कहानी उस महिला की जो बदल रही गुजरात के बदनाम गांव की तस्‍वीर

Ranvijay SinghRanvijay Singh   1 Jan 2020 6:13 AM GMT

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रणविजय सिंह/मिथ‍िलेश धर दुबे

बनासकांठा (गुजरात)। यह कहानी एक ऐसी महिला की है जिसने अपना जीवन गुजरात के एक गांव के लिए समर्पित कर दिया। वेश्‍यावृत्‍त‍ि के लिए बदनाम इस गांव की तस्‍वीर बदलने और यहां की औरतों को नई राह दिखाने के लिए इस महिला ने बहुत काम किया। इस काम को करते हुए उसे धमकियां मिली, उसपर हमले भी हुए, लेकिन वो अपनी राह से हटी नहीं और इस गांव को बदलने के लिए काम करती रही। यह कहानी है शारदा बेन भाटी की।

शारदा बेन भाटी (45 साल) के शब्‍दों में- ''साल 2001 में गुजरात के कच्‍छ में भूकंप आया था, मैं वहां सेवा करने गई थी। रात में जब हम बैठकर बातचीत करते तो लोग मुझसे मेरा पता पूछते, जैसे ही मैं थराड का नाम लेती तो लोग आपस में खुसफुसाने लगते और फिर कहते- आपके वहां तो बहुत बड़ा भूकंप आया है। इसके बाद वो ठहाके लगाकर हंस देते। असल में यह लोग वाडिया गांव की बात करते थे।''

वाडिया गांव वेश्‍यावृत्‍त‍ि के लिए जाना जाता है। शारदा बेन बताती हैं, ''जब मैं कच्‍छ से लौटी तो सबसे पहले वाडिया गांव जाने का तय किया। मुझे लगा कि यह अच्‍छी बात नहीं है कि एक गांव की वजह से बदनामी हो। मैं जब थराड पहुंची और वहां से वाडिया जाने की बात कही तो कोई भी गाड़ी वाला वहां जाने को तैयार नहीं होता था, लेकिन मैं ठान चुकी थी। चौराहे पर बैठे कुछ लोगों ने एक शख्‍स की ओर इशारा करके बताया कि यह शख्‍स ही गांव जा सकता है। मैं जब उससे बात करने गई तो वो दारू पिए हुए था, लेकिन वो गांव जाने के लिए तैयार हो गया और इसके लिए 700 रुपए मांगे। मैंने यह पैसे दिए और मैं वाडिया गांव पहुंच गई।''

वाडिया गांव की कुछ महिलाओं से बात करतीं शारदा बेन

शारदा बेन बताती हैं, ''जब मैं यहां पहुंची तो यह बिल्‍कुल जंगल जैसा था। करीब 6 महीने तक रोजाना यहां आने के बाद भी कोई मुझसे बात नहीं करता। फिर धीरे-धीरे गांव के बच्‍चे और बुजुर्ग मुझसे बात करने लगे। मैंने बुजुर्गों से जाना कि इस गांव की औरतें ऐसा क्‍यों कर रही हैं, तो सबसे पहली वजह सामने आई कि उनके पास कमाई का कोई और जरिया नहीं है। इसके बाद 'विचरता समुदाय समर्थन मंच' नाम के एक एनजीओ की मदद से यहां ट्युबवेल लगाया गया, जिससे की यह लोग खेती कर सकें। इन सब काम की वजह से इन लोगों विश्‍वास हमपर बढ़ा।''

शारदा बेन कहती हैं, ''इसके बाद लोग हमसे आकर मिलने लगे। हमको पता चला कि बहुत से परिवार इस धंधे से बाहर निकलना चाहते हैं। ऐसे में एनजीओ की मदद से ही उन्‍हें पशु दिए गए, जिससे उनकी कमाई हो सके। साथ ही उनके बच्‍चों को बाहर पढ़ने के लिए भेजा गया, क्‍योंकि शिक्षा से ही यहां के नई पीढ़ी अलग काम कर सकेगी।''

ऐसा नहीं है कि यह सब इतना आसान रहा। शारदा बेन बताती हैं, ''इस धंधे से कई बाहरी लोग भी जुडे थे। वो लोग नहीं चाहते कि यह धंधा बंद हो। ऐसे में कई बार मुझे धमकी दी गई कि गांव में मत जाया करो, जब मैं नहीं मानी तो मुझपर हमला भी किया गया। लेकिन मैंने वाडिया आना छोड़ा नहीं।''

शारदा बेन ने वाडिया को अपना पूरा जीवन दे दिया

वाडिया गांव की ही सूर्या बेन (55 साल) बताती हैं, ''शारदा बेन ने बहुत मेहनत की है गांव वालों के लिए। जब वो यहां आई थी और आज के हालात को देखें तो बहुत फर्क आया है। कई परिवार अब इस दलदल से निकल गए हैं।''

शारदा बेन आगे कहती हैं, ''यह मेरा मिशन है। एक बार मेरे रिश्‍तेदारों ने कहा कि या तो वाडिया को छोड़ दो या मुझे छोड़ दो। तो मैंने कहा- ठीक है आपको छोड़ दिया। इसके बाद से मुझे कोई नहीं टोकता। मेरा सपना है कि लोगों को लगे कि यह गांव बदल गया है। देह व्‍यापार का काला तिलक जो यहां की औरतों पर लगा है, उसे तिलक को मुझे मिटाना है। जब तक मेरे में सांस है, तबतक मैं वाडिया के लिए काम करूंगी।''


  

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