उन्नाव (उत्तर प्रदेश)। सुषमा केवल 11 साल की थीं, जब उनकी शादी 15 साल के संतोष कुमार से हुई थी। संतोष उन्नाव के बलाई घाट पर अंतिम संस्कार कराते थे। सुषमा 26 साल उम्र में विधवा हो चुकी थीं और वह दो बेटों की मां भी थीं।
घाट पर छांव में बैठी सुषमा ने अपने दुपट्टे को सिर पर समेटते हुए सामने बहती गंगा नदी को देखा और गहरी सांस लेते हुए कहा, “माता रानी सब जानती हैं।” इस दौरान उनके पीछे कई चिताएं जल रहीं थीं।
सुषमा उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 80 किलोमीटर दूर उन्नाव जिले के हाड़ा नाम के गांव में गंगा घाट से पांच किलोमीटर दूर रहती हैं और पिछले 20 साल से घाट पर शवों का एक पंडा ( कर्मकांड करने वाले पुरोहित) की तरह अंतिम संस्कार करवा रही हैं।
पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान इस काम को करने का साहस जुटाने वाली 42 साल की सुषमा ने बताया, “मेरे मां या मेरे पति की ओर से किसी ने भी मेरी मदद नहीं की। मुझे अपने बेटों को खाना खिलाना था। मुझे अंतिम संस्कार कराने के बारे में थोड़ा बहुत पता था, इसलिए मैंने यही करने का निर्णय लिया।”
उन्होंने अपनी साड़ी से रेत झाड़ते हुए कहा, “देखो, मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं। मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था।”
गंगा घाट पिछले कुछ दिनों से चर्चा में हैं। क्योंकि नदी में शव देखे गए तो दूसरी ओर सैकड़ों शवों का अंतिम संस्कार किया गया और इसके किनारे पर दफनाया भी गया। इनमें से कई का तो कोरोना से मरने का अंदेशा है।
यही वजह है कि सुषमा भी कुछ दिनों से ज्यादा व्यस्त रही हैं। अपनी दिनचर्या के बारे में सुषमा बताती हैं, “मैं सुबह पांच बजे उठती हूं। नहाने के बाद खाना बनाती हूं और करीब दस बजे श्मशान घाट के लिए निकल पड़ती हूं। मैंने आज सुबह कद्दू की सब्जी और रोटियां बनाई। उनमें से मैंने कुछ खा लिया और बाकी रात के खाने के लिए रख दिया। जब रात को लौटती हूं तो मैं वही खाना खाती हूं, नहीं तो सोने चली जाती हूं। हां, जब मैं यहां घाट होती हूं तो कुछ नहीं खाती हूं। सिर्फ पानी पीती हूं।”
पति की मौत के कुछ साल बाद ही सुषमा के छोटे बेटे की भी बीमारी से मौत हो गई। वह बताती हैं, ” मेरा बड़ा लड़का शादीशुदा है और अपनी पत्नी के साथ पंजाब में रहता है।”
16 मई को जब गांव कनेक्शन की उनसे मुलाकात हुई तो वह एक दाह संस्कार करवा चुकी थीं। उन्होंने कहा कि बलाई घाट पर दो अन्य महिलाएं भी यही काम करती हैं।
“आज मुझे एक परिवार से चार सौ रुपये मिले। कभी-कभी यह 150 या 200 से अधिक नहीं होता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों में 1,500 रुपये तक कमाए हैं।” उसने कहा।
“इस काम करने के लिए मुझे कोई तय राशि नहीं मिलती है। मुझे समझ सकती हूं कि किसी को खोने पर कैसा लगता है। मैं किसी ऐसे व्यक्ति के साथ पैसे के बारे में सौदेबाजी नहीं करती, जिसने अभी-अभी अपने किसी करीबी को खोया है।”
जब गांव कनेक्शन ने सुषमा से पूछा कि उन्होंने श्मशान घाट पर काम करना क्यों चुना, जो एक महिला के लिए असामान्य है? इस सवाल पर उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं अकेली महिला नहीं हूं। आपको मेरे जैसी और भी मिलेंगी, जो बेसहारा हैं, छोड़ी हुई हैं, विधवा हैं और अपने परिवार के लिए यह काम कर रहे हैं।”
जब उनके पति की मौत हो गई तो सुषमा ने फैसला किया कि किसी और के लिए मजदूर के रूप में काम करने की तुलना में यह काम करना बेहतर विकल्प है। सुषमा ने आगे कहा, “मैं एक औरत हूं। मुझे अपने बच्चों का सम्मान पूर्वक पालन-पोषण करना था। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी कि लोग मुझ पर उंगली उठाएं। “
सुषमा ने याद करते हुए बताया कि जब उसने पहली बार यह काम करना शुरू किया तो वह डर गई थी। “दिन भर शवों को देखकर, उनका अंतिम संस्कार करते हुए लंबे समय तक मैं जलती हुई लाशों के दृश्यों और विलाप करने वाले रिश्तेदारों की आवाज़ अपने जेहन से निकाल नहीं पाई, लेकिन माता रानी ने मुझे ताकत दी। “
“अब मुझे ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती है।” उन्होंने कहा कि निराशा, लाचारी और गरीबी ने मुझे मजबूत बनना सिखाया। आखिर में उन्होंने कहा, “माता रानी हमेशा मेरे साथ खड़ी रही हैं। मुझे पता है कि वह तब तक मेरे साथ है, जब तक कि मैं भी पार नहीं लग जाती। “