पांच स्टेज में होता है ब्रेेन वॉश, तब बनते हैं आत्मघाती हमलावर
पिछले कुछ दशकों में अमेरिका से लेकर कश्मीर, इराक से लेकर अफगानिस्तान में जितने बड़े हमले हुए उनमें आत्मघाती या फिदाइन शामिल रहे हैं। इस बार पुलवामा में सीआरपीएफ बटालियन पर ऐसा ही आत्मघाती हमला किया गया।
Manish Mishra 15 Feb 2019 12:46 PM GMT
लखनऊ। पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले में शहीद सीआरपीएफ के 42 जावानों की मौत से पूरे भारत में गुस्सा है। इस आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ली है। वहीं जैस-ए-मोहम्मद जिसके सरगना मसूद अजहर को कंधार विमान अपहरण के बाद रिहा किया गया था। जैस-ए-मोहम्मद ने ही कश्मीर में आत्मघाती बम हमले कराने शुरू किए। कैसे बनते हैं ये आत्मघाती हमलावर? कैसे दी जाती है उनको ट्रेनिंग? कौन होते हैं ये सिरफिरे जो अपनी जान देने में फख्र महसूस करते हैं।
पिछले कुछ दशकों में अमेरिका से लेकर कश्मीर, इराक से लेकर अफगानिस्तान में जितने बड़े हमले हुए उनमें आत्मघाती या फिदाइन शामिल रहे हैं। इस बार पुलवामा में सीआरपीएफ बटालियन पर ऐसा ही आत्मघाती हमला किया गया। जिस आतंकी ने आईईडी ब्लास्ट किया वह एक युवा था।
यह आतंक का एक नया चेहरा बन के उभर रहे हैं, जो लोगों की जान लेना इस्लाम का परचम लहराना मानते हैं, इसके लिए वो अपनी कुर्बानी को खुशनसीबी मानते हैं।
आत्मघाती दस्ते बनाने में तालिबान सबसे आगे है, उसने बच्चों को इसके लिए सबसे अधिक उपयोग किया। तालिबानी बच्चों को आत्मघाती हमलावर बनाने इस पर डाक्यूमेंट्री बनाने के लिए पाकिस्तानी मूल की पत्रकार और फिल्म निर्माता शरमीन आबैद-चिनाय ने काफी रिसर्च की और जिसके बाद उनकी इस डाक्यूमेंट्री को आस्कर अवार्ड से नवाजा भी गया।
फिल्म निर्माता शरमीन ने बताया है कि अपनी डाक्यूमेंट्री रिसर्च के दौरान वो उन बच्चों से मिलीं जो आत्मघाती बम बनने के लिए स्कूल में दाखिल हुए। शमरीन ने समझाया है कि कैसे बच्चों को तालिबानी आत्मघाती हमलावर बनाने के लिए कड़ी ट्रेनिंग देते हैं?
बच्चों को आत्मघाती हमलावर बनाने की प्रक्रिया को पांच भागों में बांटा जा सकता है-
पहला चरण :
तालिबानी लोग बड़े परिवार के उन बच्चों को तलाशते हैं, जो गरीब होते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। तालिबानी लोग इन बच्चों के माता-पिता से बच्चों को खाना, कपड़ा और रहने की जगह देने का वादा करते हैं। इसके बाद इन बच्चों को सैकड़ों मील दूर एक मदरसे में ले जाया जाता है।
दूसरा चरण :
इन मदरसों में बच्चों को कुरान पढ़ाई जाती है, जो कि अरबी में होती है, जिसे ये बच्चे न तो समझते हैं न ही बोल सकते हैं। वो अपने मौलवी की ही बातों पर पूरी तरह से भरोसा करते हैं। बच्चों को न्यूजपेपर पढ़ने, रेडियो सुनने, दूसरी कोई किताब भी नहीं पढ़ सकते जिसे मौलवी ने पढ़ने के लिए न बोला हो। अगर कोई बच्चा इन नियमों को नहीं मानता है तो उसे कड़ी सजा दी जाती है। इस तरह से बाहरी दुनिया से इन बच्चों को पूरी तरह से काट दिया जाता है।
तीसरा चरण :
इन बच्चों को सिखाया जाता है कि जिस दुनिया में वो रहते हैं उससे नफरत करें। इन बच्चों को मारा-पीटा जाता है, इन्हें खाना अच्छे से नहीं दिया जाता, न ही खेलने को दिया जाता है। इन्हें एक बार में आठ घंटे कुरान पढ़ने के लिए कहा जाता है। एक तरह से इन्हें कैदी बना कर के रखा जाता है। वे न तो घर जा सकते हैं न भाग सकते हैं। इनके माता-पिता इतने गरीब होते हैं कि वापस ले भी नहीं जा सकते।
चौथा चरण :
तालिबान के पुराने सदस्य इन बच्चों से मारे गए आतंकियों के चर्चित किस्सों के बारे में बात करते हैं। वो इन बच्चों को बताते हैं कि कैसे और कब उन आतंकियों की मौत हुई, उन्हें शहद और दूध की झीलों से स्वागत किया गया होगा, कैसे जन्नत में 72 कुवांरी लड़कियां उनका इंतजार करती हैं। वहां कैसा अच्छा खाना होगा? और कैसे यह गौरव उनके आस पड़ोस के लोगों में उनकी हीरो की छवि बनाएगा। दरअसल इसी समय बच्चों का ब्रेन वाश शुरू हो चुका होता है।
पांचवां चरण :
इस दौरान बच्चों को जो वीडियो दिखाए जाते हैं, उनमें इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में महिला, पुरुष और बच्चों को मरते दिखाया जाता है, इसका मूल मंत्र होता है कि जो पश्चिमी ताकते हैं वो आम नागरिकों की चिंता नहीं करतीं, इस तरह से जो शहरों और कस्बों में रहते हैं ओर सरकार को सपोर्ट करते हैं, जो पश्चिमी ताकतों के लिए काम करती है, उनके लिए यह ठीक है। इस तरह रस्मी तौर पर ये बच्चे अब आत्मघाती बम बनने को तैयार हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें बताया गया होता है कि यही सबसे अच्छा तरीका है इस्लाम का परचम लहराने का।
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