ग्राम पंचायत: खुली बैठकों के नाम पर हो रहा धोखा

गांव में ग्राम सभा की खुली बैठक बुलाने का प्रवधान है। यह बैठक साल में दो बार होनी चाहिए।

Ranvijay SinghRanvijay Singh   8 Nov 2019 12:07 PM GMT

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ग्राम पंचायत: खुली बैठकों के नाम पर हो रहा धोखा

''मीटिंग ... कौन सी मीटिंग?'' आश्‍चर्य से भरे यह शब्‍द 23 साल के अतुल शुक्‍ला के हैं। अतुल यह जवाब उस सवाल पर देते हैं जिसमें उनसे पूछा गया कि 'क्‍या आपके गांव में ग्राम सभा की मीटिंग होती है?'

अतुल शुक्‍ला उत्‍तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के पानापार गांव के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि ''ऐसा सुना है कि ग्राम सभा की मीटिंग होनी चाहिए, लेकिन जबसे मैंने होश संभाला है गांव में ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई है।'' ग्राम सभा की मीटिंग न होना सिर्फ इस एक गांव की कहानी नहीं है। यह समस्‍या ग्राम पंचायतों में आम हो गई है।

भारत में कुल 2.51 लाख पंचायतें हैं, जिनमें से 2.39 लाख ग्राम पंचायतें हैं। नियम के मुताबिक इन ग्राम पंचायतों में होने वाले काम को खुद गांव के रहने वाले लोग तय करेंगे। जैसे- गांव में कहां सड़क की जरूरत है, कहां नाली बननी चाहिए, ऐसे तमाम काम गांव वाले तय करेंगे। इसके लिए गांव में ग्राम सभा की खुली बैठक बुलाने का प्रवधान है। यह बैठक साल में दो बार होनी चाहिए। एक बैठक खरीफ की फसल कटने के बाद और दूसरी रबी की फसल काटने के बाद होनी होती है। बैठक में गांव वालों को बुलाने के लिए बकायदा डुगडुगी पिटवाई जाती है, लेकिन धीरे धीरे ग्राम पंचायतों में इस डुगडुगी की आवाज गुम होती गई और मीटिंग के बारे में लोग भूल ही गए।

यूपी के बरेली जिले का पिपौली गांव।

उत्‍तर प्रदेश के बरेली जिले की पिपौली ग्राम पंचायत में भी कुछ यही हाल है। यहां के रहने वाले सचिन गंगवार से पूछा गया कि 'आपके गांव में आखिरी बार ग्राम सभा की मीटिंग कब हुई थी?' इसके जवाब में वो कहते हैं, ''आखिरी बार का तो तब याद हो जब कभी मीटिंग हुई हो। हमारे गांव में कोई मीटिंग नहीं होती है। कई बार मैंने प्रधान से इस बारे में कहा है, लेकिन वो सुनें तब न।''

ग्राम सभा की मीटिंग इसलिए भी जरूरी होती है कि यह गांव के विकास की पहली कड़ी होती है। गांव वाले खुद अपनी समस्‍या के अनुसार कार्ययोजना बनाते हैं और फिर साल भर उस कार्ययोजना पर काम होता है। लेकिन जब यह मीटिंग नहीं होती तो गांव के लोगों से, उनकी समस्‍याओं से योजनाओं की एक दूरी बन जाती है। ऐसी ही दूरी उत्‍तर प्रदेश के सीतापुर जिले के नटवलग्रंट में देखने को मिलती है।

300 की आबादी वाले नटवलग्रंट गांव में संक्रामक बुखार की वजह से पिछले साल 10 लोगों की मौत हो गई थी। इस साल गांव के करीब 20 लोग बुखार से पीड़ित थे। इस संक्रामक रोग के पीछे डॉक्‍टरों का मानना है कि गांव में फैली गंदगी एक बड़ी वजह है। लेकिन 10 लोगों के मरने के बाद भी गांव में स्‍वच्‍छता को लेकर कोई काम नहीं किया गया। गांव में नालियां टूटी हुई हैं, सड़कें टूटी हुई हैं।

इन समस्‍याओं को देखने के बाद जब गांव वालों से पूछा जाता है कि ग्राम सभा की मीटिंग में यह बात क्‍यों नहीं उठाते? इस सवाल पर नंदकिशोर चौधरी (45 साल) कहते हैं, ''मीटिंग कब होती है, इस बात की जानकारी हमें नहीं होती। कोई डुगडुगी नहीं पिटवाई जाती। कार्ययोजना कैसे बनी, किसने बनाई यह हमें नहीं मालूम। ग्राम प्रधान से कोई बात कहो तो वो सुनता नहीं है। फिर हम अपनी समस्‍या किससे कहेंगे।''

यूपी के सीतापुर जिले का नटवलग्रंट गांव।

ऐसा नहीं कि यह हाल सिर्फ उत्‍तर प्रदेश का है। मध्‍य प्रदेश के गांव का हाल भी कुछ ऐसा ही है। ग्राम सभा की मीटिंग पर मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के मुहारी गांव के रहने वाले गौरव जैन (25 साल) कहते हैं, ''मुझे नहीं पता की मेरे गांव में कभी कोई मीटिंग हुई है। मुझे तो आज पता चला कि ऐसी मीटिंग होनी होती है। हमारे यहां तो प्रधान ही सब तय करता है, लोगों से कुछ नहीं पूछा जाता।''

इन कथनों से साफ होता है कि ग्राम सभा की मीटिंग्‍स का हाल अच्‍छा नहीं है। इस हाल पर राष्‍ट्रीय ग्राम्‍य विकास व पंचायती राज संस्‍थान द्वारा संचालित 100+ क्‍लस्‍टर डेवलपमेंट प्रोग्राम के कोऑर्डिनेटर पंकज कलकी कहते हैं, ''खुली बैठकों के नाम पर टोटल फर्जीवाड़ा चल रहा है। यह संवैधानिक बाध्‍यता है कि खुली बैठक में ग्रामीणों की स्वीकृति के बिना कोई भी काम नहीं हो सकता और खुली बैठक हो नहीं रही हैं। ऐसे में जो भी कागजात खुली बैठकों के नाम पर तैयार किए जाते हैं सब फर्जी हैं। हमने सीतापुर की करीब 63 ग्राम पंचायतों की जांच कराई थी, इसमें सामने आया था कि इन ग्राम पंचायतों में खुली बैठक नहीं हो रही है।''

इन बातों से सवाल उठते हैं कि आखिर ग्राम सभा की बैठक क्‍यों नहीं होती? क्‍या है इसके पीछे की वजह? इसका जवाब देते हुए ग्राम्‍य विकास मंत्रालय के पूर्व डायरेक्‍टर डॉ. महीपाल कहते हैं, ''गांव में सारी व्‍यवस्‍था प्रधान केंद्रित है। यह लोग नहीं चाहते कि ग्रामीण विकास में गांव वालों की भागीदारी हो। प्रधान अधिकारियों के साथ बंद कमरे में बैठकर खुद ही सब तय कर लेते हैं। दूसरी बात यह है कि गांव में राजनीति बहुत खराब है। जैसे किसी ने कोई पत्र लिखा कि गांव में कोई काम नहीं हो रहा है। इसके बाद प्रधान के लोग उसके खिलाफ केस करने में लग जाएंगे। उसे कुछ न कुछ करके परेशान किया जाएगा। ऐसे में लोग भी कुछ करने से डरते हैं।''

डॉ. महीपाल कहते हैं, ''ऐसे में इस प्रधान केंद्रित व्‍यवस्‍था को खत्‍म करने की जरूरत है। आज गांव में जो वॉर्ड का मेंबर है उसकी कोई अहमियत नहीं होती है। उसे अगर मजबूत किया जाए तो बहुत सी समस्‍या हल हो सकती है। जैसे किसी गांव में विकास के लिए 1 करोड़ का बजट है तो यह 1 करोड़ के बजट से क्‍या काम होंगे यह सिर्फ प्रधान तय न करे। अगर उस गांव में 10 वार्ड हैं तो उन वार्ड मेंबर्स को भी यह तय करने की जरूरत है कि उनके इलाके में कौन सा विकास होना है। जब वॉर्ड मेंबर तय करेगा तो उसके सापेक्ष लोग भी कम हो जाएंगे और अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी ग्राम पंचायत व्‍यवस्‍था में बढ़ सकेगी।''


  

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