कचुरा, सीतापुर (उत्तर प्रदेश)। कोविड-19 महामारी की वजह से एक तरफ पूरी दुनिया में डर का माहौल है, वहीं दूसरी ओर आशा कार्यकर्ता मीना देवी की ज़िम्मेदारियाँ पहले से कई गुना बढ़ गई हैं, और वह अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दिन-रात काम कर रही हैं।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के कचुरा गाँव की रहने वाली मीना, देश में दस लाख से अधिक महिला सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का हिस्सा हैं, जिन्हें मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता या आशा के रूप में जाना जाता है। आशा कार्यकर्ताओं को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के ही एक हिस्से के रूप में स्थापित किया गया है। ऐसे समय में जब देश महामारी की दूसरी लहर से जूझ रहा है, आशा कार्यकर्ता फ्रंटलाइन पर आकर मानवता की सेवा कर रहे हैं।
कोविड-19 के इस भयावह समय में सबसे आगे रहकर काम करना मामूली बात नहीं है। एक आशा कार्यकर्ता की जिम्मेदारियां स्वास्थ्य देखभाल सहायता प्रदान करने से कहीं अधिक होती है। आशा कार्यकर्ता में अपने काम को पूरा करने के लिए चतुरता, कूटनीति, संवेदनशीलता और दृढ़ इच्छा-शक्ति का होना बेहद जरूरी है।
40 साल की मीना को ग्रामीणों में कोरोना संबंधित लक्षणों की पहचान करते हुए उन्हें कोविड टेस्ट के लिए मनाना पड़ता है। मरीजों के संपर्क में आने वाले लोगों की पहचान करनी होती है और घर-घर जाकर सर्वेक्षण करना होता है। ये सभी अतिरिक्त काम हैं। इसके अलावा मीना के पास नियमित तौर पर किए जाने वाले काम भी हैं, जिनमें गांव में लोगों की स्वास्थ्य गतिविधियों पर नज़र रखना और गर्भवती महिलाओं का संस्थागत प्रसव करवाना शामिल है।
राज्य की राजधानी लखनऊ से करीब 120 किलोमीटर दूर कचुरा गांव की आबादी करीब 2,000 है।
मीना साल 2006 से यानी लगभग 15 सालों से यह काम कर रही हैं। वे कहती हैं, “आजकल मैं गांव में अपने आसपास हो रही असामयिक मौतों को देख रही हूं, इस वजह से लगातार भय बना रहता है। लेकिन इसके बावजूद मैं अपने घर पर चुपचाप नहीं बैठ सकती।”
चुनौतियों से भरा हुआ है जीवन
मीना कहती हैं कि एक आशा कार्यकर्ता के रूप में उनका जीवन काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “शुरूआत में गाँव की अन्य महिलाओं ने मुझे काम पर बाहर जाने के लिए ताना मारा। यहां तक कि मेरे पति को भी नहीं बख्शा गया।”
दरअसल शुरूआती दो सालों में मीना के पति मीना को काम पर अकेले नहीं जाने देते थे। मीना जहां भी जाती थी, वे उसके साथ ही चक्कर लगाया करते थे। आत्मविश्वास से भरी हुई मीना बताती हैं, “लेकिन धीरे-धीरे चीजें बदल गईं और अब मैं अकेले फील्ड पर जाने लगी हूं, और इसके साथ ही अपना निर्णय लेने और अपना काम खुद करने के लिए स्वतंत्र हूं।”
मीना का दिन सुबह 5 बजे शुरू होता है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “मुझे खाना बनाने, साफ-सफाई करने और अपने परिवार का पेट भरने के लिए जल्दी उठना पड़ता है।” मीना के तीन बच्चे हैं, जोकि अब बड़े हो गए हैं। उनकी एक बेटी की हाल ही में शादी हुई है, 24 साल का एक बेटा बैंक में काम करता है, वहीं 22 साल की एक बेटी कॉलेज में है। मीना के पति किसान हैं। सुबह 9 बजे तक मीना अपने घर का काम खत्म कर लेती हैं, और फिर अपने दिन के काम के लिए गाँव चली जाती हैं।
मीना बताती हैं कि एक आशा कार्यकर्ता के तौर पर उनका प्रत्येक दिन अलग होता है। आजकल महामारी की वजह से कभी-कभी पूरा दिन तनाव से भरा होता है। वे बताती हैं, “मुझे लोगों को कोविड टेस्ट या टीकाकरण के लिए राजी करना होता है, दवाएं वितरित करनी होती है, और कभी-कभी पॉजिटिव मरीजों के घर के दरवाजे पर पोस्टर चिपकाना पड़ता है।” मीना बताती हैं कि पोस्टर चिपकाने की वजह से कई बार उन्हें लोगों के ताने सुनने पड़े हैं। वे कहती हैं, “जब हम ऐसा करते हैं तो घर के मालिक अक्सर विरोध करते हैं और हमसे लड़ाई करते हैं।”
आशा कार्यकर्ताओं के पास कोविड संबंधी जिम्मेदारियों के अलावा कई और काम भी होते हैं। मीना कहती हैं कि उन्हें गर्भवती महिलाओं को डिलीवरी के लिए अस्पताल पहुंचाना होता है, इसी तरह और भी काम होते हैं।
कड़ी मेहनत, लेकिन कोई निश्चित आय नहीं
आशा कार्यकर्ताओं को दिन में सात से आठ घंटे काम करना पड़ता है लेकिन मीना कहती हैं कि इसके बावजूद उनकी कोई निश्चित आय नहीं है। वे बताती हैं, “मुझे एक गर्भवती महिला के डिलीवरी के छह सौ रुपये के लिए नौ महीने तक इंतजार करना पड़ता है।” उन्होंने बताया, “कभी-कभी कुछ महीनों के भीतर गांव में चार से पांच प्रसव हो जाते हैं, लेकिन कई बार तो एक भी नहीं होते।”
महामारी ने देश के सभी दस लाख आशा कार्यकर्ताओं पर काम का बोझ बढ़ा दिया था। हालांकि, महामारी की दूसरी लहर में, ये फ्रंटलाइन महिला कार्यकर्ता उचित पारिश्रमिक के बिना ही काम कर रही हैं। मीना ने कहा, “मानदेय की पात्रता के लिए मुझे एक दिन में कम से कम दस घरों का दौरा करना पड़ता है।”
पिछले साल, केंद्र सरकार ने कोविड-19 महामारी के दौरान काम कर रहे आशा कार्यकर्ताओं समेत सभी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज बीमा योजना शुरू की थी। इस योजना के तहत कोरोना संक्रमण की वजह से मृत्यु के मामले में 50 लाख रुपये का जीवन बीमा कवर दिया जाता है। हालाँकि, कई आशा कार्यकर्ताओं को लगभग एक साल से कोविड प्रोत्साहन राशि नहीं मिली है।
नहीं मिल रही है प्रोत्साहन राशि
मीना शिकायत करते हुए कहती हैं, “स्वास्थ्य विभाग ने आशा कार्यकर्ताओं के लिए प्रोत्साहन राशि के रूप में केवल एक हजार रुपये प्रति माह की घोषणा की है। लेकिन हमें हमारी सुरक्षा के लिए ना तो मास्क दिया गया है, ना ही फेस शील्ड और सैनिटाइटर दिया गया है।”
मीना कहती हैं कि 1,000 रुपए की घोषणा तो की गई है, पर उन्हें अभी तक इसमें से कुछ नहीं मिला है। मीना को पिछले साल, मार्च से जुलाई 2020 तक, पांच महीने के लिए प्रोत्साहन के रूप में 5,000 रुपये मिले थे, जबकि आशा कार्यकर्ताओं के लिए अप्रैल 2021 से छह महीने तक के लिए 1,000 रुपये का मानदेय स्वीकृत किया गया है। यह पैसा अभी तक मीना देवी के हाथ नहीं आया है।
इस कठिन समय में मीना द्वारा की गई कड़ी मेहनत को ग्रामीण भी स्वीकार करते हैं। कचुरा गांव की ग्राम प्रधान कुसुम बाजपेयी ने गांव कनेक्शन को बताया, “आशा कार्यकर्ता गांव के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।”
बाजपेयी कहते हैं, “चाहे स्वास्थ्य और स्वच्छता को लेकर जागरूकता फैलाना हो, घर-घर जाकर स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां देनी हो, टीकाकरण अभियान चलाना हो, प्रसव के दौरान गर्भवती महिलाओं की मदद करनी हो, या महिलाओं के लिए स्वास्थ्य जांच का आयोजन करना हो, इन सभी कार्यों में आशा कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।”
मीना ने मुस्कुराते हुए कहा, “जिन लोगों ने आशा कार्यकर्ता के रूप में काम करने के फैसले को लेकर पीठ पीछे मेरा मजाक बनाया, वे घर पर कोई चिकित्सा समस्या होने पर सलाह के लिए मुझसे ही संपर्क करते हैं। लेकिन मैं उनकी मदद करने से कभी पीछे नहीं हटती।”
मीना देवी सुबह से ही अपने गाँव कचुरा के लोगों को स्वास्थ्य संबंधी सेवाएँ देने के लिए निकलती हैं, और जब तक घर लौटती हैं तब तक लगभग सूर्यास्त हो चुका होता है।
मीना कहती हैं, “मैं घर पहुँचती हूँ, स्नान करती हूँ, अपने पति और बच्चों के लिए शाम का खाना बनाती हूँ, खाती हूँ, और उसके बाद ही बिस्तर पर जाती हूँ।” वह बताती हैं कि कभी-कभी उनका दिन इतने में ही खत्म नहीं होता। वे कहती हैं, “मुझे किसी गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा होने पर आधी रात को बुला लिया जाता है। मुझे उनके साथ रहकर उनकी मदद करनी पड़ती है, चाहे दिन हो या रात।”
अनुवाद- शुभम ठाकुर