दिमाग़ी बुखार के सबसे बड़े शिकार वो नहीं जो मर गए, बल्कि वो हैं जो बच गए

गोरखपुर में पिछले वर्ष दिमाग़ी बुखार से एक रात में हुई 23 बच्चों की मौतों को, जिन्हें उस वक़्त ऑक्सीजन की कमी के कारण हुआ बताया गया था, एक साल हो गया है जबकि दिमाग़ी बुखार के विभिन्न प्रकारों से इस क्षेत्र में होती मौतों को चालीस साल हो गए।

Neelesh MisraNeelesh Misra   11 Aug 2018 5:16 AM GMT

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दिमाग़ी बुखार के सबसे बड़े शिकार वो नहीं जो मर गए, बल्कि वो हैं जो बच गए

खैरटिया गाँव (उत्तर प्रदेश)। इंटरव्यू के बीच में ही पिंकी के चेहरे का रंग और आकार बदलने लगा। होठों का बायाँ लकवाग्रस्त हिस्सा खुल गया। वो अपने पहले से टेढ़े हाथ और मरोड़ने लगी। उसकी आँखों से उसके साँवले गालों पर बड़े-बड़े आँसू बहने लगे। वो जिस लोहे की कुर्सी पर बैठी थी, वहीं कसमसाने लगी। रोते-रोते मुँह से एक दबी हुई चीख़ निकालने लगी, लेकिन सिर्फ़ हल्की सी, नुकीली आवाज़ निकली।

कुशीनगर के इस गाँव में पत्रकार आए थे। कलम और कैमरा लेकर। पिंकी जब लोहे की कुर्सी पर अपनी माँ के बगल में बैठी तो मुस्कुरा रही थी। तभी माँ ने पाँच साल पहले के उस दिन के बारे में बताना शुरू किया जिस दिन उस परिवार की ज़िंदगी बदल गयी।

अपनी मां के साथ बैठी पिंकी

"भैंस चराने गयी थी, वहीं पर बुखार हो गया… लोगों ने कहा कि यहां ले जाओ वहां ले जाओ, तब एम्बुलेंस आयी और इसे ले गए," उसकी माँ ने कहा। उन्होंने अपना नाम सिर्फ़ दुल्ली बताया। "तबसे बोल नहीं पाती है, न खा पाती है न चल पाती है, बहुत परेशान हैं हम, इनके पीछे हम दिन भर लगे रहते हैं। पढ़ भी नहीं पाती है, कुछ भी नहीं कर सकती है।"

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गोरखपुर में पिछले वर्ष आज के ही दिन दिमाग़ी बुखार से एक रात में हुई 23 बच्चों की मौतों को, जिन्हें उस वक़्त ऑक्सीजन की कमी के कारण हुआ बताया गया था, एक साल हो गया। दिमाग़ी बुखार के विभिन्न प्रकारों से इस क्षेत्र में होती मौतों को चालीस साल हो गए हैं। अधिकारियों और स्वतंत्र विशेषज्ञों के अनुसार पहली बार दिमाग़ी बुखार से जुड़ी मौतों की संख्या थमती नज़र आ रही है। इसका श्रेय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिया जा रहा है।

लेकिन भारत की सबसे बड़ी स्वास्थ्य-सम्बंधित त्रासदियों में से एक, इस बीमारी के असली शिकार वो नहीं हैं जो मर गए, बल्कि वो जो बच गए और पूरी ज़िंदगी के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से अक्षम हो गए।

"इंसेफ्लाइटिस में तीन आफ्टर इफ़ेक्ट होते हैं, जेई में 30-40 प्रतिशत लोग मर जाते थे, 20-25 % तक लोग दिव्यांग हो जाते थे, मानसिक तौर पर बीमार हो जाते थे, या कान खराब हो जाता था, आंख से दिखाई नहीं देता था, हाथ काम करना बंद कर देता था, या तो वह दिव्यांग टेम्पररी होते थे, या परमानेंट," बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. आर एन सिंह, जो पंद्रह साल से इस बीमारी के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे हैं, ने गाँव कनेक्शन को बताया।

"और मैं साफ करूँगा दिव्यांग होना ज्यादा अभिशाप है पूरे परिवार के लिए, समाज के लिए और देश के लिए भी, क्योंकि वो बच्चा बोल नहीं पाएगा, मर जाना कोई अच्छी बात नहीं है, लेकिन दिव्यांगता तो पूरे परिवार को ऐसे मार देता है," उन्होंने कहा।

गोरखपुर के बीच बस एक शहरी गाँव मानबेला शहर के मेडिकल कॉलेज के बग़ल में है। लेकिन यहाँ दिमाग़ी ज्वर से दर्जनों मौतें हो चुकी हैं।

"जब से दिमाग़ी बुखार आया है तब से ना तो ये चल पाता है, न कुछ बोल पाता है, और ऐसे ही बैठा रहता है," गाँव में रहने वाली प्रीति ने अपने छोटे भाई गोलू के बारे में कहा। गोलू आठ साल का है लेकिन सिर्फ़ तीन-चार साल का लगता है। "इसको पथरी है, हर्निया भी है … जो मम्मी बाहर से काम करके कमाती है वो गोलू की दवाई में ख़र्च हो जाता है।"

जेई यानि मच्छरों द्वारा फैलने वाला जापानी इंसेफ्लाइटिस रोग कई दशकों तक मृत्यु का मुख्य कारण रहा। लेकिन अब टीकाकरण और अन्य क़दम उठाने के बाद इस पर बहुत हद तक क़ाबू कर लिया गया है। पिछले कुछ वर्षों से एक नए ख़तरे के रूप में उभरा है इस बीमारी का गंदे पानी से फैलने वाला एक रूप -- अक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम, यानि एईएस।

हज़ारों मौत से बदतर ज़िंदगी जी रहे हैं, और हज़ारों मर चुके हैं। बारह साल का ब्रजेश बनियान पहन कर धर्मपुर गाँव में ज़ीने पर बैठा अपनी बहन को याद करके बोला: "जी याद आती है... हम लोग एक साथ पढ़ते थे खेलते थे, अब वह मर गयी है तो नहीं खेलते। राखी पर याद आती है।" उसकी बहन अनसनी आठ साल की थी जब एक दिन अचानक उसकी तबियत ख़राब हो गयी। "यह जैसे रात को शुरू हुआ, रात को पापा दवा कराने गोरखपुर लेकर गए लेकिन वहां पर भी नहीं बची। बहुत उल्टी आ रही थी, झटके भी आ रहे थे, उसका जीभ भी कट गया," ब्रजेश ने कहा।"हम खेलते थे, पढ़ते थे, घूमते थे साथ-साथ।" लड़ाई करते थे? "नहीं नहीं, अरे कभी-कभी गलती से हो जाता था।"

हर गाँव में एक-दो या दर्जनों मौतों की कहानियाँ हैं। अगर नागरिकों को कुछ बचा सकता है, तो वो है साफ़ पीने का पानी। विशेषज्ञ कहते हैं कि इतना भर करने से जानें बच जाएँगी। कई वर्षों से शहरों की तरह क्षेत्र के गाँवों में भी पानी की ऊँची टंकियाँ लगाने और उनसे घरों में नल से पानी भेजने का प्रयास चल रहा है। लेकिन ये अधिकांशतः असफल रहा है। कुशीनगर के खोटही गाँव में एक पानी टंकी खंडहर की तरह उपेक्षित थी। उसका ताला बंद था और वहाँ से पानी कहीं नहीं जाता। ग्रामीणों ने कहा कि अधिकतर क्षेत्रों की यही कहानी है।

लेकिन जीना है तो साफ़ पानी पीना होगा, ये अब ग्रामीण नागरिक भली भाँति जानते हैं। इसलिए गाँव-गाँव एक नया व्यक्ति सबकी ज़िंदगी में महत्वपूर्ण हो गया है: "आरओ" का पानी बेचने वाला। ये दृश्य शहर के लोगों की कल्पना के परे होगा, लेकिन हर क्षेत्र में दिन में दो बार एक छोटी ऑटो-नुमा गाड़ी गाँव-गाँव पंद्रह रुपए की एक बोतल के हिसाब से पानी बेचती है।

पीने का साफ़ पानी देने में सरकारों की लगातार असफलता का फ़ायदा उठाते हुए खोटही गाँव में एक छोटे से कमरे में कई मशीनें लगाकर बैंक से लोन लेकर विनोद गुप्ता ने पानी का धंधा शुरू कर दिया है। "दिन में ढाई सौ लीटर बिक जाता है। कई बार प्यूरिफ़ाई कर के देते हैं," गुप्ता ने कहा।

"जबसे बेटा गुज़र गया, तब से हम फ़िल्टर का पानी पीते हैं," निर्भया गाँव की सोभावती ने कहा। "पहले नलके का पानी पीते थे, नलके का पानी शुद्ध नहीं होता था। फ़िल्टर का पानी हमें दस रुपया में बीस लीटर मिलता है ख़ुद लाने पर, और एक दो दिन चल जाता है। महीने का डेढ़-दो सौ ख़र्चा हो जाता है।"

लेकिन साफ़ पानी एक ऐसी सुविधा है जिसके पैसे दे पाने की सबकी हैसियत नहीं है। अधिकांश गाँवों में छोटे हैंडपम्प लगे हैं जो बीमारी की गारंटी हैं। हर गाँव में कई जगह ज़्यादा गहरायी तक जाने वाला इंडिया मार्का हैंडपम्प होना चाहिए, लेकिन मिलता नहीं। खेरटिया गाँव में अपनी बेटी के बग़ल में बैठी अपने तकलीफ़ आँसुओं से जताती दुल्ली जानती हैं कि उनकी ज़िंदगी में अधिक कुछ नहीं बदलने वाला है।"गंदे पानी से होती है ये बीमारी, अभी कौन सा पानी पीती हैं?" रिपोर्टेर ने पूछा। "इसी नल का पानी ही पीते हैं," उन्होंने कहा।

इंसेफ्लाइटिस में तीन आफ्टर इफ़ेक्ट होते हैं, जेई में 30-40 प्रतिशत लोग मर जाते थे, 20-25 % तक लोग दिव्यांग हो जाते थे, मानसिक तौर पर बीमार हो जाते थे, या कान खराब हो जाता था, आंख से दिखाई नहीं देता था, हाथ काम करना बंद कर देता था, या तो वह दिव्यांग टेम्पररी होते थे, या परमानेंट। और मैं साफ करूँगा दिव्यांग होना ज्यादा अभिशाप है।
डॉ. आर एन सिंह, बाल रोग विशेषज्ञ

भारत में इंसेफेलाइटिस

    

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