कहीं उपभोक्ता बन कर न रह जाएं किसान

बजट पेश हुए 10 दिन से ज्यादा समय हो गया, आज भी इसकी समीक्षाएं हो रही हैं, ग्रामीण भारत और ख़ासकर किसान कई उम्मीदें लगाए बैठे थे, हालांकि किसान को बजट की बारीकियों से ज्यादा मतलब नहीं होता

Suvigya JainSuvigya Jain   16 July 2019 6:12 AM GMT

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कहीं उपभोक्ता बन कर न रह जाएं किसान

बजट पेश हुए एक पखवाड़ा हो गया है। आज भी इसकी समीक्षाएं हो रही हैं। हिसाब लगाया जा रहा है कि यह बजट नागरिकों के जीवन पर क्या असर डाल सकता है। बेशक इससे कुछ ज्यादा ही उम्मीदें थीं। क्योंकि यह बजट दोबारा चुनकर आई सरकार का बजट था। माना जा रहा था कि नई सरकार जिस विशाल बहुमत से चुन कर आई है वह जनता को उसके किए का भुगतान ज़रूर करेगी।

ग्रामीण भारत और ख़ासकर किसान कई उम्मीदें लगाए बैठे थे। हालांकि किसान को बजट की बारीकियों से ज्यादा मतलब नहीं होता। उसे बस यह उम्मीद रहती है कि बजट में उसे उपज का वाजिब दाम, सिंचाई का पानी, डीजल के दाम में घटोतरी, फसल बेचने के लिए नए बाजार और कर्ज का बोझ उतारने में मदद मिल जाए।

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आयकर में घटबढ़, निजीकरण, विनिवेश, वित्तीय घाटा जैसे तकनीकी शब्दों से उसका ज्यादा लेना देना होता नहीं है। ना ही इस तबके को इससे कोई फर्क पड़ता है कि अपना देश किस दूसरे देश की अर्थव्यवस्था को पछाड़ रहा है और कितने ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने के लक्ष्य बना रहा है। इस समय किसान जिन हालात में है, वह बुनियादी जरूरतों में ही उलझा है। इस बजट से भी उसकी वैसी ही उम्मीदें थीं।

बजट में किसानों के लिए हुए ऐलानों को आज भी जाना समझा जा रहा है। सरकार की तरफ से किसानों के लिए जो नई और बड़ी बात दिखाई गई वह जीरो बजट खेती करने की सलाह थी। हालांकि जानकार लोग पहले भी बता चुके हैं कि कम संसाधनों में खेती तो फिर भी संभव है लेकिन शून्य लागत में नहीं।

वैसे भी भारतीय किसान जिस मुफलिसी में जी रहे हैं वह खुद ही न्यूनतम संसाधनों में खेती करते हैं। और जहाँ तक यह तर्क है कि जीरो बजट खेती कुछ क्षेत्रों में प्रायोगिक तौर पर कर के देख ली गई है। तो एक बार उन क्षेत्रों की भौगौलिक आर्थिक परिस्थितियां, जल उपलब्धता, जलवायु, बाज़ार, किसान साक्षरता जैसे पहलुओं को देश के बाकि हिस्सों से मिला कर भी देख लिया जाना चाहिए।

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इसके आलावा कोई ऐसा बड़ा एलान इस बजट में नहीं था जो फौरी तौर पर किसानों तक मदद पहुंचाता दिख रहा हो। हाँ चुनाव से पहले शुरू की गई हर किसान परिवार को 6000 रुपए सालाना दिए जाने वाली किसान निधि ने ज़रुर कृषि पर होने वाले सरकारी खर्च को कई गुना बढ़ा दिया। और इसी आधार पर मीडिया में कुछ लोगों ने इस बजट को ऐतिहासिक भी करार दे दिया। हर रकम मुश्किल में काम की ही लगती है इसलिए बदहाल किसानों तक किसान निधि के जरिए पांच सौ रुपए महीना पहुंचने से कुछ न कुछ राहत जरूर पहुंची होगी। लेकिन अभी तक इस रकम को दिए जाने के लक्ष्य की समीक्षा उस तरह नहीं हो पाई है जैसे बाकि अनुदानों की हो रही है।

नया सवाल ये बन रहा है कि किसानों को वह रकम कृषि उत्पादन में मदद पहुंचाने के लिए एक उत्पादक मानते हुए दी गई है या किसान को औद्योगिक माल का उपभोक्ता मानकर दी गई है। सरकारी पक्षकारों के कई तर्क हैं। इनमें एक प्रमुख तर्क है कि किसानों तक भेजी गई यह रकम देश की रुकी हुई अर्थव्यवस्था को धक्का लगाएगी।

बेशक ग्रामीण भारत इस समय उद्योग जगत का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। ग्रामीण आबादी पूरे देश की आबादी में आधी से ज्यादा है। और यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पिछले कुछ सालों से गांव के लोगों की आमदनी घट रही है। इस कारण उनके खर्च करने की क्षमता घटी है। और इससे गांवों में औद्योगिक उत्पादों की खपत घट गई। माना जाता है कि औद्योगिक माल की खपत बढ़ने से ही जीडीपी तेजी से बढ़ती है। इसी उद्योग क्षेत्र के तेज विकास से भारत को पांच साल में पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनाने का सपना बनाया जा रहा है।

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इस तरह से अर्थशास्त्र और प्रबंधन प्रौद्योगिकी के शोधार्थियों का ध्यान इस ओर जाना चाहिए कि किसानों के लिए दूरगामी नजरिया क्या हो? शोध सर्वेक्षण होना चाहिए कि किसान निधि की रकम खेती का काम बढ़ाने में कितनी मददगार हो पा रही है। और अगर यह रकम किसानों को आत्मनिर्भर बनने में मदद नहीं कर पा रही है तो ऐसी आर्थिक मदद सरकार आखिर कब तक जारी रखी जा पाएगी?

किसान के भले के लिए किसान को उत्पादक मानना ही कल्याणकारी है। किसान अभी जिस मुश्किल में हैं उसका समाधान उसके व्यवसाय के विकास में ही मिलेगा। और यह जाना जा चुका है कि वह समाधान किसान के उत्पाद का वाजिब दाम दिलाकर ही हो सकता है। अब तक यह भी देखा जा चुका है कि सिर्फ उत्पादन बढाकर किसान फायदा नहीं उठा पाया। क्योंकि अपने उत्पाद को वाजिम दाम पर बेचने के लिए उसे अच्छे बाजार की सुविधा की जरूरत थी।

जिस तरह किसान को शहरी उत्पाद के उपभोक्ता के रूप में तैयार किया जा रहा है वैसे ही किसान के उत्पाद के लिए उपभोक्ता और बाज़ार कहाँ हैं? आलम यह है कि अगर बाज़ार में किसी कृषि उत्पाद के दाम अपने आप भी बढ़ते दिखते हैं तो फ़ौरन उन उत्पादों को विदेशों से आयात कर लिया जाता है। ताकि देश में कृषि उत्पादों के दाम फिर नीचे आ जाएं। हमेशा खाद्य महंगाई घटाने के हर उपाय का शिकार सिर्फ किसान ही क्यों बनता है? अगर किसान के उत्पाद के लिए बाज़ार और मांग नहीं तैयार की जाएगी तो वह हमेशा किसी न किसी आर्थिक दानअनुदान की बैसाखी के सहारे ही जीता रहेगा।

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लगे हाथ यह चर्चा कर लेनी चाहिए कि आज कृषि विकास दर बढाने का लक्ष्य प्राथमिकता पर नज़र क्यों नहीं आ रहा है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घटता जा रहा है। और इसके समाधान के रूप में हमेशा कृषि उत्पादन बढाने पर जोर देने की बात होने लगती है। जबकि कृषि उत्पादन तो कई दशकों से हर साल बढ़ ही रहा है फिर भी सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा गिरता गया है। क्योंकि कृषि उत्पादों के दाम दूसरे क्षेत्रों के उत्पाद के दाम की रफ़्तार से नहीं बढ़ पाए। विद्वानों को यह रहस्य भी उजागर कर देना चाहिए कि अगर आज भी कृषि उत्पादों को सही दाम मिल जाये तो इतने ही कृषि उत्पादन में जीडीपी में कृषि का हिस्सा बढ़ा हुआ नज़र आएगा।

इस बात को शायद ही कोई नकारे कि कृषि पर आफत सबतरफ से है। ऐसी हालत सिर्फ एक या दो कारणों से नहीं बनी हैं। इनमें वाजिम दाम, सरकारी खरीद, भंडारण, बाज़ार, सिंचाई, बाढ़, सूखा, विदेशी उत्पादों का आयात, घटते निर्यात जैसे कई कारण हैं। हालत इतनी विकट है कि किसानों नें अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए हैं। हाल ही में आये गाँव कनेक्शन के 19 राज्यों में किये गए एक देशव्यापी सर्वेक्षण में निकल कर आया है कि 48 फीसद किसान यानी आधी किसान आबादी कृषि छोड़ना चाहती है। वे अब विकल्प तलाश रह हैं। और उनकी व्यथा यह है कि इस बेरोज़गारी के माहौल में उनके लिए कोई और विकल्प भी मौजूद नहीं है।

बहरहाल, कुषि को इस बजट से बड़े निवेश की दरकार थी। चुनाव से पहले सत्तादल ने अपने संकल्प पत्र में पांच साल में 25 लाख करोड़ यानी हर साल पांच लाख करोड़ कृषि पर खर्च करने का संकल्प किया था। अगर उसी दिशा में बढ़ा जाता तो कुषि में सुधार की कोई उम्मीद बंधती।

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