मछली खाना भी हो सकता है खतरनाक, कई राज्यों के मछली तालाबों में मिले खतरनाक तत्व

देश के 10 राज्यों के 241 तालाबों में किए गए सर्वे के गंभीर नतीजे आए हैं, मछलियों में कई तरह की गंभीर बीमारियां पायी गईं हैं, जो इंसानों के लिए भी खतरनाक है।

Divendra SinghDivendra Singh   25 Jan 2021 1:03 PM GMT

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What is the most unhealthy fish to eat, What fish is toxic, Why you should never eat fish, Which is the healthiest fish for human consumption, fish without mercury list, disadvantages of eating fish, health benefits of eating fish, reasons to stop eating fish,Photo: Pixabay

जब बर्ड फ़्लू के दौरान लोगों ने चिकन और अंडे दूरी बना ली है, ऐसे में मटन और मछली की मांग काफ़ी बढ़ गई है। लेकिन इस बीच आई इस ख़बर ने मछली खाने वालों के दिल में डर पैदा कर दिया है।

ख़बर है कि मछलियों में लेड और कैडमियम जैसे नुकसानदायक तत्व पाए गए हैं, देश के दस राज्यों के 241 मछली फार्म पर किए गए सर्वे 'फिश वेलफेयर स्कोपिंग रिपोर्ट: इंडिया' में ये बात सामने आयी है। तमिलनाडु के मछली फार्म में पानी की गुणवत्ता सबसे खराब पाई गई है, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल व पुडुचेरी के फार्म में उच्च स्तर का सीसा (लेड) मिला है, जो इंसानों के लिए ख़तनाक है। जबकि तमिलनाडु, बिहार और ओडिशा के मछली फार्म पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक पाए गए हैं।

राष्ट्रीय मात्स्यिकी विकास बोर्ड, हैदराबाद की परियोजना सलाहकार सुतापा विश्वास गाँव कनेक्शन को बताती हैं, "अगर रिपोर्ट में लेड और कैडमियम की अधिक मात्रा पाई गई है तो ये मछलियों और उन्हें खाने वालों के लिए खतरनाक है। अगर प्रदूषित वातावरण में मछली पालते हैं तो ये भी नुकसान दायक है, ऐसे में कई तरह की बीमारियाँ होने का ख़तरा है। देश से जितनी भी मछली एक्सपोर्ट होती है, बिना जांच के नहीं जाती हैं।"

पशु अधिकारों के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गनाइजेशन (FIAPO) और ऑल क्रिएचर ग्रेट एंड स्मॉल ने मिलकर 'फिश वेलफेयर स्कोपिंग रिपोर्ट: इंडिया' सर्वे किया है। इस सर्वे में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पांडिचेरी, गुजरात, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में ताज़े और खारे पानी के फ़ार्म और बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और असम में मीठे पानी के तालाब शामिल किए गए।

पश्चिम बंगाल के कोलकाता में खुले में बिकती मछलियां।

भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है और एक्वाकल्चर उत्पादन के साथ ही अंतर्देशीय मत्स्य पालन में भी दूसरे स्थान पर है। साल 2018-19 के दौरान देश का मछली उत्पादन 137 करोड़ टन था, जिसमें अंतर्देशीय क्षेत्र का योगदान 95 लाख टन और समुद्री क्षेत्र का योगदान 41 लाख टन का था। वर्ष 2017-18 के दौरान, भारत ने 13.7 लाख टन मछली का का निर्यात किया, जिसकी कीमत 45 हज़ार करोड़ रुपए से अधिक थी।

वर्ष 1950-51 के दौरान कुल मछली उत्पादन में अंतर्देशीय मछली उत्पादन का योगदान 29 प्रतिशत था, जो 2017-18 में बढ़कर 71 प्रतिशत हो गया।

एफआईएपीओ की कार्यकारी निदेशक वर्दा महरोत्रा कहती हैं, "हमने इस बढ़ते क्षेत्र में चौंकाने वाली स्थितियाँ पाई हैं। मछलियों को बिना किसी कचरा प्रबंधन प्रक्रिया के, गंदे तालाबों में पाला जाता है। उन्हें जिंदा ही काट दिया जाता है। इन मछलियों को खेतों से दूषित पानी के ही स्थानीय जलस्रोतों और मुहल्लों में छोड़ा जाता है जिसके कारण परजीवी बढ़ते हैं, जिससे मछली की आबादी के साथ-साथ मनुष्यों को भी नुकसान होता है।"

बिहार में तालाब के किनारे गंदगी और कूड़े का ढ़ेर लगा मिला।

इस सर्वे के अनुसार मछली फार्म पर बीमारी और संक्रमण की लगातार समस्या बनी रहती है। तालाबों में पानी के बहाव की कोई व्यवस्था नहीं होती, कुछ तालाबों में ही एयरेटर लगे हुए थे। स्थिर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बिल्कुल कम हो जाती है, साथ ही तालाब में नाइट्रोजन की मात्रा भी बढ़ जाती है। दरअसल, ज्यादा दिन तक स्थिर पानी से उसमें शैवाल बढ़ जाते हैं, जिससे तालाब में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है।

नाइट्रोजन की अधिक मात्रा के बारे में सुतापा विश्वास कहती हैं, "तालाबों में ऑक्सीजन की मात्रा को बरकरार रखने के लिए एयरेटर लगाए जाते हैं, गर्मियों में ये समस्या ज्यादा बढ़ती है, इससे मछलियों की मौत भी हो जाती है।"

तमिलनाडु में मछली फार्म के आसपास लोग साबुन का प्रयोग करते हैं और वो साबुन तालाब में चला जाता है, इसके साथ ही बिहार और पश्चिम बंगाल में तालाबों के पास ही कूड़े के ढ़ेर लगे मिले। कई मछुआरों ने यह स्वीकार किया कि उन्हें हर साल फैलने वाली बीमारियों और बाढ़ के कारण काफी नुकसान होता है। सभी मछली फार्मों में बुनियादी रखरखाव की कमी थी और कूड़े के ढेर लगे थे और मछलियों के फ़ार्म के पास खुले में शौच भी होता पाया गया।

कई जगह पर तालाबों के किनारे कूड़े के ढेर नजर आए।

अकेले आंध्र प्रदेश में हर महीने तालाब के पानी की जांच होती मिली, जबकि दूसरे राज्यों में पानी की जांच तब तक नहीं की जाती, जब तक कि मछलियों में कोई बीमारी नहीं फैल जाती है।

द प्रिवेंशन ऑफ क्रुएल्टी टू एनिमल्स (स्लॉटर हाउस) रूल्स, 2001 और फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स (लाइसेंसिंग एंड रजिस्ट्रेशन ऑफ फूड बिज़नेस) रेगुलेशन, 2011 के अनुसार, काटने से पहले मछली समेत किसी भी जानवर को स्वस्थ्य होना चाहिए। लाइसेंस प्राप्त बूचड़खानों में भी इसका खयाल रखा जाता है, लेकिन कई मछली फार्मों में इसका पालन नहीं किया जा रहा।

सर्वे में पता चला है कि कुछ किसान मछलियों के फीड को हर दिन तैयार करते हैं कुछ पहले से तैयार रखते हैं। किसानों के खुद से बनाए फीड में पोषण की कमी होती है, क्योंकि हर किस्म की मछली को अलग तरह की फ़ीड की ज़रूरत होती है।

आंध्र प्रदेश के एक तालाब में रॉट बीमारी देखने को मिली, जिसे ऐसे ही मछली पालक बाजार तक पहुंचा देते हैं।

मांगुर, कैट फ़िश जैसी प्रतिबंधित मछली प्रजातियों को एंटीबायोटिक दवाओं, कीटनाशकों और कीटनाशकों के कम इस्तेमाल के साथ पाला जा रहा है। इस तरह की बेतरतीब आपदा प्रबंधन प्रक्रियाओं के कारण एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध का जोखिम बढ़ जाता है। एएमआर एक ऐसी स्वास्थ्य आपदा है जिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हाल ही में, कुछ मछली वैज्ञानिकों ने एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध (एएमआर) के बारे में अधिक जागरूक रहने की सलाह दी है, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि कैसे मछलियों और झींगों से मनुष्यों में एएमआर बैक्टीरिया जाने से रोका जाए।

साल 2019 में एंटीबायोटिक्स की वजह से अमेरिका ने भारतीय झींगा मछलियों की खेप वापस कर दी थी।

मछलियों में एंटीबायोटिक दवाओं के अधिक उपयोग से मछलियों के साथ ही इंसानों को भी नुकसान हो सकता है। किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में मेडिसिन विभाग के प्रो. आरके दीक्षित कहते हैं, "एंटीबायोटिक दवाएं सभी के लिए नुकसानदायक हैं, अब वो चाहे इंसान हों, मुर्गे हों या फिर मछलियाँ। अगर मछलियों को ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएँ दी गईं हैं और उस मछली को कोई इंसान खाता है तो एंटीबायोटिक उसके अंदर भी चली जाती हैं। इसलिए जब वो बीमार होने पर एंटीबायोटिक दवाएं लेता है तो वो उसपर असर नहीं करती हैं।"

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