अस्पतालों की लाइनें डराती हैं, ‘सरकारी अस्पताल ले जाते तो पति मर ही जाते’

Deepanshu MishraDeepanshu Mishra   10 Dec 2017 6:27 PM GMT

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अस्पतालों की लाइनें डराती हैं, ‘सरकारी अस्पताल ले जाते तो पति मर ही जाते’अस्पतालों में लाइन में लगे लोग 

लखनऊ। मरीजों के आर्थिक शोषण को लेकर देश के दो बड़े अस्पताल फोर्टिस और मैक्स सुर्खियों में हैं। लोग सोशल मीडिया में उन्हें गालियां तक दे रहे हैं। निजी अस्पतालों की कार्यशैली पर सवाल उठाए जा रहे हैं, लेकिन निजी अस्पतालों में भीड़ कम नहीं हो रही है।

मरीजों और तीमारदारों की भीड़ सरकारी अस्पतालों में भी है, लेकिन एक बडे वर्ग का मानना है कि सरकारी अस्पताल ज्यादातर वही लोग जाते हैं, जिनके पास पैसे नहीं होते, या फिर जिनका जुगाड़ होता है।

उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में रहने वाली सुनीता (40 वर्ष) लीवर में संक्रमण के बाद अपने पति के इलाज के लिए लखनऊ के एक बड़े निजी अस्पताल पहुंची थीं। लखनऊ में एसजीपीजीआई और देश के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज में शामिल किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज (केजीएमसी) में ना जाकर वहीं क्यों गईं, इस सवाल के जवाब वह जो जवाब देती हैं, वो कई सवाल खड़े करता है।

अस्पताल में इन्तेजार करते लोग

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“सरकारी अस्पताल ले जाते तो ये (पति) मर ही जाते। पहले पर्चा बनवाने के लिए लाइन, फिर डॉक्टर को दिखाने के लिए लाइन। डॉक्टर ने जांच लिखी है, तो फिर लाइन में। जांच रिपोर्ट की लाइन, फिर डॉक्टर को उसे दिखाने की लाइन... इतने में तो गंभीर मरीज की जान चली जाएगी।” सुनीता यहीं नहीं रुकतीं, वह बताती हैं, “लोग अस्पताल आराम करने तो आते नहीं, जब कोई मामला गंभीर होता है, तभी आते हैं, और वहां इतने झंझट होते हैं। मेरे पति की हालत गंभीर थी, अगर सरकारी अस्पताल ले जाती तो बचते नहीं। सरकारी अस्पताल सस्ते हैं तो मगर लाइनें बहुत होती हैं।”

लखनऊ में गोमती नगर के एक हाईफाई अस्पताल की ओपीडी में मिले बहराइच के नरेश (45 वर्ष) का अनुभव भी सरकारी अस्पताल को लेकर खट्टा ही है। वह कहते हैं, “पिछली बार अस्पताल पहुंचने में थोड़ी देर हो गई। उसके बाद मेरा बेटा कई घंटे लाइन में लगा रहा, मैं वहीं कुर्सी पर बैठा इंतजार करता रहा, लेकिन मेरा नंबर नहीं आया। दूसरे दिन दिखाने के लिए लखनऊ में कमरा लेना पड़ा। उसके पैसे देने पड़े, खाने-पीने का खर्चा लगा। इससे अच्छा कि प्राइवेट में दिखाओ, फीस लगेगी, लेकिन न दौड़-भाग न रुकने का खर्चापानी।”

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देश में सरकारी अस्पतालों की संख्या 19,817 और निजी अस्पतालों की संख्या 80,671 है। साढ़े छह लाख गाँव वाले इस देश में सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या सिर्फ 29,635 है और निजी स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या लगभग दो लाख से ज्यादा है।

सुनीता और नरेश उस भीड़ का हिस्सा हैं, जो आखिरी दम तक कोशिश करते हैं कि सरकारी अस्पताल न जाना पड़े। लोगों को पता है, डेंगू के इलाज में 15 लाख खर्च होकर भी एक बच्ची की जान नहीं बची फिर भी वे निजी अस्पतालों और डॉक्टरों का चक्कर लगाते हैं, जबकि सरकार प्रति महीने औसतन एक व्यक्ति पर 92 रुपये 33 पैसे खर्च करती है। राज्यों में सबसे बेहतर स्थिति हिमाचल की है, जहां एक नागरिक पर हर महीने 166 रुपये 66 पैसे खर्च किए जाते हैं।

इंडियन मेडिकल काउंसिल के मुताबिक, देश में कुल 10,22,859 रजिस्टर्ड एलोपैथिक डॉक्टर हैं। इनमें से सिर्फ 1,13,328 डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। यानि बाकी करीब 9 लाख या तो निजी अस्पताल और इंड्रस्ट्री से जुड़े हैं या फिर निजी प्रैक्टिस करते हैं।

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सरकारी अस्पतालों में बेहतर इलाज के लिए सरकार की कोशिशें जारी हैं, लेकिन जनसंख्या के अनुपात में ध्यान देने की जरुरत है। 2009 में सरकारी बजट 16,543 करोड़ और प्राइवेट हेल्थ केयर का बजट रहा 1,43,000 करोड़ रुपये। 2015 में सरकारी बजट हुआ 33,150 करोड़ का और प्राईवेट हेल्थ केयर का बजट 5,26,500 करोड़ हो गया। 2017 में सरकार का बजट है 48,878 करोड़ तो प्राइवेट हेल्थ केयर बढ़कर हो गया 6,50,000 करोड़ रुपये हो गया।

लेकिन हेल्थ केयर से जुड़ी इंडस्ट्री कहीं तेजी से बढ़ रही है। बदलती जीवनशैली और निजी अस्पतालों के चलते हेल्थकेयर सेक्टर कमाई और रोजगार देने के मामले में भारत का सबसे बड़ा क्षेत्र है। इंडियन ब्रांड इक्विटी फाउंडेशन की वेबसाइट के मुताबिक चिकित्सा से जुड़ी इंडस्ट्री का कारोबार 2017 में करीब 16 हजार करोड़ (160 बिलियन यूएस डॉलर) को छू जाएगा वहीं 2020 तक यह 280 बिलियन अमेरिकी डॉलर ( करीब 28 हजार करोड़ रुपए) होगा।

अस्पताल प्रशासन सरकारी अस्पतालों में लंबी लाइनों और जुगाड़ के आरोप से इत्तेफाक नहीं रखता। केजीएमयू के कुलपति प्रो. एमएलबी भट्ट बताते हैं, “ लोगों को सरकारी अस्पतालों पर ज्यादा भरोसा है, इसलिए लाइनें लंबी हैं। हमारे यहां 90 फीसदी बिना जान पहचान के लोग आते हैं, और उनका इलाज अच्छे ढंग से होता है, लेकिन हमारा वीआईपी कल्चर वाला देश है तो 10 फीसदी जनता सिफारिश लगाने की कोशिश करती है। लेकिन हम मरीज की जरुरत देखते हैं।’

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हालांकि केजीएमयू के कुलपति निजी अस्पतालों की भूमिका को भी जरुरी बताते हैं, “प्राइवेट अस्पतालों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि सरकारी संस्थानों से 50 प्रतिशत मरीज भी नहीं देखे जा सकते, लेकिन निजी अस्पतालों ने इसे महज व्यवसाय बना लिया गया है यह बहुत गलत है ऐसा नहीं होना चाहिए।”

निजी और सरकारी अस्पतालों में भीड़ की वजह ग्रामीण स्तर पर कमजोर सुविधाएं

भारत में ग्रामीण स्तर पर कमजोर स्वास्थ्य सुविधाओं को ग्रामीणों की सेहत, कमाई और खुशहाली सभी में अड़ंगा माना जाता है। स्वास्थ्य नीति के तहत फरवरी 2014 में प्रति 30 हजार की जनसंख्या पर दो स्वास्थ्य प्राथमिक केंद्रो के बीच की दूरी पांच किमी तय की गई। इसके अलावा प्रति एक लाख की जनसंख्या पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की स्थापना की गई लेकिन फिर भी स्वास्थ्य व्यवस्था के ऐसे हालात हैं।

अस्पतालों का लाइसेंस खत्म करना समाधान नहीं

मेदांता अस्पताल के प्रमुख नरेश त्रेहान ने आज तक को दिए गए इंटरव्यू में कहा कि जल्द से जल्द चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े अस्पतालों के लिए केंद्र सरकार को जीएसटी की तर्ज पर ही एक यूनिफार्म नियम बनाना चाहिए और इसमें सभी स्टेक होल्डर्स से बातचीत करनी चाहिए। साथ ही मुनाफे का प्रतिशत भी तय कर दिया जाना चाहिए, चाहे वो 15 फीसदी ही क्यों न हो।

अस्पतालों का लाइसेंस खत्म करना या उन्हें बंद करना इस समस्या का समाधान नहीं है बल्कि दोषियों पर कार्रवाई की जानी चाहिए और ऐसे कानून बनाने चाहिए जिसमें गड़बड़ी की गुंजाइश कम हो।

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