झारखंड की 'हो' जनजाति का 'मागे पोरोब' – साथ मिलकर रहने, समानता और सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने का उत्सव

जनवरी और अप्रैल के बीच मनाया जाने वाला ‘हो’ जनजाति का ‘मागे पोरोब’ लगभग सात दिनों तक चलता है। गुरी परब के पहले दिन घरों को अच्छी तरह से साफ करके गाय के गोबर से लीपा जाता है। इसके बाद मवेशियों और कीड़ों की पूजा की जाती है। आदिवासी नदी में डुबकी लगाते हैं, अलाव जलाते हैं, दावते की जाती है और पारंपरिक नृत्य करके इस पर्व को जश्न की तरह मनाया जाता है।

Manoj ChoudharyManoj Choudhary   1 March 2022 6:55 AM GMT

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झारखंड की हो जनजाति का मागे पोरोब – साथ मिलकर रहने, समानता और सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने का उत्सव

‘हो’ परंपरा मानती है कि गांवों को सात जातियों ने मिलकर बनाया है। इनमें चासी होदो (किसान), गोप (चरवाहा), कुंकल (कुम्हार), कमर (लोहार), तांती (बुनकर), टेट्रा (धातु के बर्तन बनाने वाले) और डोम (बांस के बर्तन बनाने वाले) शामिल थे। मागे उत्सव में हर किसी की खास भूमिका होती है। सभी फोटो: मनोज चौधरी

 

नोवामुंडी बस्ती, पश्चिमी सिंहभूम (झारखंड)। सफेद धोती पहने अपने पति राधे सुरेन के साथ गुड़िया सुरेन अपनी हरी साड़ी और गहनों में सजी-धजी खड़ी हैं। वे दोनों देसौली (पूजा स्थल) जा रहे हैं। जहां वो जनजाति के साथी सदस्यों के साथ अपने पूर्वजों की औपचारिक पूजा शुरू करेंगे।

झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के नोआमुंडी बस्ती गांव में सामाजिक सद्भाव बनाए रखने और सभी के लिए सुख शांति की कामना करने के लिए मागे पोरोब मनाने की तैयारी चल रही है। 'हो' जनजाति का यह उत्सव लुकू हदम और लुकू बुडी (जिन्हें मानव जाति के पिता- माता माना जाता है) को श्रद्धांजलि देने के लिए हर साल मनाया जाता है। इसके लिए किसी खास दिन को इंतजार नहीं किया जाता है बल्कि 14 जनवरी से 14 अप्रैल के बीच अपनी सुविधा के अनुसार कभी भी आयोजित किया जा सकता है। राज्य के कई आदिवासी गांव सालों से एक साथ मिलकर खुशी और विश्वास के साथ इस त्योहार को मनाते आए हैं।

गुड़िया और राधे के साथ अन्य आदिवासी युवा भी अपने पारंपरिक परिधान में सजे-धजे खडें है। सभी हाथ में हाथ डालकर 'सेन गे सु सुन काजी गे दुरंग' (चलना नृत्य है और बोलना संगीत है) पर पारंपरिक नृत्य करना शुरू करते हैं। वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण एक-दूसरे से अपनी जरूरत का समान खरीदते नजर आ जाएंगे। दरअसल इसका मकसद गांव के सभी लोगों की एक-दूसरे पर निर्भरता और सामाजिक एकता को बनाए रखना है।


'हो' जनजाति झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां जिलों में पाई जाती है। इसके अलावा ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ जिलों के कुछ हिस्सों और पश्चिम बंगाल के बांकुरा जिले में भी इस जाति के लोग रहते हैं।

सृष्टि की शुरुआत से जुड़ा पर्व

लोगों की चहल-पहल और खुशी से स्थानीय दारू या पेड़ों से घिरा देसौली मैदान गुलजार नजर आ रहा है। हर तरफ युवा, बुढ़े और महिलाएं झुंड बनाकर बातचीत में व्यस्त हैं।

आदिवासी हो समाज महासभा के उपाध्यक्ष नरेश देवगाम ने गांव कनेक्शन को बताया, "पृथ्वी को बनाने के बाद सर्वशक्तिमान ने लुकू हदम को बनाया था। लेकिन लुकू अकेला था। फिर भगवान ने उसे एक साथी देने का फैसला किया। तब लुकू हदम की पसली और झींगे के खून से लुकू बूडी को बनाया गया था।"

लुकू बुडी और लुकू हदम से जुड़ी कई कहानियां हैं जो इस पर्व का हिस्सा हैं। ऐसी ही एक कहानी इली दियांग नामक पेय से जुड़ी है। चावल और जंगलों की 56 जड़ी-बूटियों से बना ये पेय देवताओं को चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब लुकू बूदी के पेट में दर्द हुआ तो भगवान ने सबसे पहले लुकू के लिए इसे तैयार किया था।


देवगाम समझाते हुए कहते हैं, "लुकू हदम और लुकू बुडी मानव जाति के पहले माता-पिता बने और 'हो' जनजाति 'मागे पोरोब' के जरिए इसका जश्न मनाती है। हमारे लिए ये त्यौहार काफी अहम है।" उन्होंने बताया कि अनुष्ठान के दौरान पुजारी या दिउरी और उनकी पत्नी दिउरी युग बिना सिले कपड़े पहनते हैं। महिलाओं को बराबरी का अधिकार देना, इस पर्व की एक और खासियत है। अनुष्ठानों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसलिए यहां एक अविवाहित पुजारी को पूजा करने के अनुमति नहीं दी जाती।

सबको साथ लेकर चलने वाली परंपरा

'हो' परंपरा मानती है कि गांवों को सात जातियों ने मिलकर बनाया है। इनमें चासी होदो (किसान), गोप (चरवाहा), कुंकल (कुम्हार), कमर (लोहार), तांती (बुनकर), टेट्रा (धातु के बर्तन बनाने वाले) और डोम (बांस के बर्तन बनाने वाले) शामिल थे। मागे उत्सव में हर किसी की खास भूमिका होती है।

त्योहार के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तन, कपड़े, लोहे के औजार और अन्य चीजें सब कुछ संबंधित जाति के लोग ही बनाते हैं। इन्हें बनाते समय उन्हे कटप या उपवास भी रखना होता है।

आदिवासी हो समाज छत्र महासभा के पूर्व सदस्य और पश्चिमी सिंहभूम के खुंटपानी ब्लॉक के राजाबासा गांव के निवासी दामू बनारा ने गांव कनेक्शन को बताया, "ग्रामीण एक-दूसरे से अपनी जरूरत का समान खरीदते हैं ताकि सभी को जीने का अधिकार मिले और एक-दूसरे पर निर्भरता बनी रहे।"

आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता ज्योत्सना तिर्की के अनुसार, पश्चिमी सिंहभूम में, पोरोब के अनुष्ठान और प्रथाओं में महिलाओं को समान अधिकार दिए जाते हैं। 'हो' जनजाति में महिलाओं की भूमिका कितनी सशक्त है, ये इसका एक बेहतरीन उदाहरण है।


पूर्णापानी पंचायत के सोमसाई गांव में रहने वाले सिदुई कुम्हार के लिए पारंपरिक अनुष्ठानों में भाग लेना और मागे पोरोब के लिए जरूरी बर्तनों का बनाना उनके लिए गर्व की बात है। वह कहते हैं, "हो जनजाति के लिए मिट्टी के बर्तन बनाते समय मैं आदिवासी रीति-रिवाजों और भावनाओं का बहुत ध्यान रखता हूं। क्योंकि वे मागे पोरोब मनाते हैं। हम इस त्योहार का हिस्सा बनना पसंद करते हैं क्योंकि यह सामाजिक सद्भाव फैलाता है।"

खुशी से जुड़ा पर हर एक पल

उत्सव कई दिनों तक चलता है। गुड़ी पर्व के पहले दिन घरों की साफ-सफाई की जाती है और उसे गाय के गोबर से लीपा जाता है। अगले दिन यानी गौमारा पर गोप(चरवाहों) घर-घर जाकर मवेशियों की पूजा करते हैं। बुंबा पर्व वाले दिन गोप कीड़ों-मकोड़ों की पूजा करते हैं।

हूरिंग पोरोब पर, ग्रामीण अपनी एकता दिखाने के लिए एक जगह पर इकट्ठा होते हैं और पांचवें दिन मनाया जाता है मारंग पोरोब। इस दिन पास के तालाब या नदी में जाकर पवित्र डुबकी लगाई जाती है। उसके बाद, देशौली के दीउरी और दिउरी युग को इली दियांग पेय परोसा जाता है। बसी पोरोब पर ग्रामीण अलाव जलाते है और सांस्कृतिक चीजों के प्रदर्शन के साथ खाने का मजा लिया जाता है।

इस दौरान कई अनुष्ठान भी होते हैं, जहां पुजारी गांव को लेकर भविष्यवाणी करते हैं। सिदुई ने बताया, "पुजारी आने वाले समय में गांवों में होने वाली अशुभ घटनाओं को रोकने के उपाय भी सुझाते हैं।"

महिलाओं को समान अधिकार

आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता ज्योत्सना तिर्की कहती हैं, "सात दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में दिउरी और दिउरी युग, दोनों की समान भूमिकाएं होती हैं। ये दोनों त्यौहार के दौरान कटप (एक उपवास) रखते हैं और तुरुप (ब्रह्मचर्य) का पालन करते हैं। अक्सर मागे पोरोब लड़के-लड़कियों के लिए अपना पार्टनर चुनने का एक अवसर भी बन जाता है।" टिर्की ने कहा कि मेगे मेले में लड़कियों को किसी के भी साथ बात करने और नाचने की छूट होती है। अक्सर ये बातचीत और मेल-मिलाप शादी तक पहुंच जाता है।

पश्चिमी सिंहभूम के टोंटो प्रखंड के पूर्णनानी गांव के रहने वाले 32 साल के सीकुर अंगरिया गांव कनेक्शन को समझाते हुए कहते हैं, "किया केपेया (आपसी सहमति) के जरिए शादी के लिए लड़कों और लड़कियों समान अधिकार दिये गए हैं। जब एक बार 'हो' लड़की शादी के लिए किसी साथी को चुन लेती है तो वह परिवार को इसके बारे में बताती है। मेगा पर्व के बाद सामाजिक स्वीकृति के लिए संस्कार सुसान (विवाह प्रथा) का आयोजन किया जाता है।"


कुछ इसी तरीके से गुड़िया और राधे की भी मुलाकात हुई थी और बाद में उन्होंने शादी कर ली। गुड़िया ने कहा, "अन्य समुदायों में भी महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने चाहिए। इससे ऑनर किलिंग रुकेगी और लड़कियां अपने साथी के साथ सुरक्षित जीवन जी पाएंगी।"

नोवामुंडी बस्ती की रहने वाली मीनाक्षी सुरेन ने गांव कनेक्शन से कहा, "हो समुदाय में लड़कियों का होना वरदान माना जाता है। उन्हें कभी बोझ नहीं समझा जाता।" उनके अनुसार, उन्हें अपने लड़की होने पर गर्व है। मिनाक्षी कहती हैं, "मागे पोरोब दिखाता है कि कैसे 'हो' जनजाति में लड़कियां समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।"

पूर्णापानी गांव की रहने वाले 60 साल की बिमला अंगरिया ने गांव कनेक्शन को बताया, "हमें उम्मीद है कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ियां इन परंपराओं का पालन करती रहेंगी।" वह आगे कहती हैं, "हमें अपने पूर्वजों द्वारा शुरू किए गए इन रीति-रिवाजों पर गर्व है और नई पीढ़ी को अपनी आध्यात्मिक विरासत को जानना चाहिए।"

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