रायपुर (छत्तीसगढ़)। छत्तीसगढ़ के बड़े क्षेत्र में हाथी रहते हैं, लेकिन वहीं पर कई कोयला खदानें भी हैं। हाथियों के संरक्षण के लिए लंबे समय से यहां हाथी अभयारण्य बनाने की बात हो रही है। यहां तक कि उसका क्षेत्रफल भी तय हो गया, लेकिन इतने सालों में अभयारण्य तो नहीं बन पाया लेकिन उसका क्षेत्रफल कम कर दिया गया।
छत्तीसगढ़ में हाथियों के रहने वाले क्षेत्रों में एक बाद एक कोयला खदानों के आवंटन के कारण, आने वाले दिनों में राज्य में मानव-हाथी संघर्ष के और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। पिछले महीने ही मंत्रीमंडल ने 18 नये कोयला खदानों की मंजूरी ऐसे समय में दी है, जब इसी मंत्रीमंडल ने 2019 में राज्य में लेमरु हाथी रिजर्व बनाने की योजना पर मुहर लगाई थी। लेमरु हाथी रिजर्व को पिछले महीने फिर से मंत्रीमंडल में पेश किया गया, फिर से उस पर मुहर लगाई गई लेकिन उस लेमरु हाथी रिजर्व का अब तक अता-पता नहीं है।
पिछले तीन सालों के आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में खाने-पीने की कमी और बढ़ते मानव हस्तक्षेप के कारण भटकते हाथियों ने 204 लोगों को मार डाला। इस दौरान 45 हाथी भी मारे गए। इन तीन सालों में हाथियों द्वारा फसलों को नष्ट करने के 66,582, घरों को नुकसान करने के 5,047 और अन्य संपत्तियों को नष्ट करने के 3,151 मामले भी सामने आए हैं। लेकिन इन आंकड़ों को किनारे करते हुए, हाथी रहवास वाले इलाकों में ही वन विभाग ‘यहां हाथी यदा-कदा आते हैं’ जैसे अनापत्ति प्रमाण पत्र दे कर कोयला खदानों को मंजूरी देने का काम कर रहा है।
असल में सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही छत्तीसगढ़ सरकार ने हाथी बहुल इलाकों में नए कोयला खदानों की नीलामी पर रोक लगाते हुए 3827 वर्ग किलोमीटर में लेमरू हाथी अभयरण बनाने की बात कही थी, लेकिन राज्य सरकार अब अपनी घोषणा से पीछे हट गई।
इतना ही नहीं, सरकार 2019 में मंत्रीमंडल और वन्यजीव बोर्ड की बैठक में 1995.48 वर्ग किलोमीटर में हाथी अभयारण्य बनाने के अपने ही फैसले को पलटकर 450 वर्ग किलोमीटर करने का प्रस्ताव भी मंत्रीमंडल में ला चुकी थी। लेकिन भारी विरोध के बाद सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा।
राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अकबर बताते हैं, “स्थानीय जनप्रतिनिधियों ने हाथी अभयारण्य के क्षेत्र को 450 वर्ग किलोमीटर करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन सरकार इससे सहमत नहीं है और हाथी अभयारण्य 1995.48 वर्ग किलोमीटर में ही बनाया जाएगा।”
हालांकि राज्य सरकार के 1995.48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लेमरू हाथी अभयारण्य बनाने के निर्णय से वन्य जीव विशेषज्ञ खुश नहीं हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों के मुताबिक, हाथी अभयारण्य चाहे जितने बड़े क्षेत्र में बना दिया जाए, अगर उसके आसपास खदानें रहेंगी तो हाथी अभयारण्य का कोई औचित्य नहीं होगा। खदानों के कारण न केवल हाथियों का कॉरिडोर खत्म हो जाएगा, बल्कि हाथियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडराने लगेंगे।
असल में झारखंड के गुमला से छत्तीसगढ़ के कोरबा तक हाथियों के आवागमन का हसदेव अरण्य एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। छत्तीसगढ़ के कोरबा, सरगुजा और रायगढ़ के हिस्से में जब से एक-एक कर कोयला खदानों में उत्खनन शुरू हुआ तो हाथी और मानव संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ने लगी। आज हालत यह है कि कोयला खदानों के कारण हाथियों का दल उत्पात मचाता हुआ राजधानी रायपुर और राज्य के दूसरे छोर पर स्थित बस्तर तक पहुंच चुका है। अपना घर छीने जाने के कारण हाथी यहां से वहां भटक रहे हैं।
आदिवासी और वन अधिकार के मुद्दे पर काम करने वाली सामाजिक संस्था जनअभिव्यक्ति की विपाशा पॉल कहती हैं, “पिछले एक-डेढ़ साल से बड़ा अजीबो-गरीब खेल चल रहा है। एक ओर सरकार लेमरू को हाथी अभायरण बनाने की कार्यवाही भी कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर हसदेव अरण्य के कोल ब्लॉक के आंबटन की प्रक्रिया भी चल रही है। ये दोनों प्रक्रियाएं एक-दूसरे की विरोधाभाषी हैं। दोनों एक साथ कैसे हो सकती हैं? या तो कोयला या तो हाथी। दोनों मे से किसी एक को ही चुना जा सकता है। इसका साफ मतलब है कि सरकार हाथी अभयारण्य को लेकर गंभीर नहीं है।”
इधर, वन्यजीव विशेषज्ञ औफ राज्य वन्य जीव बोर्ड की सदस्य मीतू गुप्ता भी हाथी अभयारण्य बनने में हो रही देरी को लेकर सवाल खड़ी करती हैं। गांव कनेक्शन ने बात करते हुए कहती हैं, “23 नवंबर 2019 को वन्य जीव बोर्ड की पहली बैठक में ही 1995.48 वर्ग किलोमीटर में हाथी अभयारण्य बनाने पर सहमति बन चुकी थी। कैबिनट की मंजूरी पहले ही हो चुकी थी. कम से कम जो मंजूर इलाका है, उसे तो अधिसूचित कर ही देना चाहिए।”
2005 में शुरू हुई थी अभयारण्य बनाने की प्रक्रिया
छत्तीसगढ़ में हाथियों के लिए अलग से अभयारण्य बनाने की प्रक्रिया भाजपा के शासनकाल में 2005 से ही चल रही है। भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में उसी समय छत्तीसगढ़ विधानसभा में पहली बार सर्वसम्मति से हाथी अभयारण्य बनाने के लिए अशासकीय संकल्प पारित किया गया।
इसके तहत बादलखोल-सेमरसोत अभयारण्य और तमोर-पिंगला अभयारण्य के कुछ इलाकों के साथ हसदेव अरण्य और धर्मजयगढ़ के 450 वर्ग किलोमीटर के इलाके में हाथी अभयारण्य बनाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया। जिस पर केंद्र सरकार ने 2007 में अपनी मुहर लगा दी। बादलखोल-सेमरसोत अभयारण्य और तमोर-पिंगला अभयारण्य को तो राज्य सरकार ने फौरन अधिसूचित कर दिया।
लेकिन हसदेव अरण्य के इलाके में कोयला खदानों के आवंटन के कारण राज्य सरकार ने 450 वर्ग किलोमीटर के इलाके में हाथी अभयारण्य बनाने के अपने ही फैसले पर चुप्पी साध ली। बाद में मामले को लेकर छुटपुट कार्यवाहियां होती रही, लेकिन मामला ठंडे बस्ते में ही रहा।
कांग्रेस का था वादा- नहीं होने देंगे खनन
जिस इलाके में इन दिनों कोयला खदानों का आवंटन धड़ल्ले से जारी है, उसी इलाके में 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले विपक्ष के नेता के तौर पर भूपेश बघेल आदिवासियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आंदोलन करते रहे थे। 15 जून 2015 को मदनपुर में कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी की सभा हुई।
इस सभा में उन्होंने वादा किया कि अगर आदिवासी और ग्रामसभा नहीं चाहेगी तो क्षेत्र में कोयला खनन नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने आदिवासियों की लड़ाई को कांग्रेस पार्टी की लड़ाई घोषित करते हुए भरोसा दिलाया कि आदिवासियों के विस्थापन और जंगलों के नष्ट किए जाने की शर्त पर कथित विकास की प्रक्रिया को मंजूरी नहीं दी जाएगी।
नवंबर 2018 में राज्य में कांग्रेस की सरकार आने के बाद भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने। उन्होंने हाथियों की बढ़ती हुई संख्या और पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखने की बात कहते हुए 15 अगस्त 2019 को राज्य के 1995.48 वर्ग किलोमीटर इलाके में लेमरू हाथी अभयारण्य बनाने की घोषणा की। उसके कुछ ही दिनों बाद 27 अगस्त को मंत्रीमंडल ने इसकी मंजूरी भी दे दी।
मंत्रीमंडल के इस फैसले में कहा गया कि यह दुनिया में अपनी तरह का पहला हाथी अभयारण्य होगा, जहां हाथियों का स्थायी ठिकाना बन जाने से उनकी अन्य स्थानों पर आवाजाही रुकेगी और इससे होने वाले जान-माल के नुकसान पर अंकुश लगेगा।
वन मंत्री ने ही खदानों की नीलामी पर जताई थी आपत्ति
इसके बाद राज्य सरकार ने लेमरू हाथी अभयारण्य का क्षेत्रफल बढ़ाकर 3827 वर्ग किलोमीटर करने की घोषणा की और उस पर काम करना शुरू किया गया। 3827 वर्ग किलोमीटर के प्रस्तावित इलाकों में वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 36 (ए) के तहत ग्राम सभाओं में चर्चा शुरू की गई। हालांकि कई इलाकों में हाथी अभयारण्य को लेकर भ्रम की स्थिति भी बनी और विरोध भी हुए, लेकिन राज्य सरकार ने अलग-अलग अवसरों पर स्पष्ट किया कि अभयारण्य क्षेत्र में रहने वाले लोगों के किसी तरह के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।
इस दौरान केंद्र सरकार ने प्रस्तावित इलाके में कोल खदानों की नीलामी की प्रक्रिया शुरू कर दी। इसके बाद राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिखकर अपनी आपत्ति जताई।
मोहम्मद अकबर ने केंद्र से अनुरोध किया कि आगामी कोल ब्लॉक नीलामी में हसदेव अरण्य और उससे सटे मांड नदी के जल ग्रहण क्षेत्र और प्रस्तावित हाथी अभयारण्य की सीमा में आने वाले क्षेत्रों में स्थिति कोल ब्लॉकों को शामिल न किया जाएगा। इसके बाद 1 जुलाई 2020 को मोहम्मद अकबर ने फिर एक बार केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिखा और अपनी मांग दुहराई।
इस पत्र का असर भी हुआ और केंद्र सरकार ने 1 सितंबर 2020 को प्रस्तावित लेमरू हाथी रिजर्व इलके के पास कोयला खदानों मोरगा-2, मोरगा दक्षिण, मदनपुर उत्तर, श्यांग और फतेपुर पूर्व को अपनी नीलामी की सूची से बाहर कर दिया।
इसी तरह का एक पत्र 11 जनवरी 2021 को राज्य के खनिज सचिव अंबलगन पी ने केंद्र सरकार के कोयला मंत्रालय के सचिव को भेजा था, जिसमें 3827 वर्ग किलोमीटर में प्रस्तावित लेमरू हाथी अभयारण्य का हवाला देते हुए मदनपुर दक्षिण और केते एक्सेटेंशन कोयला खदान की नीलामी पर रोक लगाने की मांग की गई थी।
अपने वादे से ही पलट रही सरकार
इस तरह के तमाम पत्र व्यवहार के पांच महीने बाद ही राज्य सरकार ने अचानक पलटी मार दी और आठ जनप्रतिनिधियों के पत्र का हवाला देते हुए लेमरू हाथी अभायरण के क्षेत्र को 450 वर्ग किलोमीटर करने की बात कही। इन आठ जनप्रतिनिधियों में स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव का नाम भी शामिल था। इस पर सिंहदेव ने कड़ी आपत्ति जताई। इस संबंध में उन्होंने 30 जून 2021 को मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को एक चिट्ठी लिखी।
टीएस सिंहदेव ने चिट्ठी में लिखा, “26 जून को एक पत्र मेरे संज्ञान में आया है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे द्वारा जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुए यह अनुरोध किया गया है कि लेमरू हाथी रिजर्व का क्षेत्र 450 वर्ग किलोमीटर तक सीमित किया जाए. यह पूर्णत: तथ्यविहीन एवं भ्रामक है. मेरे द्वारा ऐसा कोई भी अनुरोध नहीं किया गया है। मैने स्वंय कैबिनेट की बैठक में और अन्य स्तरों पर इस अभयारण्य को 1996.48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थापित करने का समर्थन इस आधार पर किया है कि इसके दायरे में मेरे विधानसभा क्षेत्र का कोई राजस्व ग्राम न आ रहा हो… मैंने कैबिनेट की बैठक में लेमरू हाथी अभयारण्य को 450 वर्ग किलोमीटर तक ही रखा जाए, ऐसा कहीं नहीं कहा है. न मौखिक-न लिखित। इसके अतिरिक्त मेरा यह सुझाव है कि यूपीए शासन काल के नो गो एरिया के निर्णय को पुन: लागू किया जाए।”
सरकार ने जिन आठ विधायकों का हवाला देकर लेमरू अभयारण्य को 450 वर्ग किलोमीटर करने का प्रस्ताव लाया था, उनमें से 5 विधायक के विधानसभा का कोई हिस्सा उसमें नहीं आ रहा था।
इसके बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं वन्यजीव विशेषज्ञों के साथ विपक्ष ने भी सरकार को घेरना शुरू किया। विधानसभा के मानसूत्र सत्र में वन मंत्री को सफाई देनी पड़ी कि लेमरू हाथी अभयारण्य 1995 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ही बनाया जाएगा।
हालांकि छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं, “राज्य सरकार ने जिस इलाके में लेमरू हाथी अभयारण्य का प्रस्ताव पारित किया है, उसके दायरे से कोल ब्लॉकों को जानबूझकर बाहर रखा गया। इससे साफ जाहिर था कि सरकार की नजर कोयला खदानों पर थी और वह उन्हें बेचकर राजस्व कमाना चाह रही थी। यही वजह थी पर्यावरणविद् और आदिवासी मुद्दों पर कार्य करने वालों ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन लेमरू हाथी अभयारण्य के चारों ओर कोयले का खनन किया जाएगा तो हाथियों का कॉरिडोर खत्म हो जाएगा। ऐसे में हाथी अभयारण्य बनाने का कोई औचित्य ही नहीं रहा जाएगा।
विपाशा पॉल कहती हैं, “1995.48 वर्ग किलोमीटर में हाथी अभयारण्य बना भी दिया गया तो इसका कोई औचित्य नहीं है। हाथियों के कॉरिडोर में कोयले का खनन होगा तो हाथी आएगा और जाएगा कहां से? ऐसे में किस बात का हाथी अभयारण्य? अगर सरकार की मंशा सही है तो पूरे 3827 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को हाथी अभयारण्य के तौर पर अधिसूचित करना चाहिए।”
हसदेव अरण्य के इलाके में ही रहने वाले फिल्मकार अमलेंदु मिश्रा, राज्य सरकार की वन्यजीव बोर्ड के सदस्य भी हैं। बरसों पहले इसी इलाके के हाथियों पर बनी और ग्रीन ऑस्कर से पुरस्कृत फिल्म ‘द लास्ट माइग्रेशन’ के कैमरा पर्सन रहे अमलेंदु राज्य में मानव-हाथी संघर्ष को लेकर बेहद चिंतित हैं और वे सरकारी उपाय को नाकाफी मानते हैं।
अमलेंदु कहते हैं, “हाथी वाले इलाके में सरकार को बिल्कुल भी खनन की अनुमति नहीं देनी चाहिए। अगर, ऐसा किया जा रहा है तो यह वाइल्ड लाइफ एक्ट का भी उलंघन है। हाथी अभयारण में आप ऐसी कोई गतिविधि नहीं कर सकते, जिससे हाथियों का आवागमन प्रभावित हो। सरकार की जिम्मेदारी हाथियों और वनवासियों दोनों को बचाने की है। अगर सरकार 1995.48 वर्ग किमोमीटर क्षेत्र में हाथी अभयारण बना देती है और उसके चारों ओर खनन की अनुमति दे देती है तो हाथी अभयारण तो टापू बनकर रह जाएगा। हाथी का कॉरिडोर खत्म हो जाएगा और हाथी अपना रहवास बदल लेंगे। ऐसे में हाथी अभयारण बनाने का क्या औचित्य रह जाएगा. हाथी नहीं रहेंगे तो सबकुछ धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा और इसका सबसे ज्यादा असर मानव जाति पर पड़ेगा।”।