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कोविड लॉकडाउन: रोज कमा कर खाने वालों के सामने रोटी का संकट

कोरोना संक्रमण रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन से रोज कमाकर खाने वालों के सामने दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो रहा है। खासकर रिक्शा चलाने और दिहाड़ी मजदूर जो वापस गांवों को नहीं जा सके, उनके सामने पेट पालने का संकट है।
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“15 दिन से काम ही नहीं मिला”… “मिलता है तो खा लेते हैं वर्ना ऐसे ही सो जाते हैं”… “लॉकडाउन खुलेगा तो घर चले जाएंगे”… “अब खाली हाथ घर का जाएं”

ये कुछ जवाब लखनऊ में ठेला, रिक्शा चलाने वाले लोगों के हैं। जो उत्तर प्रदेश में आंशिक लॉकडाउन के बाद बेरोजगार हैं, इनमें से कई लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया है।

“15 दिन हो गए हैं, कोई काम नहीं मिला। यहीं फुटपाथ पर रहता हूं। कोई दे जाता है तो खा लेता हूं, कभी नहीं भी। कई दिन ऐसे भी आए है, जब ऐसे ही सो गए।” लखनऊ की लाटूस रोड की खाली सड़क के किनारे सर झुकाए बैठे हरीश सिंह (45 वर्ष) मायूसी के साथ बताते हैं।

लखनऊ की लाटूस रोड पर बैठे हरीश सिंह, जिन्हें 15 दिन से कोई काम नहीं मिला था। फोटो- अरविंद शुक्ला

उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले के मूल निवासी हरीश सिंह लखनऊ में रहकर पेंटिंग और पेंटिंग का काम न मिलने पर ठेला-रिक्शा में खींचने का काम करते हैं, लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद लखनऊ में लगाए गए आंशिक लॉकडाउन के बाद उन्हें काम नहीं मिला है। हरीश से गांव कनेक्शन की मुलाकात 8 मई को हुई थी, उस वक्त उन्हें लगता था अगर 10 मई को लॉकडाउन खुल गया तो वापस अपने घर चले जाएंगे, लेकिन प्रदेश में अब 17 मई तक लॉकडाउन है।

हरीश से करीब 100 मीटर की दूरी पर सड़क की दूसरी तरफ अपनी ठेलिया पर बैठे जवाहरलाल (50 वर्ष) फोन पर किसी बाते कर रहे थे। उनके आसपास खड़ी 8-10 ठेलिया चैन से बंधी थीं और पीछे वाली दुकान बंद थी।

जवाहर लाल बताते हैं, “मार्केट बंद है तो काम ही नहीं है। 15 आदमी हैं जो गांव चले गए हैं। पहले रोज 600-1000 रुपये की कमाई हो जाती थी, लेकिन अब 100-150 रुपये मुश्किल से मिलते हैं। पास की दुकान से राशन ले आता हूं और यहीं बना लेता हूं। अब खाली हाथ घर क्या जाएं।”

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ठेलिया चलाने वाले जवाहर लाल, जिनके कई साथी काम न मिलने की वजह अपने गांव लौट गए हैं। फोटो- अरविंद शुक्ला

लॉकडाउन की वजह से वो सारी दुकानें बंद हैं, जहां जवाहर और उनके जैसे सैक़ड़ों ठेलिया वाले काम करते थे, लेकिन पास में ही दवा मार्केट है, जिसमें शनिवार और रविवार को छोड़कर बाकी दिन में जवाहर जैसे कुछ लोगों को थोड़े बहुत पैसे मिल जाते हैं।

लखनऊ शहर में गांव कनेक्शन ने ऐसे ठेलिया, साइकिल रिक्शा, ई-रिक्शा चालकों और मजदूरों से बात की, उन्होंने बताया कि लॉकडाउन लगने के बाद उनके सामने रोजी और रोटी दोनों का संकट है।

इस साल अब तक 75 लाख लोगों की चली गई नौकरी

रोजगार सबंधी आंकड़े जारी करने वाले निजी व्यावसायिक इन्फोर्मेशन कंपनी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के अनुसार लॉकडाउन की वजह से इस साल अप्रैल में संगठित और असंगठित क्षेत्र के 75 लाख लोगों की नौकरी चली गई। वहीं, बेरोजगारी दर भी चार महीने के उच्च स्तर को पार करते हुए 8% के करीब पहुंच गई है।

पांच मई को आई स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया (State of Working India) नाम की एक रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि पिछले साल अप्रैल-मई में किए गए लॉकडाउन (lockdown) के बाद 10 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। जून 2020 तक बहुत से लोग अपने घर वापस चले गए। इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2020 के आखिरी महीने तक भी देश में डेढ़ करोड़ से अधिक लोगों को जीवन यापन के लिए काम-धंधा नहीं मिला। विस्तृत खबर यहां पढ़ें

सितंबर 2020 में केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि साल 2020 में लॉकडाउन के चलते पूरे देश से 10466152 प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौटे थे। इनमें से सबसे ज्यादा 32,49,638 प्रवासी उत्तर प्रदेश में लौटे थे। जबकि दूसरे नंबर पर बिहार था, जहां 15,00,612 प्रवासी शहरों से घर को लौटे थे।

कोविड की दूसरी महामारी ने असंगठित क्षेत्र (मजदूर, कामगार) की आजीविका पर व्यापक असर पड़ा है। मार्च के आखिरी दूसरे हफ्ते से मुंबई से पलायन शुरु हो गया था जिसके बाद दिल्ली, पुणे, बेंगलुरु और लखनऊ जैसे शहरों से बड़ी आबादी वापस अपने घरों को गई है, और जो बच गए हैं उनके सामने दो वक्त की रोटी की मुश्किल है।

लॉकडाउन और कोविड का मजदूर वर्ग पर कैसे असर पड़ा है? एशिया फ्लोर वेज एलायंस (AFWA) के साथ जुड़ी, मजदूरों के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता निवेदिता जयराम के मुताबिक दूसरी कोविड लहर का असर मजदूर वर्ग पर पिछले साल से कहीं ज्यादा हैं।

बेंगलुरु से वो फोन पर गांव कनेक्शन को बताती हैं, “मजदूर और कामगारों पर असर की बात करें तो ये समझा जाता है कि पिछले साल से हमने कुछ सीखा नहीं है। ये सभी को पता है कि बिना मेहनताने के मजदूर गुजारा नहीं कर पाएंगे। मजदूर-कामगार पिछले साल से ही इतने कर्ज में हैं कि इस बार उन्हें कहीं से पैसा नहीं मिल रहा है। साथ ही इस बार सरकार ने उन्हें कोई विशेष पैकेज नहीं दिया है, क्योंकि इंडस्ट्री चालू हैं। इंडस्ट्री चालू हैं तो प्रोडक्शन पर ज्यादा असर नहीं है, लेकिन काम करने वालों पर असर पड़ा है।”

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लखनऊ में परिवर्तन चौक के पास सवारियों का इंतजार करते राकेश सिंह और उनके साथी रिक्शा चालक। फोटो- अरविंद सिंह

काम ही नहीं निकल रहा है, कोई सवारी नहीं है। कभी-कभी कोई सवारी मिल जाती है तो आटा ले आता हूं यहीं रोटी बना लेता हूं। कभी कोई दे भी जाता है। नहीं तो भूखे सो जाते हैं।- राकेश सिंह, रिक्शा चालक

बेबसी के बीच उम्मीद तलाशते ये लोग

लखनऊ शहर के परिवर्तन चौक पर खड़े दो बुजुर्ग रिक्शेवाले पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे। जबकि एक रिक्शा खाली पड़ा था उसका चालक पेड़ के नीचे फुटपाथ पर लेटा हुआ था। हम जब उसकी ओर बढ़े तो किसी सवारी की उम्मीद में सबसे आगे खड़े राकेश कुमार (50 वर्ष) ने अपनी खुली शर्ट के बटन बंद किए और जल्दी से जेब में रखा मॉस्क लगा लिया।

कामकाज के बारे में पूछने पर वो कहते हैं, “काम ही नहीं निकल रहा है, कोई सवारी नहीं है। कभी-कभी कोई सवारी मिल जाती है तो आटा ले आता हूं यहीं रोटी बना लेता हूं। कभी कोई दे भी जाता है। नहीं तो भूखे सो जाते हैं।”

मजबूरी का हाल बताते हुए राकेश सिंह रिक्शा दिखाते हैं, जिसका एक पैडल टूट गया है। पिछले 15 दिनों से वो एक पैडल से रिक्शा खींच रहे हैं।

वो कहते हैं, “पैडल बनवाने में 150-200 रुपए लेंगे, यहां तो खाने के पैसे नहीं है।” राकेश सिंह मूल रुप से लखनऊ के ग्रामीण इलाके माल के रहने वाले हैं, जो दशहरी आम के लिए प्रसिद्ध है। उनकी पत्नी और बच्चों की मौत हो गई और वो यहां रिक्शा चलाते हैं। राकेश कहते हैं, ” गांव तो है, लेकिन हमारा कोई है नहीं, पत्नी-बच्चे सब मर गए, भाई का परिवार है। ये लॉकडाउन ऐसे ही रहा तो किसी से पैसे लेकर पैडल सही कराएंगे और चले ही जाएंगे।”

यातायात के बढ़ते साधनों, शहर की गलियों तक में ई-रिक्शा आ जाने से साइकिल रिक्शा चलाने वालों के सामने रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं, लेकिन ऐसे हालात कोरोना में ही आए हैं। लगातार दूसरे साल आंकड़ों में दर्ज नहीं होने वाले ये रिक्शा चालाक दाने-दाने को मोहताज हैं।

सुमेरी की उम्र 55 वर्ष है वो 20 साल से रिक्शा चला रहे हैं। राकेश सिंह जैसे कई रिक्शा चालक उन्हें मामा कहते हैं। उनके मुताबिक साइकिल वाले रिक्शा के लिए रोजाना 40 रुपये किराया देना पड़ता है। ज्यादातर रिक्शा चालक किराए का ही रिक्शा चलाते हैं, लेकिन इन दिनों उनके रिक्शा मालिकों ने थोड़ी रियायत दी है। 40 की जगह 30 रुपये ले लेते हैं और कई बार बाद में हिसाब की छूट दी है।

राकेश कुमार के रिक्शे का वो टूटा पैडल, जो वो पैसा नहीं होने के चलते बनवा नहीं सके।

लखनऊ की एतिहासिक इमारत बड़ा इमामबाड़ा के सामने से कड़ी दुपहरी में खाली ई-रिक्शा लेकर गुजरते मो. जुबैर (34) रुक-रुक कर इधर ऊधर देखते हैं शायद कोई सवारी मिल जाए, लेकिन दिन में मायूसी हाथ लगती है।

आम दिनों में रोजाना कम से कम 600 रुपए कमाने वाले जुबेर ने बताया, “पिछले 20-25 दिन से यही हाल है। सब्जी-रोटी चल रही है किसी तरह। ई-रिक्शा का किराया 370 रुपये रोज का है, लेकिन काम नहीं है तो उन्हें भी कम देते हैं। सुबह सब्जी मंडी चले जाते हैं तो थोड़ा काम वहां हो जाता है। इस तरह दिन भर में 150 से 300 रुपये तक काम हो जाता है। कुछ रिक्शा मालिक को दो देते हैं कुछ हम रख लेते हैं।”

लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा के बाहर मो. जुबेर जो कभी 600 से 700 रुपए रोज कमाते थे अब 150-200 भी मुश्किल से कमा पाते हैं। फोटो- अरविंद शुक्ला  

ऑटो रिक्शा चालक संघ की मुख्यमंत्री से मदद की गुहार

लखनऊ ऑटो रिक्शा थ्री व्हीलर संघ के अध्यक्ष पंकज दीक्षित के मुताबिक अकेले राजधानी लखनऊ में 50 हजार के करीब ऑटो, टैंपौ और ई-रिक्शा चालक बेरोजगार बैठे हैं। लॉकडाउन के चलते इनकी स्थिति खराब हो गई है। इनमें साइकिल रिक्शा चालक शामिल नहीं हैं। पंकज दीक्षित गांव कनेक्शन से कहते हैं, “ये बहुत छोटे लोग हैं इनके पास ज्यादा पूंजी नहीं होती है। जो थी भी इतने दिन के लॉकडाउन में खत्म हो गई। आपने देखा होगा कि कुछ ऑटो-रिक्शा आदि वाले सड़क पर दिख जाते हैं, इन्हें पता है कि पुलिस का डंडा पड़ सकता है लेकिन क्या क्या करें मजबूर हैं, शायद थोड़ी कमाई हो जाए।”

ऑटो रिक्शा चालक संघ ने यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मदद की गुहार लगाई है। पंकज बताते हैं, पिछले साल चालकों को लोगों को 1000-1000 करके तीन बार में तीन हजार रुपए मिले थे। उससे थोड़ी मदद मिल गई थी। हमारी मांग है कि सरकार इस बार 5000 रुपए एक मुश्त और 2 महीने का राशन हम लोगों के कर दे। ताकि आदमी के भूखे रहने की नौबत न आए।’

गांव में भी रोजगार का संकट

आजीविका और रोजगार के मामले में गांव के हालात ज्यादा अलग नहीं है। यूपी में इटावा जिले के सराय भूपित कटेखेरा गांव में परचून की दुकान चलाने वाले कमलेश प्रजापति (27वर्ष) गांव कनेक्शन को बताते हैं, “काम धंधे पर पूरा असर पड़ा है। हमारी दुकान सुबह 7 से 11 ही खुलती है, अब इतने में क्या बेच लेंगे।”

कमलेश के मुताबिक सिर्फ व्यवसाय ही नहीं मजदूरों तक पर असर पड़ा है। वो कहते हैं, “गांव में पहले से जो मजदूर थे उनके सामने ही रोज काम की दिक्कत थी, अब तो शहर से बहुत लोग आ गए हैं। तो सबके काम नहीं मिल पाता है। गेहूं कट गए हैं तो किसानों के पास भी काम नहीं है।”

कोरोना से जूझते देश में साल 2020 कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए थे। आर्थिक गतिविधियां ठप हो गईं थी, जिसका सीधा असर लोगों की रोजी और रोटी पर पड़ा था। लॉकडाउन का ग्रामीण भारत पर असर जानने के लिए गांव कनेक्शन ने साल 2020 में एक राष्ट्रव्यापी सर्वे कराया था। 25000 से ज्यादा लोगों के बीच कराए गए इस सर्वे के मुताबिक हर 10 में से 9 व्यक्तियों (89 फीसदी) को लॉकडाउन (2020) से आर्थिक तंगी हुई थी। सर्वे के हाईलाइट्स की बात करें तो 78 फीसदी का काम बंद रहा था, 71 % लोगों के मुताबिक लॉकडाउन में उनकी आमदनी कम हो गई थई। 23 % लोगों के मुताबिक उन्हें घर चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा था। सर्वे की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ें

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