'उस हाथी के धैर्य ने मेरी बंद आंखें हमेशा के लिए खोल दीं'

तब तक मुझे नौकरी में आये भी कम ही समय हुआ था, सो मेरे अंदर का अनुभवहीन सिपाही झुंझला कर बोला, "इस कम्बख़त हाथी को कोई और जंगल नहीं मिला था जो चरही रेलवे स्टेशन चला गया, ज़रा सी भी बुद्धि नहीं थी इसमें!"

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उस हाथी के धैर्य ने मेरी बंद आंखें हमेशा के लिए खोल दीं

शैलेंद्र कुमार,

बात 23 सितंबर 2018 के सुबह 6 बजे की है। मेरे फ़ोन पर किसी का कॉल आया, कोई नया नंबर था। फ़ोन रिसीव करते ही दूसरी ओर से व्यक्ति ने धमकी भरे स्वर में कहा, "कहाँ हैं सिपाही जी, चरही स्टेशन के पास एक हाथी आ गया है, जल्दी से उसको वहां से हटाइये, नहीं तो आपका हाथी किसी के जान-माल को नुक़सान पहुंचाएगा, या लोग उसको नुक़सान पहुंचाएंगे। दोनो ही हालत में नौकरी आपकी खतरे में पड़ेगी। नया नया नौकरी है, ध्यान दीजिए।"

मैं भी सोच में पड़ गया। हाथी 'मेरा' (यानी वन विभाग का) कैसे हो गया, हाथी और अन्य वन्यप्राणी तो स्वछन्द जीव हैं, किसी सरकारी विभाग की संपत्ति कब से हो गए, अलबत्ता मैंने बचपन की किताबों में पढ़ा था कि देश के वन एवं वन्यप्राणी सम्पदा पूरे देश की धरोहर है, हर भारतीय की धरोहर है। लेकिन ये बात भी सही थी कि फिलहाल यह हाथी मेरे ही उप वन परिसर में आ धमका था।

तब तक मुझे नौकरी में आये भी कम ही समय हुआ था, सो मेरे अंदर का अनुभहीन सिपाही झुंझला कर बोला, "इस कम्बख़त हाथी को कोई और जंगल नहीं मिला था जो चरही रेलवे स्टेशन चला गया, ज़रा सी भी बुद्धि नहीं थी इसमें!"

बहरहाल मैं तुरंत ही अपने एक सहयोगी वनरक्षी अजय कुमार के साथ उस जगह पर पहुँचा। इतनी देर में घर से मां के फ़ोन आने लगे, रविवार का दिन था, आधिकारिक तौर पर छुट्टी का दिन, सो वह सुबह के नाश्ते पर मेरा इंतज़ार कर रहीं थीं। अब क्या समझाता उनको, सो झूठ-मूठ कह दिया कि दोस्त के साथ बाज़ार आया हूं, आप लोग खा लें मैं थोड़ी देर में आता हूं।


आ तो गया हूं, लेकिन हाथी को भगाएंगे कैसे...

इधर स्टेशन पहुंच कर मन ही मन सोच रहा था कि आ तो गया हूं, लेकिन हम दोनों हाथी को भगाएंगे कैसे, वह कोई दूध पीता बच्चा तो है नहीं, जिसे चरही स्टेशन से उठा के किसी घने जंगल में छोड़ आऊं। स्टेशन पर देखा तो वहां तो मानो मेला लगा हुआ था। कुछ महापुरुष दूर से ही गजराज की पूजा-अर्चना कर रहे थे, तो कुछ 'बहादुर युवा' वीडियो और सेल्फी लेने के लिए उसके समीप जाने की कोशिश कर रहे थे।

कुछ माताएँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को मुफ़्त में हाथी दिखाकर चिड़ियाघर का टिकट बचाने में लगीं थीं। हद तो पत्रकारों ने कर दी थी, उसी जगह पर हाथी की एक-दो तस्वीरें फेसबुक और व्हाट्स ऐप पर भेजकर शीर्षक भी दे दिया - "जंगली हाथी स्टेशन में घुसा, वन विभाग नदारद"।

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वहां सभी परेशान थे। ग्रामीण परेशान थे कि अगर ये हाथी यहां रुक गया तो उनका अपने गाँव के सामने वाले जंगल में जाना दूभर हो जाएगा, कहीं हाथी बच्चों या घर-द्वार को नुक़सान ना पहुँचा दे। रेलवे परेशान था कि ट्रैक पर हाथी आ गया है जिस कारण उसके कोयले की ढुलाई और ट्रेनों का आवागमन बाधित हो रहा था। वन विभाग, यानी कि मैं, परेशान था कि इस हाथी को हटाएँ कैसे और क्या इस कम्बख़त को रविवार के दिन ही आना था, सारे प्लान चौपट कर दिए इसने।

हम में से किसी ने ये नहीं सोचा

इस सब के बीच हम में से किसी ने ये नहीं सोचा की वह गजराज कितने परेशान होंगे जो अपने समूह से दूर, भटक कर, इस अनजान जगह पहुँच गए थे। लेकिन ठहरिये जनाब, क्या वह सही में भटके थे, क्या यह सही में अनजान जगह थी उनके लिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह तो उसी स्थल पर थे जहां उनके दादी-नानी, उनके पूर्वज, या शायद वह खुद कभी पहले, आया करते थे? हम सभी को इस प्रश्न का उत्तर मन ही मन पता था।

यह गजराज किसी मानवीय बस्ती में अतिक्रमण करके नहीं आये थे, अपितु ये चरही स्टेशन एवं रेलवे साइडिंग (जहां से कोयले को दूर दूर तक माल गाड़ियों द्वारा भेजा जाता है) आज जहां खड़े हैं वहां कभी घने हरे भरे वन हुआ करते थे। अनेक प्रकार के वन्यजीवों से भरपूर, स्वच्छ नदी-नालों से सम्पूर्ण, वन जो किसी ज़माने में पूरी उत्तरी-करणपुरा घाटी में फैले हुए थे। परंतु फिर आया 'विकास', और धीरे धीरे वनों की हरियाली को कोयले के स्याह रंग ने ढक दिया।

विकास की ट्रेन कुछ ऐसी दौड़ी की उसके सामने ना हाथी टिके ना बाघ, और इस ट्रेन पे सवार हम लोग भी बदल गए। जो जानवर खदानों की भेंट चढ़ने से बच गए उनका हमने शिकार कर लिया, फिर क्या हिरण और क्या बाघ और तत्पश्चात उन बचे-खुचे जंगलों को हमने बेच-खाया। जहां छोटे और मध्यम आकार के वन्य जीव लुप्तप्राय हो गये,

गजराज के समझदार स्वभाव ने अचंभित कर दिया

वहीं दूसरी ओर हाथी जैसे भीमकाय जानवर इधर-उधर भटकने को मजबूर हो गए। एक जंगल से दूसरे जाने के उनके रास्तों (elephant-corridor) में अब घर, खेत-खलिहान, खदानें, उद्योग, गाँव और शहर आ गए। आखिर ये बेचारे गजराज जाएं कहां?

इन सभी उधेड़-भुन के बीच हम सोच रहे थे कि अब आगे क्या करें। परन्तु गजराज के शांत और समझदार स्वभाव ने हम सब को अचंभित कर दिया। उस हाथी ने बिना कोई नुक़सान किये स्टेशन से निकलने का रास्ता ढूंढ निकाला। अभी बेचारा कुछ दूर ही गया था की एक बार फिर 'विकास' उसके रास्ते में आ गया - एनएच-33।

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जबतक हाथी एनएच-33 के बिल्कुल क़रीब पहुँचता तब तक मैं और अजय भी खतरा भांप कर वहां पहले ही पहुँच गए थे। उस समय मैं किसी अनहोनी की आशंका में सड़क के एक ओर बीचों-बीच जा खड़ा हुआ, और सड़क के दूसरी ओर बीचों-बीच मेरे वनरक्षी दोस्त। हम लोग चिल्ला-चिल्ला कर गाड़ियों को रुकने के लिए बोलने लगे। कुछ ने गाड़ियां रोकीं, वहीं कुछ सिरफिरे लोग हमलोगों के बीच से गाड़ियां निकालने लगे।


यह दृश्य बहुत ही दुर्लभ और चकित करने वाला था

एक महानुभाव ने जान बूझ कर अपना ट्रक आगे करके लगा दिया। तब तक उनमें से किसी को पता नहीं था कि उन्हें क्यों रोका जा रहा था। तभी वह विशालकाय हाथी एनएच-33 पर आ गया। दृश्य बहुत ही दुर्लभ और चकित करने वाला था। उस समझदार हाथी ने बिना किसी को नुक़सान पहुंचाए, बिना सड़क के डिवाइडर को तोड़े, हाईवे पार कर लिया। तब जाकर मेरी जान में जान आयी।

वहां से हम दोनों दोस्त मोटरसाइकिल से हाथी के रास्ते में आगे आने वाले हर एक गांव में पहले से जानकारी देते जा रहे थे ताकी कोई अनहोनी ना हो जाये। रास्ते में हाथी से छेड़छाड़ करने की कोशिश करने वाले एक युवक की खूब डांट-फटकार भी की और ऑफ्फेन्स काटने की धमकी देकर भगाया। अब तक गांवों की भीड़ भी ढोलक बजा-बजाकर हाथी को अपने गांव से दूर करने में लग गयी थी।

इसी सब मशक्कत के बीच बहुत मुश्किल से आखिरकार हम हाथी को माण्डू के जंगलों की ओर पहुंचा आए। अबतक शाम हो गयी थी और हम दोनों बहुत भूखे थे, अतः हम लोग अपने वन परिसर चरही आ गए।

हाथी के विवेक और दर्द ने अंदर तक झकझोर दिया

उस समय तक मुझे हाथी के विवेक और उसके दर्द ने अंदर तक झकझोर दिया था। अपने छोटे से कार्यकाल में किसी जंगली हाथी को ऐसे करीब से पहली बार देखा था मैंनें, परंतु पहली बार में ही इस प्रकार भावनात्मक तौर पर जुड़ जाऊंगा ये कभी सोचा ना था। कहने को तो ज़मीन पर रहने वाला सबसे बड़ा स्तनपायी जीव है हाथी, शारीरिक रूपरेखा और बनावट में मनुष्य से कहीं अधिक बलशाली, लेकिन हम मनुष्यों ने और मानवीय संस्कृति ने अपने सामने कितना निरीह और बलहीन बना दिया था उसको।

दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर गजराज, अपने घर को भी बचाने में असमर्थ गजराज, और ऊपर से कहीं मनुष्यों को दिख जाएं तो तमाशबीन भीड़ से पीड़ित। फिर भी इतने शांत, फिर भी इतने सहज, इतने सहनशील। शायद इसीलिए जहां एक तरफ हम मनुष्यों की जनसंख्या में तेज़ी से वृद्धि होती चली आ रही है, वहीं हाथियों की जनसंख्या परस्पर घटती जा रही है।

झारखंड राज्य में ही देख लें तो हाथियों की संख्या पिछले जनगणना के 688 के मुक़ाबले 2017 में घट कर 555 रह गयी है। वन विभाग के आला अधिकारियों एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों ने इसके कई कारण दिए जिनमे से प्रमुख हैं उनके निवास स्थलों (habitat) पे अवैध कब्ज़ा, विकास के नाम पर उनके पर्यवासों में बन रहे कल-कारखाने और सड़कें, खनन की भेंट चढ़ रहे जंगल और बंगाल-झारखंड सीमा पर खोदी जा रही ट्रेंच।

ऑफिस पहुंचा तो फिर फोन की घंटी बजी

चरही वन परिसर के आफिस में बैठे और दिन भर की भाग-दौड़ के बाद सुस्ताते हुए मन इन्हीं सब बातों में लगा हुआ था कि फ़ोन की घंटी फिर बजी। उधर से आवाज़ आयी "सिपाही जी, जल्दी आइये हाथी जंगल पार करने के क्रम में कोयला खदान में गिर गया है"। इधर मैं कुछ समझ पाता उससे पहले फिर फ़ोन घनघनाया।

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दूसरी ओर लाइन पे मेरे विभाग के एक उच्च अधिकारी थे, उन्होंने भी हाथी के खदान में गिरने की खबर दोहराई। वह कुछ अपशब्द भी कह रहे थे उस हाथी को, क्योंकि उन महानुभाव का काम जो बढ़ गया था - रात बीत जाती उस हाथी को निकालने में और यदि वो मर जाता तो सभी को अपनी फ़ज़ीहत महसूस होती। यह सब सुन के मेरी हाथी के प्रति सहानभूति अब पीड़ा में बदल गयी। बार-बार वो सीधे सरल गजराज मेरी आँखों के सामने आ रहे थे।

इसी सब उधेड़-बुन में मेरे मन के किसी कोने से आवाज़ आयी - क्या गणेश भगवान, जब हमने आपको जंगल तक सुरक्षित पहुँचा ही दिया था तो आप फिर खदान की ओर क्यों चले गए जान देने? लेकिन फिर तत्पर ही ख्याल आया - क्या वह परेज खदान सदियों से वहीं थी? अंदर से जवाब आया - नहीं।

हमारे बनाए गड्ढे में जा गिरा

जहां आज सेंट्रल कोलफील्डस लिमिटेड और टाटा स्टील की दर्जनों विशालकाय खदाने हैं वहां कभी हरे-भरे जंगल हुआ करते थे जो इस हाथी के पूर्वजों और अन्य वन्यप्राणियों के विचरणस्थल थे। हम मनुष्यों ने अपने विकास के लिए इन आवासों पर अतिक्रमण किया, जंगल नष्ट किये, बड़ी-बड़ी खदानें खोद डालीं, और अब जब उस पुराने जंगल का प्राणी अपने ही पुराने घर वापस आया और हमारे बनाये गड्ढे में जा गिरा तो झुंझला कर चिल्लाने लगे कि हाय-हाय हाथी 'हमारी खदान' में आ गया है। बहरहाल, हम लोग खदान के लिए फिर रवाना हो चले।

जब हम लोग खदान पर पहुँचे तो एक ख़ुशी और राहत की खबर मिली - गजराज ने अपने विवेक का प्रयोग करके किसी प्रकार अपने आप को खदान के गड्ढे से खुद ही निकाल लिया था और वापस जंगल की ओर निकल पड़े थे। मैने एक राहत की सांस ली और मन ही मन छोटी सी प्राथना की अब ये गजराज किसी और मुश्किल में न पड़ें।

शायद मैं इस घटना का कभी ज़िक्र भी ना करता अगर वनपाल प्रशिक्षण संस्थान, चाईबासा में हमें वन्यप्राणी संरक्षण पढ़ाने आये रज़ा काज़मी सर को मैं वो फ़ोटो न दिखाता जिसमें गजराज चरही स्टेशन पर पटरियों के बीच खड़े हैं जिसे देखकर सर ने मुझे इस पूरे क़िस्से को अपनी ज़ुबानी लिखने को कहा। वह तस्वीर बयान करती है कि कैसे मानव हाथियों के रहवास, उनके जंगलों, को उजाड़ रहा है और जंगल के गजराज उन पटरियों के जंगल में फंस कर अपनी दुर्दशा बयान कर रहे हैं।

जहाँ एक ओर हम वनों और वन्यप्राणियों की घटती संख्या का रोना रोते हैं वहीं दूसरी ओर विकास-विकास का नारा देकर रेलवे मार्ग, सड़क मार्ग, खनन, कारखानों इत्यादि के नाम पर उनके पहले ही सीमित बचे आवासों को नष्ट कर रहे हैं। और इस विनाश की क़ीमत अकेले हाथी ही नहीं चुका रहे, हम मनुष्य भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर चुका रहे हैं।


इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष तेजी से बढ़ा

जहाँ प्रदूषण की बढ़ती समस्या अब जग-ज़ाहिर होकर एक विश्व समस्या बन चुकी है वहीं प्रत्यक्ष तौर पर इंसान और हाथियों के बीच संघर्ष अत्यंत तेज़ी से बढ़ा है। जहां छत्तीसगढ़, बंगाल और ओड़िसा में आये दिन मानव-हाथी संघर्ष की खबरें अब आम हो चलीं हैं, वहीं एक आंकड़े के मुताबिक केवल झारखंड में ही 2017 में 62 लोगों की मौत हाथियों के हमले में हुई है, यानी पिछले वर्ष हर 6 दिन में एक व्यक्ति इस संघर्ष की भेंट चढ़ गया। बदले में लोगों ने भी दर्जनों हाथियों को मौत के घाट उतार दिया।

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ग़ौर करने वाली बात ये है कि चाहे इस विकास की अंधी आपाधापी के प्रदूषण जैसे अपरोक्ष परिणाम हों या बढ़ते मानव-वन्यप्राणी संघर्ष जैसे परोक्ष परिणाम, दोनो ही स्थितियों में सबसे अधिक नुक़सान का भोगी वो ग़रीब-ग़ुरबा ही है जिसका इस पूरे खेल में सबसे कम हस्तक्षेप है।

मैं क़तई ये नहीं कह रहा कि विकास नहीं होना चाहिए, विकास हमारे देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए ज़रूरी है, परंतु विकास की परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जिसमें वन और वन्यजीवों के अस्तित्व और उनसे होने वाले अनगिनत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभों का भी हिसाब रखा जाए। और यह सिर्फ़ वातावरण हित की बात नहीं है, यह सब करने में भी हमारा ही स्वार्थ छिपा है क्योंकि ऐसा सतत विकास ही दीर्घावधि में मानव हित की रक्षा करने में सक्षम होगा।

रविवार की उस पूरी घटना और उन गजराज के धैर्य ने मेरी उस समय तक बंद आंखें सदैव के लिए खोल दीं, अब उम्मीद है कि इस लेख के द्वारा उन पटरियों पे फंसे गजराज की पुकार पाठकों तक भी पहुंचेगी और उन्हें सोचने पर मजबूर करेगी।

(लेखक झारखंड के रामगढ़ फॉरेस्ट डिवीजन में फॉरेस्ट गार्ड पद पर तैनात हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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