नश्तर की तरह चुभते हैं अदम गोंडवी के शब्द ... आज इस मशहूर कवि का जन्मदिन है

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नश्तर की तरह चुभते हैं अदम गोंडवी के शब्द ... आज इस मशहूर कवि का जन्मदिन हैआज मशहूर कवि अदम गोंडवी का जन्मदिन है।

लखनऊ। अरे आप को याद आया कि नहीं गोंडा के वो मशहूर कवि जिनका असली नाम रामनाथ सिंह था। जिनकी लिखी कविताएं राजनीति करने वालों को नश्तर की तरह चुभती थी। जो वो कहते थे तो राजनीति करने वाले छोटे से बड़े नेता खिसयानी हंसी हंसते थे पर वहीं आम जनता, गरीब व्यक्ति, किसान, मजदूर सभी दाद पर दाद देते थे।

देश की आजादी के ठीक सवा दो महीने बाद 22 अक्टूबर 1947 को रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी का जन्म हुआ था। उत्तर प्रदेश सूबे के गोंडा जिले के परसपुर का आटा गांव अदम गोंडवी जन्मस्थल था।

अदम गोंडवी ने समाज में फैली बुराईयों, कुरीतियों के खिलाफ जंग छेड़ी। और हथियार बनाया अपने शब्दों को। कभी शेरों तो कभी कविताओं तो कभी लेखों से जिस पर निशाना साधते थे तो तीर सीधे लक्ष्य पर ही लगता था। जिनको लगता था वो बगलें झकते मिलते थे। और दर्द से बिलबिला जाते थे।

आपके सामने उनके लिखे कुछ अंश गौर फरमाइएगा.....

हिंदोस्तान को नीलाम कर देंगे..

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे

कमीशन दो तो हिंदोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये वंदे-मातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठ कर

मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस दे कर बच गई कुर्सी तो देखोगे

वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे

एक जन सेवक को दुनिया में...

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे

अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे

आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए

चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे

काजू भुने प्लेट में...

काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

इतना असर है खादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह

जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें

संसद बदल गई है यहाँ की नखास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

जो उलझ कर रह गई फाइलों...

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में

गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई

रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए

हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में

ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में

यह थोड़ी लम्बी है पर पढ़े आपको मजा न आया तो कहिएगा

मैं चमारों की गली में ले...

आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा

मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई

लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है

जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से

घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में

क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई

छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया

वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में

होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था

जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा, 'काका, तू कैसे मौन है

पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं

कच्चा खा जाएँगे ज़िंदा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें

और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें'

बोला कृष्ना से - 'बहन, सो जा मेरे अनुरोध से

बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से'

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में

वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर

देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर

'क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया

कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो

सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ

पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है

न पुट्ठे पे हाथ रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ

फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई

जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई

वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है

हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की

गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी'

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया

हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था

हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था

भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी सँभाले हाथ में

एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने

'जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर

इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया

सुन पड़ा फिर, 'माल वो चोरी का तूने क्या किया?'

'कैसी चोरी माल कैसा?' उसने जैसे ही कहा

एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर

ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो

आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी

बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था

वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे

कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

'कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं

हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं'

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