उन्होंने धरती की सतह पर जल संचय करके इसकी पूर्ति की है। भूजल की मात्रा के साथ ही सबसे महत्वपूर्ण है इसे प्रदूषण से बचाना क्योंकि एक बार प्रदूषित हो जाने के बाद इसे शुद्ध करना सम्भव नहीं।

कुछ लोग तो यहां तक मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। वैज्ञानिकों ने समय समय पर सरकार और समाज को आगाह किया है कि भूमिगत जल का स्तर तेजी से नीचे जा रहा है, कहीं कहीं तो एक मीटर प्रतिवर्ष तक। जरूरत है पारम्परिक वाटर हार्वेस्टिंग और प्राकृतिक रीचार्ज की, जिसके लिए आवश्यक तैयारी नहीं हुई है। गांवों के तालाबों के या तो खेत बन गए हैं या फिर वे जलकुम्भी, काई और घास से पट रहे हैं। झील और जलाशयों में सिल्टिंग के कारण जलधारक क्षमता घट रही है। पानी के भंडारण को बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि पृथ्वी को वनस्पति (पेड़-पौधों) से आच्छादित किया जाए। सड़कों, गलियारों, नहरों के किनारे पेड़ लगाए जाएं, तालाबों का समतलीकरण रोका जाए और धरती पर उपलब्ध जल का सदुपयोग किया जाए।

ये भी पढ़ें- केपटाउन समेत भारत के कई इलाकों के जल संकट को कम कर सकती है ये मशीन

भूतल पर जल संग्रह की क्षमता जानने के लिए सघन सर्वेक्षण के द्वारा पंचायत स्तर पर आंकड़े तैयार किए जाने चाहिए। जिस प्रकार नदियों को दो श्रेणियों में बांटा जाता है साल भर बहने वाली पेरीनियल नदियां और केवल बरसात में प्रवाहमान सीजनल नदियां, उसी प्रकार पंचायत स्तर पर तालाबों के आंकड़े तैयार किए जा सकते हैं, साल भर जल से भरे रहने वाले और मौसमी तालाब। मौसमी तालाबों को वर्षभर जल से भरे रहने वाले तालाबों में परिवर्तित करके उन्हें उपयोगी बनाने का प्रयास होना चाहिए। आने वाले संकट से उबरना कठिन तो है, पर असम्भ्व नहीं।

नोट- अगले भाग में पढ़िए- मनरेगा के तालाब और पानी

           

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.