देश में आखिर क्यों हुई डीएपी और एनपीके जैसे उर्वरक की किल्लत?

देश के कई राज्यों के किसान डीएपी, एनपीके खादों के लिए परेशान हैं। सरकार कह रही है उनके पास पर्याप्त खाद है फिर किसान क्यों दिन-दिन भर लाइन लगा रहे हैं? हंगामा कर रहे, आत्महत्या की नौबत आ रही। क्या बारिश में डिमांड बढ़ना थी एक वजह, या फिर विदेशों में उर्वरक और कच्चे माल की कीमत से हुई है समस्या? या फिर सरकार और सिस्टम से हुई है कहीं चूक? गांव कनेक्शन की पड़ताल

Arvind ShuklaArvind Shukla   18 Nov 2021 8:55 AM GMT

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देश में आखिर क्यों हुई डीएपी और एनपीके जैसे उर्वरक की किल्लत?

गेहूं, सरसों और आलू की बुवाई के मुख्य सीजन में देश के कई राज्यों में किसान डीएपी और एनपीके जैसे रासायनिक उर्वरकों के लिए परेशान हैं। पिछले करीब डेढ़ महीने से राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में खाद के लिए लेकर भटक रहे हैं। अक्टूबर महीने में यूपी में 2 तो मध्य प्रदेश में एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी। डीएपी-एनपीके के लिए कई जगह हंगामा हो चुका है। लाठीचार्ज हुए हैं, धरना-प्रदर्शन भी हो चुके हैं। किसानों के मुताबिक वो 1200 वाली डीएपी 1500 तो 1475 वाली एनपीके 1800 से 2000 रुपए तक में खरीदने को मजबूर हैं। यहां तक की कई किसानों ने बिना खाद के बुवाई तक कर दी है।

उत्तर प्रदेश में ललितपुर जिले में खाकरौन गांव के किसान धनीराम अहिरवार (45 वर्ष) को दिवाली के बाद 5 दिन तक चक्कर लगाने के बाद डीएपी मिल पाई वो भी गांव से 50 किलोमीटर दूर से, जब तक उर्वरक मिली उनके खेतों में डीजल से पलेवा लगाकर की गई नमी तक कम हो गई थी। इसी जिले में अक्टूबर महीने में 4 किसानों की जान खाद के चलते गई थी, जिसमें 2 खाद की लाइन में लगने के चलते हुई थी जबकि दो ने आत्महत्या की थी। हालांकि प्रशासन ने मौत की वजह खाद की किल्लत नहीं मानी थी। ललितपुर से सटे मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले में एक किसान ने 29 अक्टूबर को खाद की किल्लत के चलते आत्महत्या कर ली थी। प्रशासन ने यहां भी आत्महत्या की वजह खाद नहीं माना था।

मध्य प्रदेश में भी डीएपी की किल्लत अभी जारी है। मध्य प्रदेश में शिवनी जिले में पारसपानी तहसील में केवलारी गांव के किसान शिवम बघेल (28वर्ष) के मुताबिक उन्होंने गेहूं बुवाई के लिए उन्हें फुटकर में 35 बोरी डीएपी मिली है। शिवम कहते हैं, "अभी हालात थोड़े सुधरे हैं लेकिन डीएपी अभी भी 1500 रुपए बोरी मिल रही है। यहां की खेती नहर में पानी आने पर निर्भर करती है तो किसान सरकार से खाद आने का इंतजार नहीं कर सकता। कई छोटे किसानों ने हमारे यहां मजबूरी में बिना डीएपी-एनपीके डाले ही बुवाई कर दी है।"

रबी सीजन में सरसों, गेहूं, आलू, चना, मटर, मसूर की बुवाई के लिए डाई अमोनियम फॉस्फेट (DAP) और एनपीके (NPK), सिंगल सुपर फॉस्फेट (SSP)और एमओपी की जरुरत होती है। इनमें भी सबसे ज्यादा जरूरत डीएपी की होती है। जो किसानों को बुवाई के वक्त जमीन में ही देना होता है। लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा समेत कई राज्यों में किसान लगातार खाद को लेकर परेशान हैं। लेकिन सरकार लगातार किल्लत की बात से इनकार करती रही है।

गांव कनेक्शन के सवाल के जवाब में केंद्रीय उर्वरक एवं रसायन मंत्री मनसुख मंडाविया ने गांव कनेक्शन से कहा कि देश में कुछ समय के थोड़े हिस्से में किल्लत हुई थी लेकिन वो भी सप्लाई के चलते, बाकी देश में पर्याप्त उर्वरक हैं।

केंद्रीय उर्वरक मंत्री ने कहा- बारिश के चलते थोड़े समय के लिए थी दिक्कत

केंद्रीय उर्वरक मंत्री Mansukh Mandaviya ने गांव कनेक्शन से कहा, "बुंदेलखंड में (यूपी और एमपी) के कई हिस्से, मध्य प्रदेश के कई दूसरे हिस्से ( भिंड ग्वालियर बेल्ट) और राजस्थान के कई पार्ट में एकाएक पिछले दिनों बारिश हो गई थी, इसलिए किसानों को एकाएक दोबारा बुवाई करनी पड़ी। इसलिए दोबारा उसे उर्वरक की जरूरत पड़ी। इसलिए थोड़े समय के लिए एक क्षेत्र में सप्लाई एक साथ पहुंचाने और लाइनअप में करने में जितना समय लगा इतनी सी बात है।" केंद्रीय उर्वरक मंत्री 12 नवंबर को लखनऊ में एक कार्यक्रम में शामिल होने आए थे।

उन्होंने आगे कहा, "उत्तर प्रदेश में नवंबर महीने के लिए 6 लाख मीट्रिक टन डीएपी मांगी गई थी, केवल 11 दिन में पौने 3 लाख मीट्रिक टन डीएपी पहुंचाई गईं। 11 नवंबर को 14 रैक पहुंचीं, 12 को 13 रैक पहुंची हैं। आगे भी रैक आती रहेंगी। यूरिया स्टेट की जरूरत से ज्यादा उपलब्ध कराया गया है। एनपीके की भी कोई किल्लत नहीं है। किसान भाईयों से मेरा आग्रह है कि किल्लत की अफवाह पर ध्यान न दें और भंडारण न करें।"

उन्होंने कहा कि देश में उर्वरकों का उत्पादन भी लगातार हो रहा है, इम्पोर्ट भी कर रहे हैं। देश में नवंबर महीने के लिए 17 लाख टन डीएपी की जरुरत थी, और हमारा 18 लाख डीएपी का प्लान बनाया हुआ है तो खाद की कोई किल्लत नहीं है।

सरकारी आंकड़ों और बयानों से इतर जमीन पर सच्चाई ये है कि कई राज्यों के किसान अपनी फसल बोने के लिए डीएपी, एनपीके के लिए दर-दर की ठोकरे खा रहे हैं। नवंबर महीने के हालात थोड़े सुधरे जरुर है लेकिन डीएपी की किल्लत लगातार बनी हुई है। इसके लिए कई तर्क दिए जा रहे हैं, जिसमें विदेशों में कच्चे माल का रेट बढ़ना, एकाएक बारिश के बाद मांग का बढ़ना, सरसों की ज्यादा बुवाई, कोयला क्राइसिस के दौरान उर्वरकों के ट्रांसपोटेशन में दिक्कतों का जिक्र आता है। लेकिन डीएपी-एनपीके की किल्लत को समझने के लिए ये समझना जरूरी है कि ये उर्वरक आते कहां से हैं।

50 फीसदी डीएपी आती है विदेश से

भारत की कृषि जरूरतों की ज्यादातर आपूर्ति आयात पर निर्भर करती है। उर्वरक मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी फास्फेटिक उर्वरक का उत्पादन करता है बाकी माल विदेश से आता है। पोटाश, फास्फोरस और नाइट्रोजन तीनों विदेश से आते हैं। विदेशों से डीएपी तैयार और रॉ मटेरियल दोनों रूप में मंगाई जाती है। जबकि भारत 80 फीसदी नाइट्रोजन (यूरिया) का उत्पादन करता है बाकी विदेश से आता है।

पिछले कई वर्षों की तुलना में स्टॉक सबसे कम

पिछले काफी समय से अंतरराष्ट्रीय मार्केट में फास्फेटिक उर्वरकों और उनके रॉ मैटेरियल की ज्यादा मांग और महंगे होने से भारत का गणित गड़बड़ाया हुआ है। उर्वरक मंत्रालय के अगस्त बुलेटिन के अनुसार साल 2020 में डीएपी का प्रति मीट्रिक टन रेट 336 यूएसडी (अमेरिकी डॉलर) था जो अगस्त 2021 में बढ़कर 641 मीट्रिक टन यूएसडी हो गया था। जो एक साल में 90.77 फीसदी की बढ़त दिखाता है। वहीं यूरिया 281 यूएसडी मीट्रिक टन से बढ़कर 513 यूएसडी हो गया जो 82.56 फीसदी हो गया।

अमेरिकी व्यापार और वित्तीय सेवा कंपनी की मूडीज की सहायक कंपनी आईसीआरए (ICRA) की रिपोर्ट और आंकड़ों को देखने पर पता चलता है कि पिछले कई वर्षों की तुलना में इस साल स्टॉक कम है। सितंबर 2018 में देश में डीएपी का (systematic inventory) सुचारु भंडारण 4.8 मिलियन मीट्रिक टन था जो सितंबर 2019 में 6.6 एमएमटी था, सितंबर 2020 में ये 5.0 एमएमटी हुआ लेकिन सितंबर 2021 में ये महज 2.1 मिलियन मीट्रिक टन बचा, जो 2020 की अपेक्षा 58.69 फीसदी कम था।


"फर्टिलाइजर की किल्लत की सबसे बड़ी वजह ग्लोबल मार्केट में फर्टिलाइजर और रॉ मैटेरियल के रेट का बढ़ना है। इसके अलावा सरकार का मिस मैनेजमेंट भी है। क्योंकि विदेश में जब दाम बढ़ते हैं तो भारत में कंपनियां डीएपी एनपीके के दाम बढ़ाती है उसे कम करने के लिए सरकार सब्सिडी देती है। अगर आप देख रखे थे पिछले काफी समय से फास्फेटिक उर्वरकों और रॉ मैटेरियल के दाम ऊपर जा रहे हैं तो आपको सब्सिडी समय से जारी करनी चाहिए थी।' कृषि मंत्रालय के अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया।

यूरिया की 265 रुपए की बोरी पर 2000 रुपए की सब्सिडी, डीएपी पर 1650 रुपए प्रति बोरी की सब्सिडी

देश में किसानों की समितियों, खुले मार्केट के जरिए बेचा जाता है लेकिन इन सब पर कंपनियों को भारी सब्सिडी मिलती है। यूरिया पूरी तरह सरकार के कंट्रोल में है जिस पर भारी सब्सिडी मिलती है जबकि डीएपी,एनपीके आदि पर एनबीएस स्कीम से कंपोनेंट आधारित सब्सिडी मिलती है। लेकिन सब्सिडी नहीं मिलने पर उर्वरक कंपनियां बाकी खादों के रेट बढ़ाती हैं। अप्रैल 2021 में विदेशी बाजार में कच्चे और तैयार माल की महंगाई को देखते हुए इफको समेत दूसरी उर्वरक कंपनियों और संस्थाओं ने डीएपी के रेट में 500-700 रुपए की बढ़ोतरी कर दी थी, जिसके बाद सरकार ने मई खरीफ सीजन के लिए 14,775 करोड़ रुपए की अतिरिक्त सब्सिडी दी थी। जिसके बाद डीएपी दोबारा 1200 और यूरिया 265.50 पैसे में बिकने लगी थी। विदेशी बाजारों में लगातार तेजी का दौर फिर जारी तो एक बार ऐसे में 18 अक्टूबर को दोबारा 28000 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी।

अक्टूबर में सब्सिडी बढ़ाने की घोषणा करते हुए केंद्रीय उर्वरक एवं रसायन मंत्री ने कहा था, "वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरकों के मूल्य बहुत बढ़ गये हैं और हमें अनेक प्रकार के उर्वरकों का आयात करना पड़ता है। लेकिन किसानों के हित में पीएम मोदी ने एमआरपी बढ़ाने के बजाय सब्सिडी बढ़ाने का फैसला किया। यूरिया में सब्सिडी 1500 रुपये से बढ़ाकर 2000 रुपये, डीएपी 1200 रुपये से 1650 रुपये, एनपीके 900 रुपये से 1015 रुपये, एसएसपी 315 रुपये से 375 रुपये तक की गई है। कुल मिलाकर पीएम ने रबी सीजन में 28,000 करोड़ रुपये दिए हैं।" बावजूद इसके एनपीके की कीमतों की प्रति बैग (50 किलो) के 265 से 275 रुपए की बढ़ोतरी हो गई थी।


खाद की कालाबाजारी पर आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत कार्रवाई

सरकारी तौर पर डीएपी 1200, एनपीके 1440 और 1475 रुपए प्रति बैग (50 किलो) है लेकिन बाजार में किल्लत का फायदा उठाकर व्यापारी किसानों से प्रति बोरी 300 से 500 बोरी तक ज्यादा वसूल रहे हैं। खुद सरकार ने कालाबाजारी करने वाले पर जेल भेजने के निर्देश दिए हैं। यूपी सरकार ने कहा कि अगर दुकानदार निर्धारित रेट से ज्यादा रेट पर उर्वरक की बिक्री करता पकड़ा गया तो उसके विरुध उर्वरक (अकॉर्बनिक, कार्बनिक या मिश्रित) नियंत्रण आदेश, 1985 एवं आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अंतर्गत कार्रवाई की जाएगी।

"सरकार का मिस मैनेजमेंट, सही समय और मात्रा में नहीं पहुंची खाद"

देश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण मामलों के जानकार अरविंद कुमार सिंह गांव कनेक्शन को बताते हैं, "देश में उर्वरक की किल्लत नहीं, मिस मैनेजमेंट है। देश में भी उर्वरक की कमी नहीं है। लेकिन समय पर और जरुरत के मुताबिक किसानों तक पहुंच नहीं पाया।"

उर्वरक किल्लत के लिए वो 3 कारण गिनाते हैं, पहला कारण ट्रांसपोटेशन। वो कहते हैं, "देश में सबसे ज्यादा सबसे ज्यादा फर्टिलाइजर ट्रेन से जाता है, (कुल सप्लाई का करीब 80 फीसदी) लेकिन पिछले दिनों ज्यादातर ट्रेनें प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का अनाज पहुंचाने में लगी थी, फिर कोयले की किल्लत हो गई तो ध्यान उधर चला गया। ऐसे में समय से माल पहुंच नहीं पाया। दूसरा मार्केट वालों ने माल को स्टॉक कर लिया।"

दूसरा कारण कालाबाजारी, भारत में उर्वरक दो तरह से सप्लाई किए जाते हैं, जिनमें सोयासटी या कॉपरेटिव के माध्यम से दूसरा खुले मार्केट के हवाले। हालांकि दोनों ही जगहों पर किसानों को डीएपी-एनपीके लेने के लिए आधार कार्ड आदि कागजी कार्रवाई करनी पड़ती है लेकिन कालाबाजी भी इसका स्याह सच है।

अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, "उर्वरक को लेकर देश-विदेश में मार्केट पिछले साल से ही उठापटक वाला है। सरकारी रबी और खरीफ सीजन के लिए कंपनियों को कोटा आवंटित करती है फिर सप्लाई होती है। रबी सीजन में इस एक तो माल समय पर नहीं पहुंचा दूसरा जहां पहुंचा वहां मार्केट वाले हिस्से में माल दबाकर रख लिया गया और फिर उसकी कालाबाजारी हुई।"

तीसरी वजह वो डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी के चलते ट्रक ट्रांसपोटेशन को मानते हैं। "देश में ज्यादातर माल ट्रेन से जाता है लेकिन रैक से फिर ट्रक ही ले जाते हैं। कई जगह तो आज भी रैक उतरने (रेलवे स्टेशन की सुविधा नहीं, जैसे-बिहार का सुपौल) की सुविधा नहीं है। डीजल महंगा हुआ तो ट्रांसपोटर्स ने सस्ती ढुलाई की तरफ रुख नहीं किया। इसके अलावा ई कॉमर्स कंपनियों का काम काफी बढ़ा है। जिसने ट्रक आदि को अच्छा भाड़ा मिला. तो इन सबका भी असर पड़ा है।"

गांव कनेक्शन ने इस संबंध में ट्रांसपोर्ट का भी रुख जाना। ऑल इंडिया ट्रांसपोर्ट कांग्रेस, दिल्ली के राष्ट्रीय महासचिव नवीन गुप्ता कहते हैं, "ट्रक चलाने में जो खर्च आता है उसमें

70 फीसदी डीजल होता है। बाकी में टोल, टैक्स और रास्ते का करप्शन होता है, जो इन दिनों बेतहाशा बढ़ा है। ट्रांसपोर्ट सेक्टर डिमांड और सप्लाई पर चलता है। जहां ज्यादा भाड़ा होगा वहां ट्रक लगाएगा। फेस्टिवल सीजन में ई-कॉमर्स सेक्टर में अच्छा काम था, उधर ट्रक (छोटे वाले) की काफी मांग रही।"

उर्वरक किल्लत के पीछे ये भी कहा गया कि विदेशों में माल महंगा होने से कई कंपनियों ने निर्धारित आवंटन के सापेक्ष में माल आयात नहीं किया। सरकारी अधिकारी इसे निराधार मानते हैं। उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग में संयुक्त निदेशक (उर्वरक) अनिल कुमार पाठक कहते हैं, "खाद की जो भी थोड़ी बहुत दिक्कत हुई वो एकाएक बारिश (17-19 अक्टूबर) के चलते हुई क्योंकि खेतों में नमी थी तो किसान जल्दी से जल्द बुवाई करना चाहता था। अभी कहीं कोई किल्लत नहीं है। और प्रदेश के लिए निर्धारित सभी कंपनियों ने आवंटित मात्रा की सप्लाई की है।"


उर्वरक की किल्लत पर इफको ने क्या कहा

उत्तर प्रदेश में सभी तरह की रासायनिक खादों में आपूर्ति में इफको कि हिस्सेदारी 40 फीसदी के करीब है। इफको के मुताबिक उन्होंने प्रदेश में सरकार से आवंटित मात्रा से ज्यादा की आपूर्ति की है। इफको के राज्य विपणन प्रबंधक अभिमन्यु राय, कहते हैं, "इफको की तरफ से उत्तर प्रदेश में कहीं कोई दिक्कत नहीं है। खरीफ तक 3.14 लाख मीट्रिक टन का आवंटन था इसके सापेक्ष में 336 लाख मीट्रिक टन खाद आई है। अक्टूबर महीने में 1 लाख 7 हजार मीट्रिक टन डीएपी आई है, जबकि नवंबर महीने में 1.90 लाख मीट्रिक टन का आवंटन है। और शत प्रतिशत स्टॉक मिल रहा है। सरकार द्वारा जिस जिले से जितनी डिमांड की जा रही है वहां खाद भेजी जा रही है।"

उनके मुताबिक इफको की प्रदेश में उर्वरक आपूर्ति में 39 से 40 फीसदी है, लेकिन इस साल इफको का मार्केट शेयर बढ़कर 45 फीसदी हो गया है।

सरसों की ज्यादा बुवाई का भी क्या असर पड़ा है?

पिछले एक साल से सरसों के तेल की कीमतें आसमान है। जिसका असर इस बार सरसों की बुवाई पर भी साफ नजर आ रहा है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के 12 नवंबर के आंकड़ों के अनुसार पिछले साल समान अवधि (corresponding period) देश में तिलहनी फसलों की 59.63 लाख हेक्टेयर में बुवाई हुई थी, जो इस वर्ष से 11.76 लाख हेक्टय़ेर कम है। इस वर्ष सबसे ज्यादा रकबा राजस्थान (7.75 लाख हेक्टेयर) में बढ़ा है।

राजस्थान में हरियाणा से सटे श्रीगंगानगर जिले में डेंलवा गांव के किसान हरविंदर सिंह (45 वर्ष) ने इस साल करीब 70 एकड़ में सरसों की बुवाई की है। उन्हें 50 बैग डीएपी की जरूरत थी लेकिन किसी तरह 25 बैग ही मिल पाएं। कई जगह किसानों को डीएपी की जगह एनपीके से काम चलाना पड़ा।

हरविंदर सिंह गांव कनेक्शन से कहते हैं, राजस्थान में 20 सितंबर से सरसों की बुवाई शुरु हुई थी, जो 15-20 दिसंबर तक चलेगी। यहां शुरू में किसानों को बहुत दिक्कत हुई। अब भी डीएपी की दिक्कत है। किसानों को मुश्किल से 2-3 बैग मिल पा रहे हैं। कई जगह किसानों को डीएपी नहीं मिली तो एनपीके लगाना पड़ा,. उसमे भी एनपीके (12:32:16) की जगह एनपीके- 20:20:10 मिली जिसका रिजल्ट उनका अच्छा नहीं मिलता है।"

अशोक गहलोत ने लिखी थी चिट्ठी

राजस्थान में डीएपी के किल्लत को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 5 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खत लिखकर कहा था कि प्रदेश में करीब 50 लाख हेक्टेयर में चना और सरसों की बुवाई संभावित है इसलिये 15 अक्टूबर तक 2.50 लाख मीट्रिक टन डीएपी की मांग थी थी। अपने पत्र में उन्होंने लिखा था कि राज्य ने अक्टूबर के लिए 1.5 लाख मीट्रिक टन डीएपी मांगी थी लेकिन मिली सिर्फ 67,890 मीट्रिक टन,जिससे डीएपी की किल्लत हो गई। उन्होंने केंद्र सरकार पर खरीफ सीजन में भी 4.5 लाख मीट्रिक टन मांग पर महज 3.07 एलएमटी डीएपी सप्लाई का आरोप लगाया था।

रासायनिक उर्वरकों को लेकर फिलहाल स्थिति सरकार के नियंत्रण में बताई जा रही लेकिन जिस तरह ग्लोबल मार्केट में उर्वरकों के रेट बढ़ रहे हैं उससे केंद्र सरकार को निपटना होगा, क्योंकि 28 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरु हो रहा है। राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे (mallikarjun khadke) इसे सदन में उठाने की बात कह चुके हैं या आने वाले समय में यूपी पंजाब समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं जहां एक बड़ी आबादी किसानों की है।

खबर अंग्रेजी में यहां पढ़ें-As shortage of fertilisers continue to plague farmers, the central government says there is enough and more

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