मजदूरों का संकट: सरकार, उद्यमी, मजदूर और किसान को एक जुट होकर रास्ता निकालना होगा

अगर आंकड़ों को देखा जाय तो असंगठित मजदूरों के मात्र 30 प्रतिशत का ही श्रम विभाग में पंजीकरण हुआ है, अतः सरकार द्वारा घोषित राहत उपायों का लाभ भी उन्हीं को मिल पा रहा है, बाकी एक बड़ी संख्या हर प्रकार से असहाय स्थिति में है। घर-घर सर्वे करके मजदूरों का चिन्हीकरण और उनका अनिवार्य पंजीकरण एक चुनौती भरा लेकिन आवश्यक कार्य है जिसे करना ही होगा।

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मजदूरों का संकट: सरकार, उद्यमी, मजदूर और किसान को एक जुट होकर रास्ता निकालना होगा

वल्लभाचार्य पाण्डेय

आज मजदूर दिवस पर शायद पहला अवसर होगा जब कोई बड़ी सभा, रैली, संगोष्ठी अथवा प्रदर्शन का आयोजन पूरी दुनिया में कहीं नहीं हो पाया होगा। दरअसल कोरोना के सीधे संक्रमण के जद में शायद मजदूर वर्ग सबसे कम आया लेकिन इसके चलते हुए विश्वव्यापी लॉकडाउन ने मजदूरों की हालत बेहद खराब कर दी। इसका सबसे अधिक असर असंगठित क्षेत्र में मजदूरों पर पड़ा है।

कोरोना संकट से उबरने के कई साल बाद तक भी इसका दुष्परिणाम मजदूर वर्ग को भुगतना होगा। अपने देश में भी बड़े शहरों में मेहनत करके आजीविका चला रहे लाखों कामगार अपने को असहाय समझते हुए विगत दिनों पलायन को मजबूर हुए, अभी भी लगभग डेढ़ करोड़ से अधिक कामगार मजदूर विभिन्न शहरों में फंसे हुए हैं वे लॉक डाउन हटते ही अपने अपने गाँव कस्बों में लौटेंगे।

लॉक डाउन की अवधि के बीच उनकी सुरक्षित वापसी करा पाना सरकारों के लिए एक बड़ी चुनौती है। औद्योगिक शहरों में तमाम कार्य असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और कारीगरों द्वारा होता है, इन लोगों ने कोरोना संकट के इस कठिन काल को जिस तरह भुगता है अथवा भुगत रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले कुछ वर्षों में उनकी वापसी थोड़ी कठिन ही होगी। इससे दो तरह की दिक्कतें स्वाभाविक रूप से होंगी एक तरफ तो बड़े शहरों में इन मजदूरों की कमी के कारण विभिन्न औद्योगिक इकाइयों को आगामी कुछ वर्षों तक पूरी क्षमता में चला पाना बहुत मुश्किल होगा। वहीं गाँवो और कस्बो में वापस लौटी मजदूरों और कामगारों की एक बड़ी संख्या के लिए रोजगार और आजीविका के विकल्प बहुत सीमित होंगे।

तमाम औद्योगिक इकाइयों में प्रायः नियमित मजदूरों के संख्या के अलावा ऐसे बहुत मजदूर होते हैं जो दैनिक वेतन पर, संविदा पर अथवा सेवा प्रदाता कम्पनियों द्वारा मुहैया कराए जाते हैं। कोरोना संकट के इस दौर में जब लाखों मजदूर मजबूरी में बड़े शहरों को छोड़ कर पैदल ही अपने गाँव जाने को चल पड़े थे उस दौरान सैकड़ों लोगों से बातचीत के आधार पर मिले अनुभव से स्पष्ट था कि ऐसे बहुत सारे मामले थे जब मजदूरों को किसी ठेकेदार ने काम पर लगाया था, ऐसे मजदूरों की अंतिम मजदूरी का हिसाब काम खत्म होने पर अथवा घर वापसी के समय किया जाता है बाकी समय में खुराकी भर को पैसा ठीकेदार द्वारा दिया जाता है।


लॉक डाउन होने के दूसरे, तीसरे दिन के बाद ही अधिकांश ऐसे ठेकेदार जिनके पास आगे खुराकी देने के लिए पैसा नहीं बचा और वे मोबाइल बंद करके कहीं गायब हो लिए और भूखा प्यासा मजदूर बेबस होकर गाँव लौट चला। यह सोचकर कि शहर में खाए बिना मरने से बेहतर है अपने गाँव वापस चलना जहां कम से कम उसे नमक रोटी तो मिल ही जायेगी। रास्ते की तमाम दुश्वारियां उसे भविष्य में दोबारा शहर आने से बार बार रोकेंगी। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र में भी सेवा प्रदाता कम्पनियों के माध्यम से तमाम कार्य किये जा रहे हैं जिसमे विभिन्न क्षेत्रों के कुशल कारीगरो को रोजगार मिला हुआ है।

कोरोना संकट के चलते कम्पनियों द्वारा उनकी छटनी किये जाने का संकेत स्पष्ट रूप से मिलने लगा है, शहर में रह कर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने और थोड़ा बेहतर जीवन स्तर बनाने की चाह कभी उन्हें शहर लेकर आयी रही होगी, लेकिन अब जब वे बेरोजगार होकर वापस गाँव में लौट चुके हैं अथवा लौटने वाले हैं तो अपने बच्चों को उन्हीं सरकारी स्कूलों में भेजना उनकी मजबूरी होगी जिसकी गुणवत्ता विगत दशकों को काफी गिर गयी।

अगर आंकड़ों को देखा जाय तो असंगठित मजदूरों के मात्र 30 प्रतिशत का ही श्रम विभाग में पंजीकरण हुआ है, अतः सरकार द्वारा घोषित राहत उपायों का लाभ भी उन्हीं को मिल पा रहा है, बाकी एक बड़ी संख्या हर प्रकार से असहाय स्थिति में है। घर-घर सर्वे करके मजदूरों का चिन्हीकरण और उनका अनिवार्य पंजीकरण एक चुनौती भरा लेकिन आवश्यक कार्य है जिसे करना ही होगा।

इसके साथ ही इन मजदूरों को स्थानीय स्तर पर रोजगार दिए जाने के लिए प्रभावकारी योजना लानी होगी। मनरेगा की एक सीमित क्षमता है एक परिवार को वर्ष में मात्र 100 दिन के रोजगार का अवसर मजदूरों पर आसन्न वर्तमान संकट से उबारने के लिए पर्याप्त नही होगा. इसे वर्ष में 200 दिन करने की जरूरत है। मनरेगा को कृषि से जोड़ कर अत्यधिक मानव दिवस सृजित किये जा सकते हैं। कृषि क्षेत्र में अधिकतम रोजगार के अवसर का सृजन बहुत सहायक और त्वरित परिणामदायक होगा।

नगरीय और उपनगरीय क्षेत्र में जहाँ मनरेगा नही है वहां के मजदूरों के लिए नगरीय रोजगार योजना लाये जाने की जरूरत है। स्वरोजगार की छोटी इकाइयों को प्रोत्साहित करके उसमे अधिकतम मानव दिवस रोजगार सृजित किये जाने से मजदूरों के वर्तमान संकट से कुछ निजात पायी जा सकेगी। बड़े औद्योगिक घरानों को भी छोटी छोटी इकाइयों की श्रृंखला की स्थापना के लिए आगे आगे आना होगा, जिससे मजदूरों और कामगारों को स्थानीय स्तर पर काम मिले।

अगर सरकार, उद्यमी, मजदूर और किसान एक साथ मजबूती से खड़े होकर इस संकट से उबरने की ईमानदारी पूर्ण कोशिश करें, महत्वाकांक्षी योजनायें लाये और उस पर अमल करें तो निस्संदेह अगले वर्ष मजदूर दिवस के दिन तक हम उत्सव मनाने की स्थिति में रहेंगे।

(वल्लभाचार्य पाण्डेय, भंदहा कला, कैथी, वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ता हैं, ये उनके निजी विचार हैं।)

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