लॉकडाउन: शहरों में फंसे कामगारों को नहीं मिल रही सैलरी, बोले- बिना पैसे गांव गए तो खाएंगे क्या?

केंद्र सरकार ने भले ही कंपनियों से सैलरी न काटने की अपील की हो, लेकिन बड़े शहरों में फंसे असंगठित क्षेत्र के बहुत से कामगार पैसे-पैसे को मोहताज हैं। उनके साथ समस्या यह भी है कि बिना पैसे वे गांव जाकर भी कैसे रहेंगे। पढ़ें पूरी रिपोर्ट

Mithilesh DharMithilesh Dhar   4 May 2020 2:45 PM GMT

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Coronavirus Lockdown, पी चिदंबरम, कांग्रेस, नरेंद्र मोदी, कोरोना वायरस, कोरोना वायरस लॉकडाउन, salary in lockdownये तस्वीर गुजरात के सूरत की है। वहां पिछले दिनों कामगारों ने सैलरी न मिलने के बाद काफी हंगामा किया था।

आपको पता है कि सरकार ने कहा कि दूसरे प्रदेश में फंसे लोग अपने घर जा सकते हैं, "घर जाकर क्या करूंगा, वहां कोई बैठाकर तो नहीं खिला देगा। यहां जो काम किया है उसका पैसा तो मिल नहीं रहा, वहां कैसे पेट भरेगा?"

मूलत: बुदेलखंड के जिला बांदा के रहने वाले उपेंद्र मांझी घर जाने के नाम पर एक दम से भड़क जाते हैं। फिर कुछ देर शांत रहते हैं और दोबारा बोलना शुरू करते हैं।

"घर पर फोन करके बाबू जी को बताया कि मैं जल्दी ही घर आ जाऊंगा तो वे ज्यादा खुश नहीं हुए, तुरंत पूछने लगे कि कंपनी से बकाया पैसा मिला की नहीं?"

उपेंद्र मांझी (38) गुजरात के अहमदाबाद में रहते हैं। वह वहां कपड़ा बनाने वाली एक कंपनी में जिंस-पैट पर लेबल लगाने का काम करते थे। मार्च में लॉकडाउन शुरू होते ही उनकी कंपनी बंद हो गई। जब कंपनी बंद हुई तो उनकी उस महीने की सैलेरी नहीं आई थी। जब वह कंपनी में फोन करते हैं तो जवाब मिलता है कि जब लॉकडाउन खुलेगा और पैसे आने लगेंगे पैसे तब मिलेंगे। ऐसा बस उपेंद्र के साथ ही नहीं हो रहा है।

उत्तर प्रदेश के नोएडा में रहने वाले संतोष प्यासा बुदंलेखंड के हमीरपुर के रहने वाले हैं और एक कंपनी में पेपर डिजाइनिंग का काम करते हैं। संतोष भी वेतन नहीं मिलने की वजह से परेशान हैं।

वह कहते हैं, "मार्च की सैलेरी आई नहीं और अप्रैल की भी नहीं आएगी। मकान मालिक रोज धमकी देकर जाता है। बोलता है कि पैसे दो नहीं तो रूम खाली करो। अपने मालिक से पैसे मांगता हूं तो कहते हैं कि लॉकडाउन खत्म होने दो, उसके बाद जब पैसे आएंगे तब दूंगा।"

पानी की कमी और सूखे की मार झेलने वाले उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच फैले बुंदेलखंड की बड़ी आबादी दूसरे प्रदेशों में प्रवासियों की जिंदगी जीती है।

इकोनॉमिक टाइम्स ने कारोबारियों और रोजगार मुहैया कराने वाली एजेंसियों के हवाले से अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि लॉकडाउन की वजह से लगभग 10 से 12 करोड़ लोगों को मार्च महीने का वेतन नहीं मिला। ये कामगार असंगठित क्षेत्रों के हैं जिनकी संख्या देश में 70 से 80 फीसदी है।

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात में कंपनी मालिकों से कहा था कि वे ऐसी मुश्किल घड़ी में अपने कर्मचारियों की मदद करें उन्हें नौकरी से न निकालें, लेकिन नौकरियों तो जा ही रहीं हैं, शहरों में फंसे बहुत से कर्मचारी ऐसे भी हैं जिन्हें सैलेरी नहीं मिल रही है।

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यही नहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और भारत के वित्त मंत्री रहे पी चिंदबरम ने चिंता जाहिर की है 10 से 12 करोड़ कामगारों को अप्रैल महीने की भी तनख्वाह नहीं मिलेगी।

सोशल मीडिया के माध्यम से उन्होंने कहा है, "भारत के 12 करोड़ से ज्यादा लोग सांस रोककर इंतजार कर रहे हैं और वे केवल इतना जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें अप्रैल माह के लिए उनका वेतन/भत्ता मिलेगा। स्पष्ट रूप से भारत के मेहनतकश नागरिक और उनका परिवार तनाव व बढ़ती अनिश्चितता की स्थिति में है।"

उन्होंने आगे कहा, "सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 6.3 करोड़ एमएसएमई में 11 करोड़ लोग काम करते हैं। उनमें से ज्यादातर अप्रैल माह में एक दिन भी काम नहीं कर पाए, क्योंकि कोरोना महामारी को रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाऊन लागू है। आय के बिना ये लोग अपने और अपने परिवार का पालन पोषण कैसे करेंगे? 11 करोड़ भारतीयों को बचाने तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों को उम्मीद की किरण देने के लिए भारत सरकार को तुरंत हस्तक्षेप करना होगा।"

रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि बड़ी संख्या में कामगार बिना वेतन ही गांव लौट गये हैं।

"ऐसे में हम सरकार से मांग करते हैं कि अप्रैल माह के लिए वेतन व भत्ते देने में मदद के लिए एमएसएमई क्षेत्र को एक लाख करोड़ रु. के वेतन सुरक्षा पैकेज (Wage Protection assistance) की घोषणा की जाए और एमएसएमई क्षेत्र के लिए एक लाख करोड़ रु. के कर्ज गारंटी कोष की स्थापना की जाए, जिससे उन्हें बैंक से ऋण लेने में मदद मिले।"

हालांकि सरकार ने अभी तक शहरों में रहकर छोटी तनख्वाह में गुजारा करने वाले लोगों को किसी भी तरह की राहत देने की घोषणा नहीं की है।

संतोष प्यासा भी इसी बात को लेकर नाराजगी जताते हुए कहते हैं, "सरकार अभी बस मजदूरों की बात कर रही है। उन्हें हर महीने कुछ पैसे देने की भी बात चल रही है, लेकिन हम जैसे लोगों का क्या होगा, जबकि हमारी स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। मेरे पास न तो पैसे हैं अब और न ही राशन। मजदूरी कर नहीं सकता क्योंकि पहले कभी किया नहीं। जहां नौकरी कर रहा हूं, वहां पैसे मिलने की कोई संभावना नहीं दिख रही। सामने समस्सा और विकट है।"

उपेंद्र भी कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं। वह कहते हैं, "कुल मिलाकर 14 हजार रुपए सैलेरी मिलती थी। इसमें से पांच हजार रुपए किराये में चला जाता है। बाकी के बचे पैसों से घर का खर्च चलता है। चार बेटियों में से दो बेटियां स्कूल भी जाती हैं, उनका खर्च अलग है। बचता कुछ नहीं था।"

"पिछले महीने कुछ रिश्तेदारों से पैसे लेकर खर्च चलाया था, लेकिन उनसे कब तक घर चलेगा। दो महीने का एडवांस दिया था इसलिए मकान मालिक कुछ बोल नहीं रहा, लेकिन कब तक। घर पर खेती-बाड़ी भी नहीं है। वहां खरीदकर ही खाना होगा। बुंदेलखंड में नौकरियां कितनी हैं, यह तो किसी से छिपा नहीं हैं। इसलिए मैं तो सोच रहा हूं काम शुरू हो जाये और मुझे मेरे पैसे मिल जाये। पैसे नहीं होंगे तो गांव जाकर भी तो मर ही जाऊंगा।" वे आगे कहते हैं।

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स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) नाम के एक गैर लाभकारी संगठन (एनजीओ) ने लॉकडाउन के पहले चरण यानी कि 25 से 14 अप्रैल के बीच लॉकडाउन में फंसे प्रवासी मजदूरों/कामगारों पर एक सर्वे किया था। 15 अप्रैल को जारी की गई इस सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया कि लॉकडाउन-1 की अवधि में 89 फीसदी प्रवासी मजदूरों/कामगारों को उनके एंप्लॉयर ने वेतन का भुगतान ही नहीं किया है। ये वे श्रमिक वे थे जो या तो अपने अपने गृह-राज्य लौट नहीं पाए या उन्होंने जाने की कोशिश भी नहीं की।

महाराष्ट्र के मुंबई के नाला सोपाड़ा में रहने वाले चक्रेश कुमार (26) भी घर नहीं जाना चाहते। मूलत: जौनपुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले चक्रेश मुंबई में लॉजिस्टिक कंपनी में काम करते हैं। महीने की 10 तारीख तक सैलरी आती है, लेकिन लॉकडाउन की वजह मार्च महीने की नहीं आई। अप्रैल की भी आने की उम्मीद नहीं है।

शहरों में रुके कामगारों के अब पैसे भी नहीं बचे हैं। ऐसे में वे मुश्किल से अपना पेट भर पा रहे हैं।

वह गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "मैं यहां तीन लोगों के साथ रहता हूं। रूम का किराया 10,000 रुपए पड़ता है जिसे सभी लोग बाराबर में देते हैं। गांव में थोड़ा बहुत खेत है जिससे साल में एक-दो फसल हो जाती है। जो भी होता है, इतना नहीं होता कि वह सालभर चल पाये। मार्च महीने की सैलेरी जो 10 अप्रैल तक आती, नहीं आई। इस महीने दो दिन पहले ऑफिस में फोन किया था तो बोले कि जब काम होगा तभी तो पैसे मिलेंगे। काम शुरू हुआ तो धीरे-धीरे सभी पैसे मिल जाएंगे।"

"पिता जी के पास भी इतने पैसे नहीं हैं कि उनसे गांवों से मंगा सकूं। 15,000 रुपए महीने का मिलता था। इसमें से अपने खर्च के लिए निकालकर हर महीने घर भेज दिया करता था। बहन की शादी भी तो करनी है। अब मैं क्या करूं? गांव अगर चला भी जाऊंगा तो वहां क्या करूंगा। यह भी सोचता हूं कि मान लो गांव चला गया और यहां काम शुरू हो गया और समय पर आ नहीं पाया तो नौकरी भी चली जायेगी। रोज सुबह जाकर खिचड़ी लेकर आता हूं, उसी से काम चला रहा हूं। कुछ पैसे हैं जिसे अभी खर्च नहीं कर सकता। मुश्किल समय के लिए बचाकर रखा हूं।"

स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, लॉकडाउन में फंसे अधिकांश प्रवासी कामगारों को अपने बिल्डर या कंपनी के नाम की भी जानकारी नहीं है, जिसके लिए वे काम करते थे। इन कामगारों के केवल उन लोगों के साथ संपर्क हैं जिनके साथ इनको ठेकेदार काम करने के लिए लाए थे।

ऐसे ही एक कामगार हैं अनूप कुम्हार। उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रहने वाले अनूप महाराष्ट्र मुंबई के वसई में एक स्टील कंपनी में काम करते हैं। पहले लॉकडाउन के चार दिन बाद तक उनको पैसे मिले, इसके बाद बंद हो गया।

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वह गांव कनेक्शन को बताते हैं, "हम लोग स्टील के बर्तनों को ठीक करते हैं। जिस कंपनी में मैं काम करता हूं उसमें मेरे जिले के 50 से ज्यादा लोग काम करते हैं। हम सभी लोग यही लगभग 14 से 15 हजार की सैलरी पर काम करते हैं। कंपनी बंद हुए काफी समय हो गया। हमने घर जाने की कोशिश नहीं की क्योंकि वहां जाकर क्या करेंगे। हमें लगा कि कंपनी शुरू होगी तो काम पर पर जाएंगे। अप्रैल में मार्च महीने के कुछ दिनों के पैसे आये थे।"

"हमें जो ठेकेदार काम पर लाया था वह फोन करके कहता है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा। यहीं रहो, खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं होगी, लेकिन पैसे न होने की वजह से दिक्कत हो रही है। पैसे हैं नहीं, घर जाएं कि ना जाएं कुछ समझ नहीं आ रहा," अनूप आगे कहते हैं।

बिहार के अररिया जिले के रहने वाले नूर आलम जयपुर में एक लेडीज सूट बनाने वाली कंपनी में काम करते हैं। रोज काम के हिसाब से उन्हें महीने में पैसे मिलते थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद मालिक ने पैसे रोक लिए हैं।

वह गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "मेरा लगभग 20 दिन का पैसा रुका हुआ है। लॉकडाउन के बाद कुछ दिनों का पैसा मिला था, बाकी का रुका हुआ था। इतने पैसे भी नहीं हैं कि घर जाने के बाद वहां एक दो महीने बैठकर खा लूंगा। अब्बा और अम्मी भी बूढ़े हो चुके हैं। वे लोग बुला रहे हैं, लेकिन खाली जेब कैसे घर जाऊंगा।"


ट्रेड यूनियंस ने केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखकर वेतन के मामले को उठाया है। भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) और सीटू (Centre of Indian Trade Unions) ने अलग-अलग लिखी चिट्ठियों में देश भर में लॉकडाउन से विभिन्न सेक्टरों में श्रमिकों को पेश आ रही परेशानियों का जिक्र किया है।

यूनियंस ने अपनी चिट्ठी में लिखा है, ''छोटे कारोबार और लघु एवं कुटीर उद्योग बड़ी दिक्कत में फंस गए हैं। अधिकतर के पास अपने कर्मचारियों को पैसे देने और कारोबार का वजूद बनाए रखने के लिए फंड नहीं है। सरकार को ऐसे चैनल विकसित करने चाहिए जो इन कर्मचारियों का ध्यान रख सके।"

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आने वाले समय में कामगारों के लिए स्थिति और खराब हो सकती है। उद्योग जगत के संगठन कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि लॉकडाउन के बाद 15 से 30 फीसदी लोगों की नौकरियां भी जाएंगी। इसका मतलब यह निकालिये कि जो लोग घर पहुंच गये हैं, उन्हें वापस आने पर दोबारा नौकरी मिलेगी की नहीं, यह कहा नहीं जा सकता।

स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव कहते हैं, "देश में 11 करोड़ लोग ऐसे हैं जो कृषि क्षेत्र के अलावा दूसरे क्षेत्रों में काम कर जीविका चला रहे हैं। इसके अलावा छह करोड़ लोग स्वरोजगार से जुड़े हुए हैं, जबकि 2.5 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें सैलरी मिलती है, लेकिन ये नौकरी स्थायी नहीं है। करोड़ों लोगों का रोजगार संकट में है। सरकार को इनके लिए जल्द कदम उठाने होंगे, नहीं तो बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा। दुनिया के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि एक झटके में 12 करोड़ लोगों पर रोजगार का संकट आ गया है, यह एक ऐतिहासिक दुर्घटना है।"

नई दिल्ली स्थित युवाओं का संगठन युवा हल्ला बोल बेरोजगारी के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन कर रहा है। लॉकडाउन के दौरान इन्होंने लोगों की मदद के लिए टोल फ्री नंबर जारी किया था जिस पर सैलरी न मिलने की शिकायतें बहुत मिलीं।

इस टीम को लीड कर रहे अनुपम कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान हमने टोल फ्री नंबर की शुरुआत लोगों की मदद के लिए की थी, लेकिन उस पर सैलरी न मिलने और सैलरी में कटौती की शिकायतें बहुत आ रही हैं। लोग फोन करके बता रहे हैं कि किसी की नौकरी चली गई तो किसी को दो महीने की सैलरी नहीं मिली।"

  

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