लॉकडाउन में पैदल लौटने को मजबूर हुए 23 % प्रवासी मजदूर : गाँव कनेक्शन सर्वे

कोविड-19 लॉकडाउन के चलते भारत ने कारोबार बंदी के साथ पलायन का जो दर्द झेला, उसने देश की आर्थिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। गांव कनेक्शन ने अपने राष्ट्रीय सर्वे में ये जानने की कोशिश की कि आखिर प्रवासियों की भीड़ जो आपने टीवी पर देखी, वो घर तक किस तरह पहुंची।

Kushal MishraKushal Mishra   10 Aug 2020 1:38 PM GMT

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लॉकडाउन में पैदल लौटने को मजबूर हुए 23 % प्रवासी मजदूर : गाँव कनेक्शन सर्वे

मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमाएं छतरपुर जिले में जिस जगह मिलती हैं, वहां पर एक छोटी बच्ची का धैर्य जवाब दे गया था, कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद बच्ची के पैर शायद उठ नहीं रहे थे, इसलिए वो मां के साथ लगभग घसिट सी रही थी, पूछने पर पता चला कि उसका नाम आरती है और उम्र महज दो साल।

उस दिन तारीख थी 17 मई 2020, ये वो वक्त था जब देश की सड़कों पर प्रवासियों की भीड़ एकाएक बढ़ गई थी क्योंकि लॉकडाउन का तीसरा चरण खत्म होने वाला था और प्रवासियों को आगे भी सरकार से राहत की खास उम्मीद नहीं थी।

दो साल की वो बच्ची आरती अपने पिता धर्मेंद्र और मां के साथ दिल्ली के नरेला से बुंदेलखंड में हमीरपुर जिले में अपने गांव लौट रही थी। पिता धर्मेद्र के मुताबिक बस-ट्रक के सफर में तीन दिन बीत चुके हैं, काफी पैदल भी चल चुके हैं, बच्चों को लिए-लिए हाथ दर्द करने लगे हैं इसलिए कुछ वक्त पैदल भी चलाते हैं। धर्मंद्र जैसे लाखों माता-पिता को न चाहते हुए अपने बच्चों को ये दर्द देना पड़ा क्योंकि हजारों हजार किलोमीटर के सफर ने उन्हें भी तोड़ दिया था। गाँव कनेक्शन ने अपने सर्वे में ऐसे हजारों लोगों से बातचीत की और उनसे पूछा कि वे कैसे घर लौटे?

गांव कनेक्शन के सर्वे के मुताबिक घर लौटने वाले प्रवासी मजूदरों में (जिनकी संख्या सर्वे में लगभग 1000 रही) 23 फीसदी यानी सबसे ज्यादा मजूदर ऐसे थे जिन्हें पैदल सफर करना पड़ा। इसके बाद 18 फीसदी लोगों ने बस और 12 फीसदी लोगों की ट्रेन से घर वापसी हुई। 10 फीसदी लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कार (टैक्सी आदि भी) से सफर किया, जबकि ट्रक से 08 फीसदी, मोटर साइकिल-स्कूटर और साइकिल से 03-03 फीसदी लोग घर लौटे तो 07 फीसदी ऐसे लोग भी जो अऩ्य साधनों से घर पहुंचे।

यह सर्वे भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया प्लेटफॉर्म गांव कनेक्शन के डेटा और इनसाइट्स विंग 'गांव कनेक्शन इनसाइट्स' द्वारा देश के 23 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 179 जिलों में 30 मई से 16 जुलाई, 2020 के बीच आयोजित किया गया, जिसमें 25,300 उत्तरदाता शामिल हुए। इस सर्वे में सोशल डिस्टेंसिंग के साथ लोगों का फेस-टू-फेस इंटरव्यू कर उनका राय जाना गया। इस सर्वे का डिजाइन और डाटा विश्लेषण नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी के लोकनीति-सीएसडीएस टीम द्वारा किया गया।

वास्तव में कोरोना महामारी के कारण मार्च में लागू किये गए लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। रोज कमाकर अपना पेट पालने वाले इन मजदूरों को लॉकडाउन की घोषणा के बाद संभलने का मौका नहीं मिला। वो जिन ठेकेदारों, कंपनियों, दफ्तरों और लोगों के सहारे थे उन्होंने उनके हाल पर छोड़ दिया गया। बीमारी की दहशत, काम बंदी, भुखमरी का डर और लॉकडाउन के शुरुआत में पुलिस की सख्ती के चलते प्रवासी खासकर मजदूर वर्ग के सामने ऐसे हालात पैदा हो गए कि उन्हें हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर लौटना पड़ा।

बस और ट्रेनें बंद हो चुकी थीं जिसके पास जो साधन थे वो उससे निकल पड़ा। साइकिल, मोटर साइकिल और लाखों लोग जिन्हें कुछ नहीं मिला वो पैदल ही चलने को मजबूर हुए। इन मजदूरों को घरों तक पहुंचने में 2 से 15 दिन तक लग गए।

Read in English- Almost every fourth migrant worker returned home on foot during the lockdown; 33% want to go back to cities to work


छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले की पार्वती भी इन्हीं प्रवासी मजदूरों में से एक थीं, करीब 700 किलोमीटर दूर लखनऊ में अपने पति के साथ वह मजदूरी करने आईं थीं, मगर लॉकडाउन में पार्वती को अपना एक साल का बच्चा गोद में लेकर मई की कड़ी धूप में पैदल ही छत्तीसगढ़ के लिए निकलने को मजबूर होना पड़ा।

"मार्च और अप्रैल में मुश्किल से मकान का किराया दे पाए, पैसा नहीं बचा था तो घर को निकलना पड़ा। वहां रहते तो भूख से मरते, इससे अच्छा था कि पैदल चलो, तो सड़क पर मरेंगे। तब भगवान भरोसे निकले थे कि बच गये तो ठीक है," पार्वती 'गाँव कनेक्शन' से बताती हैं।

उन दिनों जहाँ तक नजर जाती कड़ी धूप में पैदल चलते हुए प्रवासी मजदूरों की लम्बी पंक्ति नजर आती। शायद यह आजादी के बाद सबसे बड़ा पलायन था जब मजदूर देश के कोने-कोने से लाखों की संख्या में सड़कों पर नजर आये, सही मायनों में यह 'भारत' की असल तस्वीर थी।

घर वापसी के लिए जो पैदल निकले, उनमें से कई अपने घरों को पहुंचे तो कई नहीं भी। रास्ते में चलते-चलते कई मजदूरों ने बीच में ही दम तोड़ दिया तो कई हादसों का शिकार हो गए।

आठ मई को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूरों की रेलवे ट्रैक पर सोते वक्त मौत हो गई। थके-हारे मजदूर रेलवे ट्रैक पर सो गए थे क्योंकि ट्रेनें बंद थी, लेकिन एक मालगाड़ी वहां से गुजरी जो उनका काल बन गई। जबकि 16 मई को यूपी के औरेया जिले में 2 ट्रकों की आपस में भिड़ंत से 24 मजूदरों की मौत हो और दर्जनों घायल हो गए। हादसे का शिकार हुए मजदूर बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे।

सैकड़ों किलोमीटर दूर पैदल चलते-चलते कई मजदूर आखिरकार बीच रास्ते में हार मान बैठे और तबियत बिगड़ने से उनकी मौत हो गई। इनमें मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के रणवीर सिंह (39 वर्ष) भी थे। रणवीर नई दिल्ली में एक होटल में टिफ़िन डिलीवरी का काम करते थे। काम बंद होने के बाद वह 300 किलोमीटर दूर अपने घर की ओर चल पड़े, करीब 200 किमी पैदल चलने के बाद आगरा के सिकंदरा पहुंचने पर उन्होंने दम तोड़ दिया।

लॉकडाउन में प्रवासियों की मुश्किलों और उनके दर्द को देखकर आम लोगों ने सरकार को घेरा, इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट को भी दखल देना पड़ा। प्रवासी मजदूरों के मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट को कई बार आदेश जारी करने पड़े। पांच जून को सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय को आदेश देना पड़ा कि 15 दिन के अंदर सभी राज्यों से प्रवासियों की सुरक्षित वापसी कराई जाए।

इस सुनवाई में केंद्र सरकार की तरफ से जवाब दे रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि तीन जून तक श्रमिकों की वापसी के लिए 4228 ट्रेनें चलाई गईं और करीब 01 करोड़ लोगों को उनके गंतव्य तक पहुंचाया जा चुका है।

ये सरकारी आंकड़ा है, मगर सरकार की कवायदें अप्रैल बाद मई आते-आते शरू हुईं, लेकिन तब तक लाखों श्रमिक पैदल, साइकिल, रिक्शा, ठेले, बस-ट्रक, आटो, टैक्सी से अपने घरों की ओर कूच कर चुके थे।

गाँव कनेक्शन ने अपने सर्वे में प्रवासियों से पूछा कि वो किस लिए शहर आये थे। जो निष्कर्ष सामने आये उनमें 74 प्रतिशत ऐसे प्रवासी थे जो रोजगार के लिए दूसरे शहरों या राज्यों में गए थे। जबकि सिर्फ 7 प्रतिशत प्रवासी पढ़ने के लिए गए थे और 19 प्रतिशत अन्य कारणों से। इनमें रोजगार की तलाश में शहरों में गए मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा रही।


इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ करंट रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार गांवों से शहरों की ओर पलायन करने वालों का प्रतिशत शहरों से शहरों या गांवों से गांवों में पलायन करने वालों की तुलना में कहीं ज्यादा था। देश में पलायन की यह दर साल दर साल बढ़ती गई।

देश के नीति निर्माण में प्रभावी जनगणना के आंकड़ों पर आधारित इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 1971 में पुरुषों और महिलाओं को मिलाकर गांवों से शहरों की ओर पलायन 15.6 प्रतिशत था, जो वर्ष 1981 में 17.6 प्रतिशत हो गया और वर्ष 2001 में यह बढ़कर 18.9 प्रतिशत पहुँच गया, यानी रोजगार के लिए शहरों की ओर रुख करने की इनकी दर लगातार बढ़ती रही।

इन प्रवासियों के लिए देश में वर्ष 1979 में अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक अधिनियम लाया गया, इस कानून का उद्देश्य प्रवासियों की सुरक्षा करने के साथ इनका रिकॉर्ड रखना भी था। मगर राज्यों में इस कानून को प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा सका। ऐसे में 40 साल पुराना यह कानून भी लॉकडाउन में इन प्रवासियों की मदद नहीं कर सका।

कानून से सुरक्षा तो दूर लॉकडाउन के दौरान भुखमरी और बेरोजगारी के हालात में घर वापसी के लिए सड़कों पर निकले इन प्रवासी मजदूरों को पुलिस और सरकारी अफसरों की भी प्रताड़ना झेलनी पड़ी।


गाँव कनेक्शन सर्वे में 12 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान अपने घर की ओर लौटते वक़्त रास्ते में उन्हें पुलिस के लाठी-डंडे भी खाने पड़े। इतना ही नहीं 13 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने कहा कि पुलिस कर्मियों और सरकारी अधिकारियों ने उनके साथ बुरा बर्ताव किया।

इतना भी काफी नहीं था कि 14 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने कहा कि घर वापसी के दौरान आम लोगों ने भी उनके साथ बुरा व्यवहार अपनाया। रास्ते में लौटे वक़्त ऐसे 40 प्रतिशत मजदूरों ने कहा कि उन्हें खाने-पीने के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

गुजरात के अहमदाबाद से अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश को लौटे अशोक कुमार 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "पहले अहमदाबाद में भटकते रहे, भूखे-प्यासे वहां मरे, तब फिर यहाँ लौटने के लिए पैदल-पैदल आये, पैसा भी इतना था नहीं और सरकार ने भी कुछ नहीं किया, बल्कि पुलिस वाले रास्ते में मिलते थे, डंडे से मार लगाते थे।"

अशोक कहते हैं, "मेरे पास बड़ा मोबाइल होता तो मैं फोटो खींच लेता, तो मैं भी डालता कि इस समय में मजदूरों के साथ यह हो रहा है, मुझे 20-25 दिन लग गए आने में, हमें तो कुछ भी नहीं मिला।"

पुलिस के बुरे बर्ताव सहने के साथ पैदल चलते-चलते अशोक 20 से 25 दिन में घर पहुँच सके, मगर केवल अशोक ही ऐसे नहीं थे। गाँव कनेक्शन सर्वे में सामने आया कि लॉकडाउन के दौरान 08 प्रतिशत से ज्यादा प्रवासी मजदूरों को अपने घर पहुँचने में एक हफ्ते से ज्यादा का समय लगा।


जो लोग पैदल लौटे उन्हें रास्ते की भारी मुश्किलें और शारीरिक कष्ट झेलने पड़े, जबकि जो ट्रक-कार, मोटर साइकिल जैसे वाहनों से आए उन्हें खासी रकम खर्च करनी पड़ी। मुंबई से झारखंड लौटने वाले कामगारों ने 8,000-8,000 रुपए तक खर्च किए, तो बैंगलौर और गोवा से लौटने वालों में कई ऐसे भी थे जिन्हें 10,000 रुपए तक खर्च करने पड़े। ये रकम गांव लौटने के लिए बचाई गई या फिर कर्ज़ लेकर जुटाई गई थी।

इन प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए सरकार ने बस और ट्रेन की व्यवस्था की, मगर काफी देर से। ऊपर से सरकारी रजिस्ट्रेशन की माथापच्ची में लाखों की संख्या में भुखमरी से जूझते इन प्रवासी मजदूरों ने खुद के साधन से या फिर पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर की ओर लौटना ज्यादा उचित समझा।

गाँव कनेक्शन सर्वे में यह भी सामने आया कि लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह से पैदल यात्रा करने वाले वे प्रवासी मजदूर ज्यादा थे, जिन्होंने अपने ही राज्य में पलायन किया था। ऐसे 22 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने घर वापसी के लिए पूरी यात्रा पैदल की।

जबकि एक राज्य से दूसरे राज्य की ओर पूरी पैदल यात्रा करने वाले प्रवासी मजदूर 13 प्रतिशत रहे, यानी लॉकडाउन में इन्हें कोई सरकारी मदद नहीं मिली और इन्हें अपने गृह राज्य लौटने के लिए पैदल चलने के लिए आखिरकार मजबूर होना पड़ा।


मुंबई के रेड जोन एंटोप हिल से ट्रक से झारखण्ड आये नौशाद अंसारी बताते हैं, "ट्रक से जो भी आया है, वह 8,000-8,000 रुपए किराया भर कर आया, मैं अपने 25 साथियों के साथ ट्रक से झारखण्ड आया, बस किसी भी तरह घर पहुंचना था क्योंकि हम लोगों के लिए सरकार तो कुछ कर नहीं सकी तो हम लोगों को खुद निकलना पड़ा।"

बड़ी बात यह भी थी कि लॉकडाउन के दौरान घर वापसी करने वाले इन प्रवासी मजदूरों में बड़ी संख्या उन मजदूरों की भी थी जो अपने पूरे परिवार के साथ सड़कों पर पैदल निकलने के लिए मजबूर हुए, यानी उनके साथ महिलाएं और बच्चे भी थे।

गाँव कनेक्शन सर्वे में सामने आया कि 55 प्रतिशत ऐसे प्रवासी थे जो अकेले ही लॉकडाउन के दौरान वापस लौटे, मगर 39 प्रतिशत ऐसे प्रवासी मजदूर भी थे जो अपने परिवार के साथ पैदल चलने के लिए मजबूर हुए।


कोरोना संकट के समय में देश में लगे लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों ने सबसे ज्यादा ज्यादा दर्द झेला। ये उन प्रवासी मजदूरों के लिए कहीं ज्यादा दुखदायी रहा जो अपने परिवार को लेकर पैदल सड़कों पर निकलने के लिए मजबूर हुए।

गाँव कनेक्शन ने अपने सर्वे में प्रवासी मजदूरों से यह भी पूछा कि लॉकडाउन आपके लिए कितना कठोर था? इसके जवाब में जो प्रवासी मजदूर अपने परिवार के साथ वापस लौटे थे, उसमें 49 प्रतिशत का मानना था कि लॉकडाउन बहुत ज्यादा कठोर था। जबकि जो अकेले ही सफ़र करते हुए आये थे, उसमें 40 प्रतिशत ने कहा कि लॉकडाउन काफी कठोर था।


यह कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना वायरस से भारत की लड़ाई में प्रवासी मजदूरों ने लॉकडाउन के दौरान जो दर्द झेला वो निश्चित रूप से आने वाले समय में उन्हें लंबे समय तक याद रहेगा।

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया।

देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शासित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25,371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया।

ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप्प के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा।

सीएसडीएस, नई दिल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, "सर्वे की विविधता, व्यापकता और इसके सैंपल साइज के आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वे है, जो ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव पर फोकस करता है। लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और अन्य सरकारी नियमों का पालन करते हुए यह सर्वे गांव कनेक्शन के द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें उत्तरदाताओं का फेस टू फेस इंटरव्यू करते हुए डाटा इकट्ठा किए गए।"

"पूरे सर्वे में जहां, उत्तरदाता शत प्रतिशत यानी की 25000 हैं, वहां प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और 95 प्रतिशत जगहों पर संभावित त्रुटि की संभावना सिर्फ +/- 1 प्रतिशत है। हालांकि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से उनके जनसंख्या के अनुसार एक निश्चित और समान आनुपातिक मात्रा में सैंपल नहीं लिए गए हैं, इसलिए कई लॉजिस्टिक और कोविड संबंधी कुछ मुद्दों में गैर प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और वहां पर हम संभावित त्रुटि की गणना करने की स्थिति में नहीं हैं," संजय कुमार ने आगे बताया।

30 मई से 16 जुलाई 2020 के बीच हुए इस सर्वे में कुल 25,371 उत्तरदाताओं का साक्षात्कार किया गया। सभी उत्तरदाता अपने घरों के प्रमुख कमाने वाले थे, इस तरह यह सर्वे पुरुष प्रधान रहा और लगभग 80 प्रतिशत उत्तरदाता पुरूष ही रहें। हालांकि इसमें 20 फीसदी महिलाओं ने भी हिस्सा लिया।

सर्वे की प्रमुख स्टोरी-

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