प्रकृति और भाई की सलामती का पर्व है आदिवासियों का महापर्व 'करम'

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प्रकृति और भाई की सलामती का पर्व है आदिवासियों का महापर्व करम

मनोज कुमार / अपर्णा श्रीवास्तव, रांची

रांची (झारखंड)। करम या करमा पर्व झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों का लोकपर्व है। यह फसलों और वृक्षों की पूजा का पर्व है। आदिवासियों और मूलवासियों के प्रकृति का महापर्व करम भादो की एकादशी शुक्ल पक्ष को करम पर्व मनाया जाता है। यह पर्व झारखंड के आदिवासी मूलवासी सभी मिलकर मनाते हैं।

नौ दिन पहले पूजा के लिए टोकरियों में बोए बीज अंकुरित हो जाते हैं और सुनहरे चमकदार रंगों में लहलहाते हैं। करम देव की पूजा के लिए आंगन और चौक-चौराहों पर मौजूद पूजा स्थलों को पत्तियों और फूलों से सजाया जाता है। पूजा में बैठने वाली व्रतीी बहनें स्नान कर शाम में नए वस्त्र धारण कर शामिल होती हैं। शाम मे करम डाल को काटकर युवा लाते हैं डाल का स्वागत कर पाहान पुजारी उसे विधिपूर्वक पूजा स्थल में स्थापित करते हैं। पूजा के साथ करमा धरमा की कथा सुनाई जाती है। पूजा के बाद जावा फूलों (अनाजों का पौधा) को कानों में खोसा जाता है और फिर शुरू होता है मान्दर, ढोल नगाड़े की धुन पर करमा के गीतों पर सामूहिक नृत्य करते हैं।

यह पर्व भाई-बहन के स्नेह का त्योहार है भाई के लिए बहने करम पर्व करती हैं भाई की सुख समृद्धि के लिए पूजा करती हैं नौ दिन पहले जावा उठाने के लिए नए टोकरी में नदी में नया बालु को लाकर सात प्रकार का अन्न धान, गेहूं, जौ, उड़द, मकई, कुल्थी, चना का प्रयोग किया जाता है। गांव घर की बहने उपवास कर नदी नहाने जाती है । नई टोकरी में नदी का स्वच्छ महीन बालू भरकर लाती हैं घर आंगन को लीप पोत कर उसके मध्य पीढहा सजाती हैं उस पर बालू भरी टोकरी स्थापित करती हैं फिर सातों प्रकार के अन्न के दानों को बालू में मिलाकर हल्दी पानी से सींचा जाता है और चारों ओर बहने गोलाकार जुड़कर जावा जगाने का गीत गाकर नृत्य करती हैं...

"जावा मोंय जगालो, किया किया जावा'

नौ दिन इसी तरह प्रातः संध्या मिलकर बहनें जावा जगाती हैं। जावा फूल को भावी संतान प्राप्ति के प्रतीक बीजों का अंकुरण के रूप में माना जाता है। नौ दिनों तक इसकी सेवा नौ माह तक मां के गर्भ मे पोषण का प्रतीक है।

करम पर्व के दिन यानी एकादशी को पर्व करने वाले सभी बहनें यानी कि करमइत बहनें जो कि मांस मछली तिल आदि का जो पूर्व में परहेज रखती है संध्या के समय नदी स्नान करने जाती हैं घर जाकर नई साड़ी और पूर्ण आभूषणों से अपने को सजाती हैं। गांव के कुछ भाई लोग दिनभर उपवास रख जंगल से करम पेड़ की तीन डालियां काट कर लाते हैं, करम के डाली को एक वार से काटा जाता है। उसके बाद बड़े आदर सत्कार के साथ उसे घर आंगन में लाया जाता है आंगन में सभी बहनें करम डाली के चारों और पूजन सामग्री के साथ बैठ जाती हैं गांव का बूढ़ा पहान करम की कथा सुनाता है....


कथा की समाप्ति के साथ पूजा समाप्त होती है पार्वती बहनें फलाहार कर करम डाली के चारों ओर अंगनई झुमर का समा बाँधती हैं और भाईयों का दल मान्दर ढोल लेकर बजाते हुए नाचता है। और घर आंगन अखड़ा में रात भर सभी नाचते हैं हर बेला में अलग-अलग राग के गीत गाते है और सभी नाचते हैं।

सुबह होते ही करम राजा/ करम गोसाई/ करम देव को विदा किया जाता है जावा पूजा कर महिलाएं अपने जुड़े यानी के बालों के जुड़ा मे लगाती हैं सजाती हैं और पुरुष अपने कानों पर जवा लगाते हैं बचे हुए जावा और करम डालियों को उपवासी बहने उखाड़ कर उसे द्वार द्वार ले जाकर नाच गाकर करम देव को विदा करती है और गाती हैं..

"आइज तोरे करम राजा घरे दुवारे काइल तोरे करम राजा ..."

और करम गोसाई को नदी में जावा डाली के साथ विसर्जित कर दिया जाता है यह पर्व झारखंड प्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम तथा छत्तीसगढ़ में भी धूमधाम से मनाया जाता है। करम पर्व के कई रूप आदिवासी समाज में देखने को मिलते हैं, जैसे गांव के अखड़ा में सामुहिक पूजा करके बली देने को राजी करम कहते हैं। करम पूजा के 12 दिन बाद जितिया करम मनाया जाता है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन दसाई करम मनाया जाता है। इसकेअलावा बूढ़ी करम, डींडा करम, बाम्बा करम आदि भी मनाया जाता है।

आदिवासियों और मूलवासियों के प्रकृति के महापर्व करम भादो एकादशी को मनाने के पूर्व अनेक संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों ,यहां तक कि राजभवन में भी करम पर्व पूर्व संध्या मनाया जाता है। आदिवासी मूलवासी भाई बहनें मिलकर नाचते गाते हैं। किसी तरह का भेदभाव नहीं रहता है यह पर्व प्रकृति से जुड़ा है इसलिए सभी मिलजुल कर सकते हैं और शामिल होते हैं। आपसी भाईचारा के साथ ही प्रकृति बचाने का भी सँदेश देता है यह पर्व।


    

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