मजदूर दिवस : प्रवासी मजदूरों से क्यों परायों जैसा व्यवहार करती रहीं सरकारें ?

देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे करीब 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों को ये बड़े-बड़े शहर क्यों कभी अपना नहीं सकें?

Kushal MishraKushal Mishra   1 May 2020 12:40 PM GMT

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मजदूर दिवस : प्रवासी मजदूरों से क्यों परायों जैसा व्यवहार करती रहीं सरकारें ?लॉकडाउन के बाद मदद न मिलने से पैदल ही अपने घरों की ओर निकलने को मजबूर हुए प्रवासी मजदूर। फोटो साभार : ट्विटर

लॉकडाउन में प्रवासी मजदूर सुर्ख़ियों में रहे। रोज की मजदूरी से अपने परिवार का पेट पालने वाले ये मजदूर दूसरे राज्यों में फँस चुके थे। इनके पास कोई काम नहीं था, थोड़े से पैसे थे और एक बड़ी चुनौती थी कि 21 दिनों की बंदी में बिना किसी काम के वे कैसे अपना गुजारा चला सकेंगे?

बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर आ गए, ये किसी भी तरह अपने गाँव, अपने घर जाना चाहते थे, इस उम्मीद में कि वे घर पहुँच कर अपना और अपने परिवार का गुजारा कर सकेंगे। देश के अलग-अलग हिस्सों से इन मजदूरों की तस्वीरें सामने आने लगी थीं, ये पैदल ही अपने परिवार के साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर की ओर निकल पड़े थे।

दूसरी ओर लाखों की संख्या में मजदूर फँसे रह गए, इनके लिए बिना किसी साधन के हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घर की ओर निकल पाना मुमकिन नहीं था। लॉकडाउन के 19 दिन और बढ़ने के बावजूद सरकारी मदद अभी भी इनसे कोसों दूर थी। पैसों की कमी और भुखमरी से जूझ रहे ये मजदूर सिर्फ अपने राज्य की सरकारों से मदद की गुहार लगाते रहे। ऐसे में सवाल उठाना लाजमी है कि आखिर देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे करीब 10 करोड़ प्रवासी मजदूरों को ये बड़े-बड़े शहर क्यों कभी अपना नहीं सकें?

दूसरे शहरों में काम कर रहे ये मजदूर इतनी बड़ी संख्या में सरकार की नजर में कभी नहीं आये। प्रवासी मजदूरों के ये हालात महामारी की वजह से सामने नहीं आये, बल्कि मौजूदा सरकारी ढांचे में लम्बे समय से चली आ रही कमजोरियों ने उनकी स्थिति को और ज्यादा बिगाड़ दिया।


दूसरे राज्यों में काम के लिए जाने वाले ये मजदूर न तो कभी राष्ट्रीय सांखियकी आंकड़ों में आये और न ही इन पर शहर के प्रशासन का ध्यान जाता है। यही वजह है कि शहरों में ये प्रवासी मजदूर अवैध बस्तियों में रहने को मजबूर हैं और किसी भी सरकारी कल्याण योजनाओं के दायरे से बाहर हो जाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के मौके पर प्रवासी मजदूरों पर आई एक रिपोर्ट देश के शहरों में इन मजदूरों के हालातों की तस्वीर और साफ़ कर देती है। आजीविका ब्यूरो संस्था की इस रिपोर्ट में अहमदाबाद और सूरत जैसे दो बड़े शहरों के प्रवासी मजदूरों को शामिल किया गया।

अहमदाबाद में जहाँ उत्तरी गुजरात, दक्षिण राजस्थान और पश्चिम मध्य प्रदेश से लगे आदिवासी इलाकों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के दूर-दराज इलाकों से आये करीब 13 लाख मजदूर हैं, वहीं सूरत एक ऐसा शहर है जहाँ प्रवासियों और स्थानीय लोगों के बीच अनुपात सबसे अधिक है। प्रवासी यहाँ की कुल आबादी का 58 प्रतिशत हैं।

सूरत के कपड़ा उद्योग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र और बिहार के प्रवासी मजदूरों को काम देते हैं। इस उद्योग में सिर्फ ओडिशा के गंजाम जिले से ही करीब आठ लाख प्रवासी आते हैं। इन दोनों शहरों में यह सर्वेक्षण कोरोना वायरस के महामारी का रूप लेने से पहले 435 प्रवासी मजदूरों से बातचीत के आधार पर किया गया।

नहीं होते सरकारी सेवाएं पाने के हक़दार

इस रिपोर्ट में सामने आया कि ये प्रवासी मजदूर उन जगहों पर रहते हैं जिन्हें स्थानीय प्रशासन की मान्यता नहीं होती। इन मजदूरों के पास शहरी निवास आधारित कोई दस्तावेज नहीं होते, ऐसे में ये सरकारी योजनाओं और सेवाओं को पाने के हकदार नहीं होते। अहमदाबाद में जहाँ ये ज्यादातर काम की जगह, खुली बस्तियों और किराये की अनौपचारिक जगहों पर रहते हैं, वहीं सूरत में किराये के कमरे और मेस रूम में रहते हैं। इनके रहने के ये सभी स्थान स्थानीय प्रशासन की निगरानी के दायरे से बाहर आते हैं, ऐसे में ये बदहाल हालत में होते हैं।

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चूँकि इन पर कोई नियंत्रण नहीं होता इसलिए ये शहरी स्थानीय निकायों, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों और आंगनबाड़ी केन्द्रों में शामिल नहीं किये जाते। सर्वेक्षण में सामने आया कि मजदूरों के परिवारों में लगभग 85 प्रतिशत बच्चों ने कभी भी अपने इलाके के आंगनबाड़ी सेवाओं का उपयोग नहीं किया।

इसके अलावा शहरों में खुली बस्तियों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के सामने शौचालयों के उपयोग की भी एक बड़ी समस्या है। ये मजदूर अपनी मासिक आय का दसवां हिस्सा सिर्फ शौच सुविधाओं पर खर्च करने को मजबूर होते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार पक्के किराये के कमरों तक सिर्फ कुशल प्रवासी मजदूरों की ही पहुँच में है। वे भी एक छोटे और संकरे कमरे में चार या इससे भी ज्यादा संख्या में रहते हैं और एडवांस में राशि देने के साथ किराया चुकाते हैं। इसके अलावा इन मजदूरों को और सुविधाओं के लिए अलग से पैसे भुगतान करने पड़ते हैं। इन परिस्थितियों के समाधान के लिए 98 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों ने कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता या स्थानीय प्रशासन के किसी अधिकारी से बात नहीं की।

पहुँच में नहीं सरकारी राशन, स्वास्थ्य सुविधाओं से भी बाहर

दोनों ही शहरों में प्रवासी मजदूर सरकार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली से राशन लेने के भी हक़दार नहीं होते क्योंकि मजदूरों के पास उन इलाकों के राशन कार्ड नहीं होते। इस वजह से वो कम मात्रा में बाहर की दुकानों से महंगा राशन खरीदने के लिए मजबूर होते हैं और अपनी मासिक आय का करीब 50 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ भोजन पर खर्च कर देते हैं। अधिक पैसा खर्च करने के बाद भी भोजन की पोषण गुणवत्ता संदेह के घेरे में होती है।

सर्वेक्षण में सामने आया कि मजदूरों के रहने वाले इलाके मान्यता प्राप्त या आवासीय इलाकों में नहीं होते, इस वजह से उनकी बस्तियों में आशा और एएनएम कार्यकर्ताओं की पहुँच नहीं होती। दोनों ही शहरों के 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रवासी मजदूर निजी स्वास्थ्य क्लीनिक को प्राथमिकता देते हैं जिनमें नीम-हकीम और दवाइयों की दुकान चलाने वाले शामिल होते हैं।

अगर ये प्रवासी मजदूर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का फायदा उठाने का प्रयास करते हैं तो उनसे स्थानीय निवासी होने का प्रमाणपत्र माँगा जाता है। इसके अलावा भाषा न समझ पाने और अस्पताल में लगने वाले लम्बे समय के कारण काम के घंटों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाते, इस वजह से भी उन्हें सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता।

शहरी नीतियों और योजनाओं में शामिल नहीं होते प्रवासी मजदूर

शहरों में स्थानीय प्रशासन के अधिकारी राष्ट्रीय जनगणना के आंकड़ों के आधार पर लोगों के लिए नीतियां और योजनाएं बनाते हैं। जबकि प्रवासी मजदूरों को जनगणना और एनएसएसओ से बाहर रखा गया है। ऐसे में ये प्रवासी मजदूर किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं उठा पाते।

प्रवासियों का गढ़ माने जाने वाले इन शहरों में जनसख्या के जिन अनुमानों पर योजनाएं बनती हैं उनमें प्रवासी मजदूरों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। प्रवासी मजदूरों की देखरेख को उद्योगों की जिम्मेदारी माना जाता है जिसे लागू करवाने का दायित्व श्रम विभाग का होता है, मगर श्रम विभाग इनके लिए बने नियमों को लागू करवा पाने में सक्षम नहीं है। इतना ही नहीं शहरों में मतदान न कर पाने के कारण किसी भी तरह की राजनीतिक पहल से वंचित हो जाते हैं।

ऐसे में लॉकडाउन के संकट के समय में सरकार के पास इन तक पहुँचने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। ये प्रवासी मजदूर अभी भी बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहे हैं।

प्रवासी मजदूरों पर इस रिपोर्ट से जुड़े आजीविका ब्यूरो के अनहद बताते हैं, "सूरत और अहमदाबाद के प्रवासी मजदूरों पर इस रिपोर्ट के जरिये पूरे देश में प्रवासी मजदूरों के हालात बताने की हमारी कोशिश रही है। प्रवासी मजदूर हर रोज शहरों में बुनियादी सुविधाओं के लिए एक अलग लड़ाई लड़ते हैं। यह दुखद है कि प्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन में इतनी तकलीफ उठानी पड़ रही है।"

"जरूरी यह है कि सरकार इनके बारे में गंभीरता से सोचे और शहरी नीतियों और योजनाओं में प्रवासी मजदूरों को भी शामिल किया जाए ताकि प्रवासी मजदूर भी शहरों में हिस्सेदारी का दावा कर सकें," अनहद कहते हैं।

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