फॉलोअप स्टोरी : लॉकडाउन के एक साल बाद कितनी बदली एक मजदूर परिवार की जिंदगी?

लॉकडाउन के पहले दिन 25 मार्च 2020 को गाँव कनेक्शन की टीम लखनऊ में फुटपाथ पर रहने वाले एक मजदूर परिवार से मिली थी। एक साल बाद गाँव कनेक्शन ने इस परिवार का फॉलोअप किया। इस दौरान इस परिवार ने काफी कुछ खो दिया, परिवार के मुखिया की मौत हो गई, फुटपाथ भी चला गया ... जानिए और क्या क्या बदला?

Neetu SinghNeetu Singh   26 March 2021 5:18 AM GMT

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नीतू सिंह/दिवेंद्र सिंह

लखनऊ। फुटपाथ पर रहने वाली जानकी देवी मोबाइल में वीडियो देखने के बाद फूट-फूट कर रो रहीं थी ...

मैली और फटी साड़ी में अपने आंसुओं को पोछते हुए वो बोली, "वो तो रहे नहीं, आज उनकी आवाज़ सुनकर लगा कि वो हैं। अच्छा हुआ आपने वीडियो दिखाया हमारे पास तो उनकी एक फोटो तक नहीं है।'

ये आवाज़ जानकी देवी के 65 वर्षीय पति रामसूरत की थी, जिनका वीडियो लॉकडाउन के पहले दिन 25 मार्च 2020 को गाँव कनेक्शन ने शूट किया था। उस वीडियो में रामसूरत बोल रहे थे कि 21 दिन सब कुछ बंद रहेगा तो इतना बड़ा परिवार कैसे पालेंगे? लॉकडाउन और गरीबी से लड़ते हुए उनका परिवार तो किसी तरह अपनी गुजर-बसर कर रहा है, लेकिन वीडियो शूट के चौथे महीने अप्रैल 2020 में लंबी बीमारी के बाद उनकी मौत हो गई। इस परिवार के पास रामसूरत की कोई फोटो तक नहीं हैl ये परिवार कोरोना वायरस का केंद्र रहे चीन के वुहान शहर से 3200 किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में रहता है। इस परिवार में छोटे-बड़े मिलाकर कुल 23 लोग हैं।

पिछले साल का पूरा वीडियो यहाँ देखें :

अपनी बहू और पोती के साथ दोपहरी में झोपड़ी के अंदर बैठी जानकी देवी पति की मौत के बाद अपनी आपबीती बता रही थीं, "जब से ये मरे हैं दिमाग को कुछ सूझता नहीं है क्या करें? अब बच्चों की कमाई से ही रोटी पानी चल रही है। अभी तो इतनी गर्मी और गरम हवा नहीं चल रही है लेकिन जेठ बैसाख में (मई-जून) हालत खराब हो जाती है। तब ये झोपड़-पट्टी भट्टी बन जाती है। दोपहर में इधर-उधर बिरवा (पेड़) की छांहीं तलासते रहते हैं। कोरोना में झोपड़ी तोड़ दी गयी, अब एक ही झोपड़ी बची है, रात में तिरपाल तानकर सो जाते हैंl"

एशिया के सबसे बड़े पार्क जनेश्वर मिश्रा पार्क के सामने और रेलवे लाइन के बीच जो सड़क किनारे उबड़-खाबड़ जगह है वहीं पर जानकी देवी का परिवार रहता है। रोड के दूसरी तरफ इन्हीं की तरह कुछ और परिवार रहते हैं। लखनऊ विकास प्राधिकरण की सख्ती के बाद ये लोग रात में ही तिरपाल लगाते हैं। दिन में इस परिवार के कुछ लोग ई-रिक्शा चलाते हैं, कुछ लोग मजदूरी करते हैं, जबकि घर की एक महिला चाय की टपरी लगाती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च 2020 को रात 8 बजे ये घोषणा की कि कोविड-19 के संक्रमण से बचाव के लिए आज रात 12 बजे से पूरे देश में 21 दिन का लॉकडाउन रहेगा l अचानक से हुए लॉकडाउन से देश के लाखों मजदूर परिवार इस बड़ी बंदी के लिए आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। तमाम ऐसे परिवार जिनके लिए दो वक्त की रोटी रोज कुआं खोदकर रोज पानी पीने जैसी थी उनके ऊपर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। बंदी में इन मजदूर परिवारों के लिए एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा है।

इनके पास रहने के लिए न तो सुरक्षित घर थे और न ही 21 दिन का राशन।

ये हैं जानकी देवी जिनके पति का लॉकडाउन में देहांत हो गया. फोटो : देवेन्द्र ठाकुर

जिस ई-रिक्शा को चलाकर रामसूरत के बेटे घर चलाते थे उसी पर बैठकर ये लोग बचा खुचा सामान लेकर लखनऊ से करीब 200 किलोमीटर दूर बहराइच जिले के बनकटवा इलाके में अपने गाँव चले गए। बहराइच भारत के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है।

"हम लोग लॉकडाउन खत्म होने के बाद अपने गाँव चले गये थे। वहां इनकी तबियत खराब हो गयी l इतना पैसा नहीं था कि हम इनका इलाज महंगे अस्पताल में करवा पाते, कुछ दिन बीमार रहे फिर मर गये, "पल्लू से आंसू पोछते हुए 61 वर्षीय जानकी देवी अपने पति की मौत का कारण बता रही थीं।

ये परिवार मूलतः यूपी के बहराइच जिले के नानपारा ब्लॉक के बनकटवा गाँव का रहने वाला है l रोजगार की तलाश में लगभग 20 साल पहले ये लखनऊ आ गये थे। वो शहर जहाँ जानकी देवी के पोता-पोती पले बढ़े l दिहाड़ी मजदूरी, चाय की दुकान और ई-रिक्शा चलाकर ये परिवार अपनी गुजर-बसर कर रहा था। इनके पास कभी इतना पैसा नहीं रहा कि ये किराए का घर लेकर रह सकें, इसलिए लखनऊ के गोमतीनगर एरिया में बीते कई वर्षों से फुटपाथ पर रहने को मजबूर हैं l अभी जहाँ ये रहे हैं वो जनेश्वर पार्क का गेट नम्बर-2 है l

जानकी देवी के छह बेटे हैं जिसमें पांच की शादी हो चुकी है। बेटा-बहू, पोते-पोतियाँ मिलाकर इस परिवार में 25 मार्च 2020 को फुटपाथ पर कुल 23 सदस्य रह रहे थे, अभी इस परिवार के कुल 15 सदस्य यहाँ रह रहे हैं, दो बेटे, बहू और उनके बच्चे अभी गाँव चले गये हैं l

ये परिवार लगभग 20 वर्षों से फुटपाथ पर रहने को मजबूर है, अब इनके पास केवल एक ही झोपड़ी बची है. फोटो : नीतू सिंह

जानकी देवी के दूसरे नंबर के बेटे पप्पू वर्मा (32 वर्ष) अपने ई-रिक्शा की तरफ इशारा करते हुए कह रहे थे, "शुरुआत के तीन चार महीने तो रिक्शा चलाया ही नहीं l जब लॉकडाउन खत्म हुआ तब फिर से चलाना शुरू किया पर आमदनी अब न के बराबर होती है। किराए का ई-रिक्शा है, भाड़ा देकर दिन के 100 रुपए भी बच जाएं तो बड़ी बात है। अब जैसे-तैसे पेट भर रहा है, पहले हम सब भाई मिलकर इतना कमा लेते थे खाने के बारे में सोचना नहीं पड़ता था। कर्जा भी 50,000 रुपए का ले लिया है, चुका नहीं पाए हैं। अभी पेट भरना ही मुश्किल हो रहा है तो कर्जा कैसे चुकाएंगे?"

कर्ज़ की कहानी कुछ ऐसी है कि इनके गांव का एक व्यक्ति लखनऊ में ही गार्ड का काम करता है, उनके नाम पर एक बजाज कंपनी से लोन लिया है। जिसकी किस्त 3512 रुपए महीने की है, पूरा परिवार मिलकर अभी तक सिर्फ 2 किस्तें दे पाया है। क्योंकि जो कर्ज़ लिया था उसका बड़ा हिस्सा लॉकडाउन के दौरान इधर-उधर से लिए गए कर्ज़ को चुकाने में चला गया।

लॉकडाउन के बाद सरकार ने इन मजदूरों के बैंक खाते में कुछ महीने आर्थिक मदद की थी। महिलाओं के खाते में 500 रुपए दिए गये थे l कई महीने गाँव में राशन भी निशुल्क में दिया था l इस परिवार के अनुसार शुरूआत के दो तीन महीने इन्हें राशन की मुश्किल नहीं हुई पर बाद में इन्हें खाने के लिए कर्ज लेना पड़ा। थोड़ा-थोड़ा कर्ज लेते-लेते इस परिवार के पास 50,000 रुपए का कर्जा हो गया है।

पिछले साल की ये फोटो है. तस्वीर में बैठे रामसूरत का अप्रैल 2020 में देहांत हो गया. फोटो : नीतू सिंह

पप्पू की पत्नी ज्ञानवती (31 वर्ष) अपनी चाय की दुकान पर बैठी थीं वो बता रही थीं, "अब पहले जैसी आमदनी नहीं होती। दिन में 400-500 रुपए की बिक्री हो जाती है, लागत निकालकर 100-150 ही बचता है। बड़ा परिवार है खाना खर्चा भी बहुत होता है। गाँव में और यहां कहीं भी हमारा राशनकार्ड नहीं बना है। बैंक में पैसे भी नहीं आये। कुछ लोगों ने शुरूआत में कई बार राशन दिया उसी से गुजर-बसर हुई l"

एक साल पहले इस परिवार के पास चार-पांच झोपड़ी थीं, अभी केवल एक झोपड़ी बची है। ज्ञानवती की पांचवें नंबर की बहू सीमा देवी (20 वर्ष) अपने छह महीने के बच्चे को गोद में लिए हुए एक पन्नी में रखे चावल दिखाते हुए कह रही थीं, "एक किलो चावल है इसमें, रोज इतनी ही आमदनी होती है जिससे बस पेट भर पाता है। पति किराए पर ई-रिक्शा चलाते हैं। गाँव से शहर इसलिए आ गये क्योंकि वहां हमारे पास खेत नहीं हैं, राशनकार्ड भी नहीं बना है। लॉकडाउन में कुछ दिन ही गाँव में रहे फिर लखनऊ आ गये।"

इस कोविडकाल में भारत में हुए लॉकडाउन से सिर्फ इस परिवार की ही मुश्किलें नहीं बढ़ीं, बल्कि इनकी तरह दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लाखों परिवार इस जद्दोजहद से जूझते रहे कि आखिर उनके परिवार का इस स्थिति में भरण-पोषण कैसे होगा? इस बात को नाकारा नहीं जा सकता कि सरकार के प्रयासों से एक बड़ी आबादी को राहत पहुंची, लेकिन एक बड़े तबके की बेचैनियां कम नहीं हुई l

गांव कनेक्शन की टीम जब इस परिवार से मिलकर लौटने लगी तो जानकी देवी बड़ी उम्मीद से बोलीं, "मैडम हो सके तो अपने मोबाइल से इनकी (पति) एक फोटो निकालकर मुझे दे देना, बाकी हमारी जिंदगी तो ऐसे ही रोते-घिसटते हुए कटनी है ..."

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