बच्चे पर हाथ उठाते हैं तो सावधान हो जाएं

Anusha MishraAnusha Mishra   21 May 2018 7:16 AM GMT

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बच्चे पर हाथ उठाते हैं तो सावधान हो जाएंप्रतीकात्मक तस्वीर 

'होमवर्क पूरा ना करने पर एक टीचर ने 12 साल की बच्ची को 168 थप्पड़ पड़वाए' मध्य प्रदेश के झाबुला ज़िले की ये ख़बर आपने भी अख़बारों में पढ़ी होगी, टीवी पर देखी होगी, हो सकता है व्हॉट्सएप पर फॉरवर्ड किए गए किसी मैसेज में देखकर डिलीट भी कर दी हो। इस बोर्डिंग स्कूल की टीचर ने क्लास की दूसरी छात्राओं से बच्ची को थप्पड़ मारने को कहा। एक दिन, दो दिन, तीन दिन...पूरे छह दिन तक बच्ची को रोज़ थप्पड़ मारे गए, पूरी क्लास के सामने अपमानित किया गया...क्यों? क्योंकि बच्ची होमवर्क नहीं कर पाई थी।

ये पहली बार नहीं है, कि स्कूल में बच्चों के साथ मार - पीट की गई हो। पिछले साल इलाहाबाद के एक स्कूल का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एक स्कूल का प्रिंसिपल बच्चे को लगातार डंडे से मार रहा था। नवंबर 2017 में पुणे के स्कूल में शिक्षक को क्लास में दो बच्चों को मारने पर सस्पेंड किया गया था। ये ऐसे कुछ मामलों में से थे जो मीडिया में आ गए, इसलिए थोड़ी चर्चा भी हो गई, लेकिन हमारे देश में बच्चों पर हाथ उठाना, इतना बड़ा मुद्दा है ही नहीं, कि इस पर बहस की जाए, या इस बारे में सोचा भी जाए।

इलाहाबाद के स्कूल में बच्चे की पिटाई करता प्रिंसिपल

ज़्यादातर बच्चों को छोटी-बड़ी ग़लतियों पर घर में या स्कूल में ना जाने कितनी बार मार पड़ी होगी, इसलिए जब किसी मां-बाप को अपने बच्चों पर हाथ उठाते देखते हैं, या जब मध्य प्रदेश के इस स्कूल जैसे मामले सामने आते हैं, तो शायद हमें बहुत ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। हमें लगता है कि एक थप्पड़ से क्या बिगड़ जाएगा? या एक बेंत से कितनी बड़ी चोट लग जाएगी? ये ठीक है कि एक थप्पड़ से, या एक बेंत से शायद बच्चे के शरीर को ज़्यादा चोट ना लगे, लेकिन ये थप्पड़ उन्हें मानसिक रूप से गहरा सदमा पहुंचाते हैं।

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मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिन बच्चों को ग़लती करने पर प्यार से समझाने के बजाए पीटा जाता है, वो मानसिक रूप से परेशान रहते हैं। ऐसे बच्चे या तो बिल्कुल चुप रहने लगते हैं, अवसाद में चले जाते हैं या हिंसक हो जाते हैं। आगरा के क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. सारंग धर के मुताबिक 'बच्चों को पीटने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है। बच्चों में आत्मग्लानि की भावना बहुत जल्दी आ जाती है। जो बच्चे अपनी बात को किसी से कह नहीं पाते वे चुप रहना शुरू कर देते हैं, घर या बाहर हर जगह लोगों से कटे - कटे रहते हैं। अगर स्कूल में उनकी मार पड़ी है तो वे स्कूल जाने से कतराने लगते हैं। क्लास में उनकी परफॉर्मेंस ख़राब होना शुरू हो जाती है। कई बार इन बच्चों में अवसाद इतना बढ़ जाता है कि ये बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। दूसरी तरफ जो बच्चे मुखर होते हैं वे इस तरह की सज़ा से आक्रामक हो जाते हैं। उनके मन में गुस्सा भरने लगता है और धीरे - धीरे उनमें भी हिंसा की भावना आती है, कई बार तो ये भावना इतना बढ़ जाती है कि उस शख्स से नफरत करने लगते हैं और उसको नुकसान पहुंचाने के बारे में भी सोचने लगते हैं।

कुछ माता पिता या शिक्षक ऐसा सोचते हैं कि बचपन में उनकी मार पड़ी इसलिए वे जीवन में सही रहे हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने अपने बच्चों की पिटाई करेंगे तो बच्चे भी ठीक रहेंगे। ऐसे लोग अक्सर अपने बचपन की बातों को बताते हुए बच्चों को दंड देते हैं। इस बारे में डॉ. सारंग धर बताते हैं कि पिछले कुछ साल में स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है, वहीं बच्चे अब हंसते - खेलते हुए स्कूल जाते हैं जबकि पहले बच्चों को ज़बरदस्ती स्कूल भेजा जाता था फिर भी काफी कम बच्चों का मन ही पढ़ाई में लगता था। अगर मार - पिटाई से बच्चे सुधर जाते और पढ़ने लगते तो शायद आज की अपेक्षा साक्षरता दर पहले ज़्यादा होती।

डॉ. धर कहते हैं, ऐसे शिक्षक या माता - पिता बचपन में जिन्हें मार पड़ती थी, उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए कि जब उनकी पिटाई होती थी तो क्या उन्हें अच्छा लगता था? उस समय उनकी क्या भावना होती थी?" उनके लिए ये बहुत पुरानी बात हो सकती है लेकिन अगर वो उन लम्हों को याद करने के लिए एक मिनट निकालें, तो कई साल पहले की वे भावनाएं सतह पर आ जाएंगीं - डर, गुस्सा, हताशा, चोट, अच्छा न बन पाने की भावना, उदासी और हां और जो उन्हें मारते थे उनके प्रति नफ़रत'

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कुछ लोग मानते हैं कि अगर वे बच्चे को पीटें तो बच्चा उनसे डरेगा और अपने काम पर ध्यान देगा और सही रास्ते पर चलता रहेगा लेकिन इसके उलट, पिटाई के शिकार बच्चों जो मन में आता है ठीक वही करते हैं और कोशिश करते हैं माता - पिता व शिक्षकों से बातों को छुपाने लगते हैं।

भारत में कानून

  • किशोर न्याय अधिनियम की धारा 23 के मुताबिक बच्चों के साथ किसी किस्म की क्रूरता नहीं की जा सकती
  • शिक्षा का अधिकार (आरटीई) की धारा 17 के तहत बच्चों को सज़ा देने पर पूरी तरह प्रतिबंध है
  • स्कूल में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार रोकने के लिए साल 2012 में एक विधेयक पारित किया गया है, जिसके मुताबिक बच्चों को शारीरिक दंड देने पर शिक्षक को तीन साल की जेल हो सकती है।

काफ़ी नहीं है कानून

शिक्षा में शारीरिक दंड की घटनाओं पर बने कानूनों में कुछ कमियां भी हैं। जैसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 323 के अनुसार - किसी को भी दी गई शारीरिक और मानसिक पीड़ा अपराध है, लेकिन बच्चों को पहुंचाई गई चोट इसमें शामिल नहीं है। इसी तरह अनुच्छेद 88 और 89 उन सभी लोगों को संरक्षण देती है, जो बच्चों की किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुंचाता है, बशर्ते ये बच्चे की भलाई के लिए किया गया हो। इस तरह के संवैधानिक प्रावधान बच्चों को दिए जा रहे शारीरिक और मानसिक दंड को वैध करार देते हैं।

पिछले साल फरवरी में केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने सभी स्कूलों को संबोधित करते हुए कहा था कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की ओर से जारी दिशा-निर्देशों का पालन करें और बच्चों को दिए जाने वाले शारीरिक दंड को पूरी तरह खत्म करें।

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महिला और बाल विकास मंत्रालय ने मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर से कहा कि दिशा-निर्देशों का कड़ाई से पालन करवाने के लिए इवेट स्कूलों को भी उचित निर्देश दिए जाएं। इन निर्देशों में बच्चों को शारीरिक दंड या प्रताड़ना के मामले में जल्द कार्रवाई के लिए एक विशेष मॉनिटिरंग संस्था बनाने की बात कही गई है। इसमें शारीरिक दंड निगरानी सेल(सीपीएमसी) के गठन का भी सुझाव दिया गया है, जो शारीरिक दंड की घटना की 48 घंटे के अंदर सुनवाई करेगा। दिशा-निर्देशों के मुताबिक, टीचर्स को लिखित में यह देना होगा कि वे स्कूल में ऐसी किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे जो शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न या भेदभाव से संबंधित हो।

क्या है पूरी दुनिया का हाल

दुनिया के 53 देशों में बच्चों को दिए जाने वाले घर या स्कूल कहीं भी दिए जाने वाले शारीरिक दंड पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा है। इसकी शुरुआत सबसे पहले 1979 में स्वीडन में हुई थी। अगर सिर्फ स्कूल में शारीरिक दंड देने की बात करें तो ऐसे 117 देश हैं जहां इस पर प्रतिबंध है। हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका, सभी अफ्रीकी और एशियाई देशों के सभी राज्यों में, माता-पिता द्वारा शारीरिक दंड देना कानून के खिलाफ नहीं है।

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