ज़्यादा उत्पादन से नहीं, गुणवत्ता वाली उपज से मिलेगा फायदा 

Anusha MishraAnusha Mishra   27 Jan 2018 4:13 PM GMT

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ज़्यादा उत्पादन से नहीं, गुणवत्ता वाली उपज से मिलेगा  फायदा साभार - गेटी इमेजेज

देश के ज़्यादातर किसानों ने ये मान लिया है कि अगर वो किसी फसल से अधिक पैदावार लेंगे तो उन्हें ज़्यादा फायदा होगा लेकिन पिछले कुछ समय में आलू, गेहूं, टमाटर, प्याज़ जैसी फसलों के किसानों को जिस तरह अपनी फसल को सड़कों पर फेंकना पड़ रहा है उससे ये कहा जा सकता है कि ज़्यादा उत्पादन अच्छे मुनाफे की गारंटी नहीं है। ऐसे में अगर किसान पैदावार बढ़ाने के बजाय उत्पाद की गुणवत्ता को बढ़ाने पर ज़ोर देंगे तो दूसरे किसानों के मुकाबले उनकी फसल आसानी से बिक जाएगी। लोग भी अब अच्छी सेहत के लिए गुणवत्ता वाले जैविक खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल करने लगे हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया की बड़ी आबादी के सामने खाने का संकट था, उस समय हरित क्रांति की शुरुआत हुई। हरित क्रांति में पौधों का प्रजनन कराकर नई प्रजातियां बनाई गईं। खेती में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ा। इसके बाद 90 के दशक में आनुवांशिक रूप से संशोधित फसल किसानों की पसंद बन गई। कृषि उत्पादन बढ़ाने और कम समय में ज़्यादा पैदावार लेने के लिए किसान अपने खेतों में रसायनों का अंधाधुंध इस्तेमाल करने लगे। किसान फसल के साथ बाज़ार की तरह व्यवहार करने लगे। पैदावार बढ़ी, फसल को इकट्ठा करना शुरू हुआ, फिर इसका निर्यात होने लगा। कृषि उपज बढ़ गई और भूखे रहने की समस्या भी कुछ हद तक कम हुई।

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किसानों ने समझ लिया कि जितनी ज़्यादा पैदावार होगी उतनी ही ज़्यादा कमाई होगी। बाज़ार में भी उनकी फसल को खरीद लिया जाता था और वजन के हिसाब से पैसे मिल जाते थे, उन्होंने कभी ये भी जानने की कोशिश नहीं की कि फसल के लिए उन्होंने कौन से बीजों का इस्तेमाल किया है। फसल में कितने रासायनिकों का इस्तेमाल हुआ है। जिसका नतीज़ा ये हुआ कि धीरे-धीरे हमारे खाने की गुणवत्ता में कमी आने लगी, लेकिन अब कुछ फसलों की पैदावार इतनी बढ़ने लगी है कि फसल मंडी तक में पूरी नहीं बिक रही। किसान अगर पैदावार बढ़ाने के बजाय उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान दें तो उन्हें फायदा हो सकता है।

वैसे देश में साल 2016 का खाद्यान्न का उत्पादन भी रिकॉर्ड स्तर पर था और साल 2017 में देश में सबसे बड़े किसान आंदोलन हुए। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ज्यादा उत्पादन होने से किसानों को फायदा होता है ? देश में 2016-17 में प्याज उत्पादन 224 लाख टन रहा। जबकि 2015-16 में ये उत्पादन 217.18 लाख टन था। और किसानों ने प्याज कितने में बेचा ? दो रुपए से लेकर छह रुपए तक। प्याज को तो लेकर मध्य प्रदेश में ऐसा आंदोलन हुआ कि कई किसानों को जान तक गंवानी पड़ी। वहीं कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार टमाटर की पैदावार 2016-17 में 195.42 टन हुई जो 2015-16 में 187.32 टन थी। टमाटर और आलू भी सड़कों पर फेंका गया।

कृषि क्षेत्र के संकट पर चेताते हुए कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी भाषा को दिये अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं ‘‘ज्यादा पैदावार से जोखिम बढ़ जाता है। कृषि क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने की जरूरत है।”

अब जब लोगों को इस बात का अहसास होने लगा कि रासायनिकों का इस्तेमाल करके उगाई गई फसलों का उनकी सेहत पर असर पर बुरा असर पड़ रहा है तो उन्हें भी ये समझ आया कि उनकी सेहत के लिए बिना रासायनिकों वाला और अच्छी गुणवत्ता वाला खाना ही बेहतर है। बाज़ार में जैविक विधि से उगाए गए खाद्यान्न की पैदावार इतनी कम है कि उसकी कीमत कहीं रासायनिक तरीके से उगाए गए खाद्यान्न से काफी ज़्यादा है लेकिन अब लोग इसके लिए भी अच्छी कीमत चुकाने को तैयार हैं। पिछले कुछ समय में बाज़ार में जैविक विधि से उगाए गए अच्छी गुणवत्ता वाले खाद्यान्न की मांग काफी बढ़ी है।

लखनऊ की नवीन कृषि मंडी के सह निदेशक दिनेश चंद्र बताते हैं, ''कई फसल ऐसी होती हैं जिनको देखकर ही उनके रेट निर्धारित हो जाते हैं, जैसे साफ - सुथरे और बड़े आलू के लिए अच्छे पैसे मिलते हैं और छोटे - कटे आलुओं के लिए कम पैसे।''

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कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2017-18 के दौरान अच्छी वर्षा से खाद्यान्न उत्पादन 27.5 करोड़ टन के आंकड़े के आसपास रह सकता है। विशेषज्ञों ने चेताया है कि कृषि क्षेत्र में संकट बढ़ रहा है। बंपर फसल उत्पादन के बावजूद पिछले दो साल में किसानों की आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र को कृषि अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए जिससे किसानों को संकट से बचाया जा सके। बंपर फसल उत्पादन के चलते 2016 में दाम टूट गये और इस साल भी यह स्थिति जारी रही। दलहनों, तिलहनों और कुछ नकदी फसलों के दाम उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे चले गये। किसानों पर इसका बुरा असर पड़ा।

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के किसान प्रतीक शर्मा बताते हैं कि वह पॉलीहाउस में जैविक विधि से सब्ज़ियां उगाते हैं और सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचाकर उससे अच्छा मुनाफा कमाते हैं। वह बताते हैं कि मंडी में अपना उत्पाद बेचने में ज़्यादा फायदा नहीं मिलता लेकिन अगर उत्पाद को सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचा दो तो कीमत अच्छी मिल जाती है। दूसरा फसल के बर्बाद होने का भी ख़तरा नहीं रहता क्योंकि सारी फसल आसानी से बिक जाती है। प्रतीक बताते हैं कि क्योंकि हम जैविक विधि से खेती करने के लिए खाद और कीटनाशक खुद ही बनाते हैं तो लागत कम लगती है यानि उसका भी खर्चा बच जाता है।

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दिनेश चंद्र आगे बताते हैं "अब तो मंडिया में ई-नाम व्यवस्था हो गई है जहां फसल की टेस्टिंग की जाती है और उसकी क्वालिटी के हिसाब से उसका मूल्य निर्धारण होता है। वह कहते हैं कि जैविक उत्पादों के लिए अभी ऐसी कोई टेस्टिंग मशीन यहां की मंडियों में उपलब्ध नहीं हैं जिससे ये पता चल सके कि उत्पाद जैविक है या नहीं लेकिन अगर कोई किसान जैविक खेती के सर्टिफिकेट के साथ अपनी फसल बेचता है तो उसे बेहतर दाम मिल जाते हैं।"

दुनिया के कई देशों में किसान अब तेज़ी से जैविक खेती की ओर मुड़ रहे हैं। consumerreports.org की 2015 की एक रिपोर्ट में उन्होंने ऑर्गेनिक और रेग्युलर उत्पादों की कीमतों की तुलना की। रिपोर्ट में ये सामने आया कि जैविक उत्पादों के दाम सामान्य उत्पादों की तुलना में 47 प्रतिशत ज़्यादा हैं।

दिल्ली के रहने वाले जयप्रकाश अवस्थी बताते हैं, ''मेरी मां अक्सर बीमार रहती थीं, उन्हें डायबिटीज है और दिल की बीमारी भी हैं। डॉक्टर ने बताया कि अगर अपनी मां की और बच्चों की सेहत का ख्याल रखना है तो अच्छा और शुद्ध खाना खाओ। बस तब से ही मैंने तय कर लिया कि अब मैं जैविक तरीके से उगाए गए खाद्य पदार्थ ही खरीदूंगा। दिल्ली में कुछ स्टोर हैं जहां ये खाद्य पदार्थ मिल जाते हैं। कई बार मैं ऑनलाइन भी मंगा लेता हूं।

उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में जैविक विधि से खेती करने वाले किसान विवेक सिंह बताते हैं, ''मैं पिछले कई साल से जैविक विधि से सब्ज़ियों की खेती कर रहा हूं क्योंकि मेरी फसल की पहुंच बहुत दूर - दूर तक नहीं है इसलिए मुझे फसल का सामान्य फसल के मुकाबले बहुत अच्छा दाम तो नहीं मिलता लेकिन मेरी सारी फसल बिक जाती है।'' वह बताते हैं कि जब मैं कस्बे की सब्ज़ी मंडी में अपनी सब्ज़ी बेचने जाता था तो मेरे आस - पास के सब्ज़ी वाले जहां पूरे दिन में 10 किलो सब्ज़ी भी नहीं बेंच पाते थे मेरी 50 - 60 किलो सब्ज़ी आराम से बिक जाती है। भले ही जैविक विधि से खेती करने पर छोटे किसानों को दाम अच्छा न मिले लेकिन उन्हें अपनी फसल को सड़कों पर कभी नहीं फेंकना पड़ता।

मैप्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जैविक दाल सामान्य दाल की तुलना में 2.5 गुना ज़्यादा महंगी होती है लेकिन फिर भी लोग इसे ख़रीदना चाहते हैं। ईसेवा पोर्टल के मुताबिक, अगर सामान्य गेहूं का 5 किलो आटा 175 रुपये का है तो जैविक गेहूं का 5 किलो आटा 185 से 275 रुपये तक का है। सामान्य बेसन अगर 98 रुपये का एक किलो है तो जैविक चने से बना बेसन 115 रुपये का है। इसी तरह कई उत्पादों के दाम में फर्क है।

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यूपी के शाहजहांपुर ज़िले के किसान महेश वर्मा बताते हैं, ''पहले मैं धान, गेहूं, गन्ने की खेती करता था। कभी तो फसल के सही दाम मिल जाते थे लेकिन कभी ऐसा होता था कि चीनी मिल वालों ने गन्ना तो ले लिया लेकिन पैसे नहीं दिए, गेहूं की अच्छी कीमत नहीं मिली। इसके बाद मैंने जैविक खेती के बारे में सुना। पहले मैंने खेत के कुछ हिस्से में जैविक खेती करना शुरू किया और मेरी फसल आसानी से बिक गई। अब मैं अपने आधे खेत में जैविक विधि से खेती करता हूं और आधे में रासायनिक विधि से लेकिन मैंने तय किया है कि आने वाले समय में मैं पूरी तरह से जैविक खेती करने लगूंगा।''

प्रतापगढ़ के पंकज तिवारी कुवैत सिटी में रहते हैं। वह बताते हैं कि यहां तो दुकानों पर जैविक और कार्बनिक उत्पाद अलग - अलग रखे रहते हैं। जैविक उत्पादों के दाम सामान्य उत्पादों की तुलना में ज़्यादा होते हैं लेकिन लोग फिर भी जैविक उत्पाद खरीदते हैं।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जैविक उत्पादों के दाम इसलिए ज़्यादा होते हैं क्योंकि अभी किसान बड़े स्तर जैविक खेती नहीं कर रहे हैं। क्योंकि पैदावार कम है इसलिए इनके रखरखाव में भी ज्यादा खर्च आता है। इसके अलावा इसके लिए बाज़ार भी आसानी से नहीं मिल पाता।

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