रेप के बाद न्याय के लिए फास्ट ट्रैक अदालतोें में भी लंबा इंतजार क्यों ?

Shrinkhala PandeyShrinkhala Pandey   15 Dec 2017 6:28 PM GMT

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रेप के बाद न्याय के लिए फास्ट ट्रैक अदालतोें में भी लंबा इंतजार क्यों ?निर्भया कांड के बाद कानून में हुए कई बदलाव लेकिन स्थिति वैसी ही।

“आज से छह साल पहले मेरी बेटी के साथ बलात्कार हुआ तब से लेकर आज तक कोर्ट, कचहरी के चक्कर लगाते हुए न जाने कितनी चप्पलें घिस गईं लेकिन न्याय नहीं मिला। कभी तारीख आगे बढ़ा देते हैं तो कभी जज बदल जाते हैं, कभी किसी का ट्रांसफर हो जाता है।” ऐसा कहना है रामविलास (65वर्ष) का जो बरसों से अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए लड़ रहे हैं

साल 2001 में केंद्रीय सरकार ने पुराने मामलों के निपटारे के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन किया था तबसे 1,000 से ज्यादा फास्ट ट्रैक अदालतों ने 30 लाख से भी अधिक मामलों का निपटारा किया है। फ़ास्ट ट्रैक अदालतों की कार्य प्रणाली ट्रायल कोर्ट या सेशन कोर्ट की ही तरह होती है। आमतौर पर फ़ास्ट ट्रैक अदालतों से एक महीने में लगभग 12 से 15 मुक़दमों को निबटाने की उम्मीद की जाती है।

केंद्र सरकार ने लगभग 400 करोड़ की लागत से देश भर में 1700 से भी अधिक फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन की योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत देश के हर ज़िले में औसतन पांच ऐसी अदालतों का गठन किया जाना था। लेकिन 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद देशभर में रेप केस की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित किया गया।

बलात्कार के लंबित मामले

NCRB के आंकड़ों के मुताबिक देश भर की उच्च न्यायालयों में अभी बलात्कार के लंबित मामलों की संख्या 31 हज़ार 386 है वहीं देश की निचली अदालतों में 95 हज़ार से ज्यादा महिलाओं को न्याय का इंतज़ार है। यहां तक कि औसतन हर 2 दिन में पुलिस कस्टडी में कम से कम एक रेप की वारदात होती है और हर वर्ष पुलिस कस्टडी में करीब 197 रेप होते हैं।

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इस बारे में समाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन बताती हैं, “जब निर्भया कांड हुआ था तभी ये कई कानूनों में बदलाव किए गए थे जिससे बलात्कार के मामलों में न्याय मिलने में देरी न हो लेकिन आज इतने साल बीतने के बाद भी कोई खास सुधार नहीं हुआ। कई सारे बलातकार के केस हैं जिसमें एफआईआर ही नहीं दर्ज हो पाती महीनों, सुनवाई तो दूर की बात है।” वो आगे बताती हैं, “कानून बनाने से ज्यादा जरूरी है कि उसका पालन पूरी तरह से हो। बलात्कार के मामलों में तुरंत सुनवाई हो, पुलिस कार्रवाई तुरंत शुरू होनी चाहिए। इसके लिए थानों में सीसीटीवी का होना जरूरी है जिससे महिला के साथ थाने में किस तरह से बात की जाती है इसका पता भी चल पाए।”

1994 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में ये कहा गया था कि यौन हमले की पीड़िताओं को कानूनी सहायता तुरंत दी जाए। सभी पुलिस स्टेशनों को कानूनी सहायता विकल्पों की सूची रखनी चाहिए। इसके बाद भी देश के कई हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा 21 मामलों में से किसी में भी पुलिस ने पीड़िता को कानूनी सहायता के उनके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया न ही कोई मदद की।

महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों में हुए थे ये बदलाव

हालांकि 16 दिसम्बर, 2012 को हुए निर्भया कांड के बाद 3 फरवरी 2013 को क्रिमिनल लॉ अम्नेडमेंट ऑर्डिनेंस आया, जिसके तहत आईपीसी की धारा 181 और 182 में बदलाव किए गए। इसमें बलात्‍कार से जुड़े नियमों को कड़ा किया गया। रेप करने वाले को फांसी की सजा भी मिल सके, इसका प्रावधान किया गया। 22 दिसंबर 2015 में राज्यसभा में जुवेनाइल जस्टिस बिल पास हुआ। इस एक्ट में प्रावधान किया गया कि 16 साल या उससे अधिक उम्र के बालक को जघन्य अपराध करने पर एक वयस्क मानकर मुकदमा चलाया जाएगा। बलात्‍कार, बलात्‍कार से हुई मृत्यु, गैंग रेप और एसिड-अटैक जैसे महिलाओं के साथ होने वाले अपराध जघन्य अपराध की श्रेणी में लाए गए। इसके अलावा वे सभी कानूनी अपराध जिनमें सात साल या उससे अधिक की सजा का प्रावधान है, जघन्य अपराध की श्रेणी में शामिल किए गए।

बलात्कार के बाद न्याय पाने में देरी क्यों?

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निर्भया गैंगरेप केस के बाद देश में जस्टिस जे. एस. वर्मा कमिटी का गठन किया गया। कमिटी ने सरकार से अपनी सिफारिशों को पेश करते हुए कहा कि इस तरह के अपराध कानून की कमी की वजह से नहीं बल्कि सुशासन की कमी की वजह से होते हैं। कमिटी ने रेप और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अन्य अपराधों के लिए कानून के प्रावधान सख्त करने की जरूरत बताई। इस दौरान जस्टिस वर्मा कमिटी ने एक अन्य सुझाव दिया कि महिलाओं को घूरने, उनका पीछा करने जैसे अपराधों पर भी सजा का प्रावधान होना चाहिए। कमिटी ने सांसदों और विधायकों को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि सांसदों और विधायकों पर किसी भी तरह का रेप का मामला दर्ज है, तो उन्हें आरोप तय होते ही इस्तीफा दे देना चाहिए।

लखनऊ के हाईकोर्ट के एडवोकेट डॉ केके शुक्ला बताते हैं, “फास्ट ट्रैक कोर्ट में किसी भी केस को छह महीने से एक साल के भीतर सुलझाने का प्रावधान है। लेकिन ये केस में देरी होने का एक कारण ये भी होता है कि बिना गवाहों और सुबूतों के कहीं किसी निर्दोष को सजा न मिल जाए।”

वो आगे बताते हैं कि दूसरा ये भी है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए अलग से जज नहीं हैं, उन्हीं जजों को एडिशनल चार्ज दिया जाता है। कई बार जज न होने के कारण मामला लटका रहता है तो इसलिए भी देर होती है सुनवाई में। वो आगे कहते हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में बलात्कार के मामलों का कितने समय में निपटारा हो, इसका निर्धारण अदालतों से कहीं ज्यादा आरोपियों व गवाहों की संख्या पर निर्भर करता है। अगर, आरोपी एक से अधिक हैं तो उनके वकील भी अधिक होंगे। कानून हर वकील को अलग से अपनी बात रखने का अधिकार देता है। ऐसे में अधिक समय भी लग सकता है।

नयाय के लिए भी दर दर भटकना मजबूरी।

न्यायाधीशों की कमी भी कारण

अदालतो में मामले लंबित होने का एक अहम कारण अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों की कमी है। अधीनस्थ अदालतों पर रिपोर्ट के अनुसार, न्यायाधीशों के 4,954 पद रिक्त पड़े हैं। ‘न्यायाधीशों की मौजूदा संख्या हर साल आने वाले केवल ताजा मामलों के निपटारे में ही सक्षम है जिससे लंबित मामले बढ़ते जा रहे हैं।’ वार्षिक रिपोर्ट में पिछले साल 30 जून तक संकलित आंकड़ों के अनुसार गुजरात, बिहार एवं उत्तर प्रदेश में जिला अदालतों की स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। इनमें क्रमश: 794, 792 एवं 624 न्यायाधीश कम हैं।

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इसके साथ ही कानून मंत्रालय द्वारा जुटाए गए नए आंकड़ों के मुताबिक 24 हाई कोर्टों में 1,044 न्यायाधीशों के मंजूर पदों में 443 रिक्तियां हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायाधीशों के 86 पद रिक्त हैं जो किसी हाई कोर्ट में अधिकतम रिक्तियां हैं। इसके बाद मद्रास हाई कोर्ट का स्थान है जहां 38 रिक्तियां हैं। मद्रास हाई कोर्ट में मंजूर पदों की संख्या 60 से बढ़ाकर 75 कर दी गई है जो 21 दिसंबर 2015 से प्रभावी है।

राज्यों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थिति

  • ओडीशा, उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडु में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने लंबित मामलों के निपटारे में सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है।
  • आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, एवं हरियाणा में फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए केंद्रीय सहायता सबसे अधिक रही है।
  • बिहार में फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या सर्वाधिक है लेकिन बिहार में लंबित मामलों की संख्या के लिहाज से यह अन्य राज्यों के मुकाबले दूसरे स्थान पर है।
  • त्रिपुरा में फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा लंबित मामलों के निपटारे का प्रतिशत 96 रहा है।
  • अरुणाचल प्रदेश में फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या सबसे कम (3) है, यहां लबित मामलों के निपटारे का प्रतिशत 40 है जो बेहद कम है।
  • मणिपुर में मात्र 2 फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं लेकिन मामलों के निपटान में इसका प्रतिशत 94 है जो बेहद बेहतर है।

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