पानी के गणित को समझे बिना नहीं बुझेगी प्यास

पानी तक सभी की पर्याप्त और न्यायसंगत पहुंच हो इसे सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि हम अपना ध्यान जल के स्रोतों से हटाकर जल संसाधनों पर केंद्रित करें। जल संकट को हल करने के लिए विज्ञान और सामुदायिक सहभागिता दोनों की आवश्यकता है।

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पानी के गणित को समझे बिना नहीं बुझेगी प्यास

पानी की बढ़ती मांग बताती है कि हमें अपने संसाधनों के बारे में दृष्टिकोण को सुधारने और पानी की मांग को न्यायसंगत तरीके से व्यस्थित करने की जरूरत है। भारत भूगर्भ या भूजल जल पर आधारित अर्थव्यवस्था है। हम हर साल 260 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का इस्तेमाल करते हैं। इस लिहाज से हमारा देश दुनिया में सबसे ज्यादा भूगर्भ जल प्रयोग करने वाला देश है। दुनिया भर में जितना भी भूजल निकाला जाता है भारत उसके 25 फीसदी का उपभोग करता है, मतलब इस मामले में हमने अमेरिका और चीन को भी पीछे छोड़ दिया।

जब भी हम पानी के बारे में सोचते हैं हमारे दिमाग में बड़े-बड़े बांध और नदियों का चित्र उभरता है, लेकिन कुओं का ख्याल तक नहीं आता। जबकि, हकीकत यह है कि भारत में कम से कम चार करोड़ कुएं हैं जिनकी मदद से लाखों किसान खेती करते हैं।

1960 और 70 के दशक तक भारत भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता नहीं था, लेकिन हरित क्रांति ने सब बदल दिया। आजादी के समय कृषि में भूजल का योगदान महज 35 पर्सेंट था और आज यह 70 पर्सेंट है।

पानी को साझा संसाधन के रूप में देखने की जरूरत

लोग भूजल को फसलों की सिंचाई या फिर शहरों में पानी की सप्लाई, इन दो चश्मों से देखते हैं। लेकिन यह अधूरा नजरिया है जो यह नहीं जानता है कि जल संसाधन आखिर है क्या और उसके बेहतर इस्तेमाल के लिए करना क्या चाहिए।

हमें भूजल को एक साझा संसाधन के रूप में देखने की आदत डालनी होगी, इसमें चुनौती यह है कि यह साझा संसाधन लगभग अद्श्य है।

गांवों में यह एक आम अवधारणा है कि, "यह मेरी जमीन है इसलिए इसके नीचे जो भी पानी है वह मेरा है।" लेकिन हम लोगों से सवाल करते हैं," आपकी जमीन के नीचे का पानी आपका कैसे हो सकता है जब आपके कुएं का पानी किसी और की जमीन के नीचे से निकलकर आया है, ठीक इसी तरह आपकी जमीन के नीचे वाला पानी आपके पड़ोसी की जमीन के नीचे से बहकर निकलेगा?"

एक बार लोगों को वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर यह बताया जाए तो उन्हें समझने में आसानी होगी और खासतौर पर तब, जबकि ये आंकड़े उन्हीं ने जुटाए हों।

लेकिन ये वैज्ञानिक आंकड़े और विज्ञान तब मददगार साबित हो सकते हैं जब हम जल संसाधन (एक्वीफर या जलीय चट्टानी पर्त) और गांवों समेत पूरे समुदाय को एक साथ लाकर समाधान खोजने की कोशिश करते हैं। इसे ही सहभागी भूजल प्रबंधन कहते हैं।

जमीन के नीचे मौजूद पानी को अहमियत देनी होगी



पारंपरिक सोच यह है कि चेक डैम पानी को रोकेंगे और इन्हीं की तली से पानी रिसकर भूजल को रिचार्ज करेगा। आम जनता यहां तक कि वॉटरशेड मैनेजमेंट के क्षेत्र में काम करने वाले संस्थान भी यह मानकर चलते हैं कि इस तरह कुएं रिचार्ज किए जाते हैं।

लेकिन असलियत में कुएं केवल पानी के ऐसे स्रोत हैं जहां से पानी निकाल कर जरूरत और मांग के हिसाब से बांटा जाता है। लेकिन संसाधन कुएं नहीं एक्वीफर हैं। (एक्वीफर धरती के भीतर मौजूद उस संरचना को कहते हैं जिसमें मुलायम चट्टानों, छोटे-छोटे पत्थरों, चिकनी मिट्टी और गाद के भीतर भारी मात्रा में पानी जमा रहता है। इन्हीं से रिसकर पानी कुओं और झरनों में जाता है।)

इसलिए अगर एक बार आप अपने इलाके के एक्वीफर को पहचान लें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि किस खास जगह पर आपको चेकडैम वगैरह रीचार्ज करने वाले साधन बनाने हैं। इसका फायदा यह होगा कि चार चेकडैम बनाने की जगह आप उन जगहो में दो चेकडैम बनाएंगे जहां पानी इकट्ठा होता है। इस तरह खर्च लगभग आधा हो जाएगा और पानी अधिक से अधिक रीचार्ज होगा।

आमतौर पर एक बार वॉटर शेड योजना के लागू होने के बाद किसी को एक्वीफर के पानी की परवाह नहीं रहती। किसान और गहरे और बड़े कुएं खोदने लगते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अब उनके इस्तेमाल के लिए अथाह पानी मिल गया है।

इसलिए बहुत जरूरी है कि हम कुओं (साधनों) की जगह एक्वीफर (संसाधनों) को महत्व दें। नजरिए में बदलाव आएगा तो इस बात पर ध्यान जाएगा कि आजीविका के साधनों और पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ने वाले उसके असर में संतुलन कैसे बैठाया जाए या फिर जब एक एक्वीफर सूखने लगता है तो पीने के पानी की उपलब्धता किस तरह प्रभावित होती है।

जरूरी है कि समाज जागरूक बने

एक्वीफर और भूजल के बारे में जानकारी मिलने के बाद लोगों में इस बारे में और अधिक प्रशिक्षण पाने की उत्सुकता रहती है। ग्रामीणों और स्वयंसेवी संगठनों को इस तरह की जानकारी देने से देश का जल प्रबंधन के विकेंद्रीकरण में मदद मिलेगी।

पिछले 20 वर्षों में एडवांस्ड सेंटर फॉर वॉटर रिर्सोसेज डेवलपमेंट एंड मैनेजमेंट ने ग्रामीण समुदाय में से ही लोगों को इस बारे में प्रशिक्षण दिया है। ये लोग अब समाज में दूसरे लोगों से पानी के मुद्दे पर बातचीत करते हैं, प्रगति पर निगाह रखते हैं, भूजल का प्रबंधन और इससे जुड़े फैसले संतुलित हों यह सुनिश्चित करते हैं।

इसका नतीजा यह हुआ कि लोग अब चेक डैम के बारे में ज्यादा जागरूक हैं। उन्हें पता है कि इन बांधों को क्यों खास जगहों पर ही बनाना चाहिए, इनका मकसद क्या है और गांवों के लिए इनका क्या महत्व है। पंचायतें भी इस मुद्दे पर और जानकारी की मांग कर रही हैं। यहां तक कि वे यह जानकारी और मदद पैसे देकर भी हासिल करने की इच्छा रखती हैं। इसी बात से पता चल जाता है कि गांवों के लिए यह मुद्दा इतना अहमियत क्यों रखता है।

पानी पर अहम फैसले जनता ही ले तो बेहतर



गांवों में 90 फीसदी पीने का पानी जमीन के नीचे से आता है इसके अलावा 75 फीसदी खेती भूजल पर आधारित है। शहरों में भी भूजल से ही 50 फीसदी पीने की पानी की सप्लाई होती है।

भूजल पर इतनी अधिक निर्भरता की वजह से ही यह जरूरी हो जाता है कि भूजल प्रबंधन भी लोकतांत्रिक तरीके से हो। इसलिए जब हम भूजल से जुड़े आंकड़ों को समुदायों के साथ साझा करते हैं तब हम उन्हें यह नहीं बताते कि वे क्या करें। हम सिर्फ उन्हें यह बताते हैं कि यहां का पानी खारा है, यहां विशाल एक्वीफर है, ये ताजे पानी का भंडार है और जल्दी खत्म हो जाएंगे वगैरह। इसके बाद हम उन्हें संभावित विकल्पों की जानकारी देते हैं। हम गांव वालों को उनकी सीमाएं और संभावनाएं दोनों बता देते हैं। इसके बाद ये लोग तय करते हैं कि इन्हें क्या करना चाहिए और क्या करने से बचना चाहिए।

असल में जब आम जनता आपको आंकड़े लाकर दे और आप उनके आधार पर सूचनाएं और जानकारियां मुहैया कराएं तो लोग सहज ही आपकी दी गई जानकारी पर भरोसा कर लेते हैं। इसी जानकारी के आधार पर वे अपने तौर तरीके और व्यवहार भी बदल लेते हैं। जब आप आम आदमी को फैसले लेने का अधिकार दे देते हैं तो समाज की सोच में बदलाव लाना आसान हो जाता है।

जल का विज्ञान महज पानी का विज्ञान नहीं है। यह समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र और पारिस्थितिकी का मिला जुला रूप है। लोग पानी की हिस्सेदारी के बारे में सोचें इसके लिए जरूरी है कि वे किसी न किसी रूप में आपस में सहयोग करने के लिए तैयार हों। जब तक समाज और उसमें रहने वाले लोग सहयोग नहीं करेंगे न तो आप संसाधनों को बचा पाएंगे और न ही उन्हें स्थायी बना पाएंगे।

सहभागी भूजल प्रबंधन को प्रोत्साहन चाहिए

लेकिन भागीदारी पर आधारित भूजल प्रबंधन को अभी प्रोत्साहन की जरूरत है। कॉरपोरेट जगत इसमें रुचि नहीं लेता क्योंकि इसके नतीजे जल्दी नहीं आते। ये नतीजे भी छोटे-छोटे बदलावों के रूप में होते हैं जैसे पेयजल की सुनिश्चितता, फसलों की उत्पादकता में बढ़ोतरी वगैरह। इसके अलावा भूजल भी ऐसा संसाधन है कि उसमें होने वाला सुधार आसानी से दिखाई नहीं देता। लेकिन यह बदलाव लंबे समय तक टिकता जरूर है।

बोरवैल खोदना और पानी के जलाशय बनाना आसान है। लेकिन अगर हम एक राष्ट्र के रूप में चाहते हैं कि देश की जनता को लंबे समय तक पर्याप्त और समान मात्रा में पानी मिलता रहे तो हमें विज्ञान और समाज दोनों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। हमारी हमारे दृष्टिकोण में यह बदलाव भूजल के प्रति हमारे नजरिए को भी बदलेगा।

(डॉ. हिमांशु कुलकर्णी और उमा अस्लेकर का यह लेख मूल रूप से idronline में प्रकाशित हुआ था)

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