गांव का एजेंडा : प्रिय रमेश पोखरियाल निशंक जी, गांव के बच्चे आप से कुछ कह रहे हैं ...

गांव का एजेंडा : प्रिय रमेश पोखरियाल निशंक जी, गांव के बच्चे आप से कुछ कह रहे हैं ...

'गांव का एजेंडा' सीरीज के तहत गांव कनेक्शन केंद्र की नई मोदी सरकार के सामने गांवों के उन मुद्दों को उठा रहा है जिनसे देश की एक तिहाई आबादी हर रोज जूझती है। इस मामले में गांव के बच्चों को अपना ही दर्द है। उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने में क्या समस्याएं आ रही हैं और इन समस्याओं का क्या है हल? आज की खबर के केंद्र में हैं 'ग्रामीण भारत में शिक्षा'

Daya Sagar

Daya Sagar   13 Jun 2019 6:47 AM GMT

लखनऊ। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से मात्र 90 किमी दूर सीतापुर जिले के रतौली गाँव के करन (पांच वर्ष) और अर्जुन (पांच वर्ष) को जिस समय स्कूल में होना चाहिए वो गाँव में खेलते रहते हैं। ऐसा कि नहीं पढ़ना नहीं चाहते, लेकिन स्कूल नदी के दूसरी ओर है, जहां जाने के लिए पुल ही नहीं। रतौली गाँव के बच्चे इसी वजह से स्कूल नहीं जा पाते।

शिक्षा पर काम करने वाली संस्था प्रथम की हाल ही में आई रिपोर्ट 'असर' (Annual Status of Education Report) भी यही कहती है। देश के 596 जिलों के लगभग साढ़े तीन लाख ग्रामीण परिवारों और लगभग 16 हजार सरकारी स्कूलों पर हुए इस सर्वे के मुताबिक 20% बच्चे प्राथमिक शिक्षा और 36% बच्चे उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाते हैं।


ग्रामीण शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए अगर निम्न समस्याओं को पर ध्यान दिया जाए तो गाँव के बच्चों की जिंदगी संवर सकती है।

1. स्कूल प्रबंधन समितियों को किया जाए मजबूत-

ग्रामीण पत्रकारिता के दौरान गांव कनेक्शन के रिपोर्टरों ने जाना कि बच्चों को स्कूल भेजने में अभिभावकों की भागीदारी कम होती है। स्कूल प्रबंधन और अभिभावकों के बीच एक दूरी बनी रहती है जिससे बच्चों की उपस्थिति कम रहती है। जहां स्कूल प्रबंधन समितियां अच्छा काम करती हैं वहां बच्चों की प्राइमरी स्कूल में उपस्थिति भी रहती है।


असर की रिपोर्ट में भी यह बात सामने आई कि 'शिक्षा का अधिकार (RTE)' कानून लागू होने के बाद ग्रामीण इलाकों में नामांकन दर तो बढ़ा है लेकिन स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति नहीं बढ़ी। बच्चे स्कूलों में नाम तो लिखा लेते हैं लेकिन स्कूल पढ़ने नहीं आते।

इसमें सबसे बड़ी वजह गरीबी आती है। भले ही निःशुल्क शिक्षा और मिड-डे मील योजना लागू है, लेकिन गरीब परिवारों के पास रोज की 150-200 रुपए की मजदूरी के मोह के सामने अभी भी विकल्प नहीं है, कि वे अपने बच्चों को खेती के काम न कराकर स्कूलों को भेजें।

उत्तर प्रदेश के संतकबीर नगर जिले के बयारा गाँव में स्थित पूर्व माध्यमिक विद्यालय में पहली कक्षा के छात्र श्रेयांश के पिता ने बताया, "बच्चों को दिन का भोजन तो मिड-डे मील मं। मिल जाता है लेकिन रात के भोजन की व्यवस्था भी तो हमें ही करनी है। हम अपने बच्चों को कैसे भूखे पेट सोने दे सकते हैं। मजदूरी इतनी अधिक हो गई है कि हम खेतों में 200 से 300 रुपए की दिहाड़ी वाले मजदूर नहीं लगा सकते। इसलिए मजबूरी में बच्चों को हमारे साथ खेतों में काम करना पड़ता है।"


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2. समय पर किताबें मिलें और शौचालयों की साफ-सफाई की व्यवस्था हो

प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में मूलभूत बुनियादी सुविधाओं की अभी भी कमी है। ज्यादातर स्कूलों में अभी भी बच्चे फर्श या चटाई पर बैठकर पढ़ाई करते हैं। इसके अलावा शौचालय जैसी प्रमुख बुनियादी जरूरतों की भी सरकारी स्कूलों में कमी है। इसकी वजह से खास तौर पर छात्राओं को काफी परेशानी होती है। शौचालय की सही व्यवस्था न होने से छात्राओं का स्कूल छोड़ना मजबूरी बन जाता है। एक माध्यमिक स्कूल के प्रधानाचार्य ने नाम ना छापने की शर्त पर गाँव कनेक्शन से कहा, "सत्र अप्रैल में शुरू होता है, लेकिन किताबें अगस्त-सितंबर के बाद ही आती हैं। कई बार तो दिसंबर महीना बीत जाने के बाद भी किताबें नहीं आ पातीं। ऐसे में बच्चों को कैसे बेहतर शिक्षा मिल पाएगी?"

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3. अध्यापकों की उपस्थिति हो सुनिश्चित

सरकारी प्राइमरी स्कूलों में एक तो वैसे ही कमी रहती है, दूसरे अध्यापक नियमित स्कूलों में जाते भी नहीं हैं। बीएसए आफिस और खंड शिक्षा अधिकारी विभाग के साथ सांठ-गाँठ करके कई अध्यापक महीनों स्कूल नहीं जाते और उनकी उपस्थिति दर्ज़ होती रहती है। तकनीक का प्रयोग करके ऐसा सुनिश्चित किया जाए कि अध्यापकों की स्कूलों में उपस्थिति अनिवार्य हो पाए।



4. बच्चों की प्रगति को शिक्षकों की प्रगति से जोड़ा जाए

सरकारी प्राइमरी स्कूलों में ऐसे मानक बनाए जाएं कि जिससे बच्चों की प्रगति की मॉनीटरिंग हो सके। स्कूल के बच्चों की प्रगति रिपोर्ट को अध्यापक की प्रगति रिपोर्ट के साथ जोड़ देना चाहिए। इससे अध्यापक अपनी प्रगति को सुधारने के लिए बच्चों पर ज्यादा ध्यान देंगे।

असर के रिपोर्ट में भी ग्रामीण शिक्षा की गुणवत्ता पर भी कई प्रश्न उठाए गए हैं।

मसलन कक्षा पांच में नामांकित आधे से अधिक छात्र कक्षा दो के पाठ को पढ़ने में सक्षम नहीं थे। ऐसे ही कक्षा आठ के 27 प्रतिशत छात्र कक्षा दो के पाठ पढ़ने में सक्षम नहीं हैं। गणित के सवाल हल करने में भी ग्रामीण छात्र काफी पिछड़े नजर आते हैं।



एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापक ने इस संबंध में बताया, "स्कूलों से प्री नर्सरी (शिशु) कक्षा खत्म हो गई है। बच्चों का सीधे पहली कक्षा में प्रवेश मिलता है। इससे पहले उनसे उम्मीद की जाती है कि आगनबाड़ी में उन्हें अक्षर ज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा मिली हो। बच्चों को फेल भी नहीं कर सकते, यह सरकारी नियम है। इसके अलावा कई सरकारी अध्यापक आरामतलब भी होते हैं। वे नियुक्ति ही इसलिए लेते हैं कि वे आराम कर सकें।"

पढ़ाई की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए रटने की नीति की जगह सीखने की नीति को बढ़ावा मिलना चाहिए। यह जरूरी है कि बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ प्रायोगिक और व्यवहारिक ज्ञान भी मिले।

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5. शिक्षकों की ट्रेनिंग का उचित प्रबंध हो-

सरकारी विद्यालयों में जिन शिक्षकों की नियुक्ति होती है उनके पास ट्रेनिंग कोर्स मसलन- बी.एड., बीटीसी और टीईटी का प्रमाण पत्र तो जरूर होता है लेकिन उन्होंने कितनी गंभीरता से इस ट्रेनिंग को लिया है, यह जमीन पर साफ दिखता है।

एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक ने भी माना, "सरकारी स्कूलों में हर साल अध्यापकों को कुछ ना कुछ विभागीय ट्रेनिंग दी जाती हैं, लेकिन यह महज खानापूर्ति होती है। शिक्षा विभाग को ट्रेनिंग में नए-नए प्रयोग करने चाहिए। ऐसे ट्रेनिंग में शिक्षकों की उपस्थिति अनिवार्य होनी चाहिए। शिक्षकों को भी ऐसे ट्रेनिंग प्रोग्राम को गंभीरता से लेना चाहिए ताकि शिक्षण कार्य में अध्यापकों और छात्रों दोनों की रूचि बनी रहे।"

6. पारदर्शिता पूर्ण हो शिक्षकों की नियुक्ति

शिक्षा विभाग को अध्यापकों की नियुक्तियों में पर्याप्त पारदर्शिता बरतने के साथ ही लगातार शिक्षकों की गुणवत्ता परक कार्यों का मूल्यांकन भी जरूरी है।

रिटायर्ड प्रोफेसर और शिक्षाविद् डॉ. शिव बालक मिश्र कहते हैं, "हर पांच वर्ष पर बाहरी एजेंसियों से शिक्षकों की परीक्षा ली जाए, इसके बाद ही उनके नियुक्तियों का नवीनीकरण हो। स्थानीय ग्राम समुदाय से भी पता कर के शिक्षक का मूल्यांकन किया जाए। इससे अध्यापकों में अपने काम के प्रति जिम्मेदारी बढ़ेगी और वह गंभीरता से अपने कार्य को निभाएंगे।"

वह आगे कहते हैं कि शिक्षकों की नियुक्तियों में 'कमिश्नरी कैडर' बनना चाहिए। "अभी प्राइमरी अध्यापकों का जिला कैडर होता है, इसके स्थान पर मंडलीय कैडर बनाया जाना चाहिए। शिक्षकों का तैनाती के गाँवों में रहना अनिवार्य होना चाहिए। अभी शिक्षक स्कूल से नजदीकी शहर में रहता है। इसलिए देर से पहुंचना और जल्दी चल देना सामान्य बात होती है। इसके अलावा शिक्षा विभाग में ट्रांसफर-पोस्टिंग भी एक बड़ा उद्योग है। मंडल कैडर लागू होने पर इन पर कुछ अंकुश लगेगा," शिव बालक मिश्र बताते हैं।

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7. शिक्षकों को शिक्षा के अलावा अन्य कार्यों से दूर रखा जाए-

संत कबीर नगर जिले के प्राथमिक स्कूल में नियुक्त एक अध्यापक ने नाम ना जाहिर करने की शर्त पर बताया, "कोई भी सर्वे या अन्य सरकारी कार्य आते हैं तो उसकी जिम्मेदारी सरकारी स्कूल के शिक्षकों पर थोप दी जाती है। इसके अलावा मिड-डे मील, प्रबंध समितियों के बनने से भी स्कूलों के 'पेपर वर्क' बढ़ गए हैं। इसे पूरा करने की जिम्मेदारी शिक्षकों की ही होती है। स्कूल के एक या दो अध्यापक तो विभागीय पेपर वर्क पूरा करने में ही लगे होते हैं। एक तो स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। ऊपर से सर्वे और पेपर वर्क में अध्यापकों का लगना शिक्षण कार्य को अनिवार्यतः प्रभावित करता है।"


वह कहते हैं कि या तो शिक्षकों पर से पेपर वर्क का लोड कम किया जाए या तो प्राथमिक और पूर्व माध्यमिक विद्यालयों में कम से कम एक क्लर्क की नियुक्ति की जाए ताकि शिक्षण कार्य प्रभावित ना हो।

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8. बढ़ाया जाए शिक्षा पर होने वाला खर्च

हमारा देश शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का मामूली हिस्सा ही खर्च करता है। पिछली सरकार में शिक्षा के मद में औसतन 2.5 प्रतिशत खर्च हुआ जबकि शिक्षा पर खर्च का वैश्विक औसत 4.7 है। भारत के समान ही उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जीडीपी का 6 फीसदी से अधिक शिक्षा के मद में खर्च करते हैं। जरूरत है सरकार शिक्षा के क्षेत्र में खर्च को बढ़ाए और उसे सही दिशा में खर्च करे जिससे बच्चों को सही और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पाए।

9. कर्मचारियों के साथ हो समान व्यवहार

किसी विद्यालय के लिए जितने आवश्यक अध्यापक हैं उतने ही जरूरी मिड डे मील बनाने वाले रसोइये और बच्चों को पढ़ाने वाले शिक्षामित्र भी होते हैं। लेकिन विद्यालयों में छात्रों से सीधे जुड़े इन कर्मचारियों के साथ व्यवहार दोहरा होता है। इनका मासिक वेतन काफी कम होता है,वो भी समय से नहीं आता।


प्राथमिक विद्यालय, राउतपार, संत कबीर नगर में रसोईया सुनीता बताती हैं, "स्कूल में खाना बनाने के साथ-साथ सफाई का भी काम करना पड़ता है। सुबह के सात बजे आती हैं तो तीन बजे के आस-पास ही छुट्टी मिलती है। आधे से ज्यादा दिन तो स्कूल में ही बीतता है। लेकिन कभी भी तनख्वाह समय पर नहीं मिल पाती। एक तो तनख्वाह इतनी कम (1000 रूपये मासिक) है, वह भी समय से नहीं मिल पाता। चार-पांच महीने में एक बार तनख्वाह आता है, वह भी प्रधान के खाते में आता है। बार-बार उनसे भी पूछना पड़ता है कि पैसा आया या नहीं। कई बार तो स्कूल के अध्यापकों से उधार मांग कर काम चलाना पड़ता है।"

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10. शिक्षक, अधिकारी, नेता अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएं-

'सरकारी स्कूलों में सही पढ़ाई नहीं होती', की धारणा को तोड़ने के लिए कुछ ऐसे उदाहरण होने जरूरी है। अगर सरकारी स्कूलों में वहां पढ़ा रहे शिक्षकों, अधिकारियों और नेताओं के बच्चे पढ़ेंगे तो शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि होगी। शिक्षक शिक्षण कार्यों में उचित सतर्कता बरतेंगे। वह ख्याल रखेंगे कि पढ़ाई का स्तर कक्षा के अनुसार बना रहे क्योंकि उसी कक्षा में उनके भी बच्चें मौजूद रहेंगे।

शिक्षा पर काम करने वाले एक स्वंयसेवी कार्यकर्ता ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा, "किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नेताओं और नौकरशाहों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। चुंकि नेताओं और नौकरशाहों की संतानें सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते तो वे भी इस पर अधिक ध्यान नहीं देते।"

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अपने प्रयोगों के कारण खास है का यह सरकारी स्कूल, लखीमपुर में मिला है प्रथम स्थान



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