कौन था वह ज़िद्दी किसान जो गांधी को चम्पारन ले कर गया?

दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी को उस वक्त अपने देश के बारे में ज़्यादा पता नहीं था। भारत से अधिक समझ उन्हें दक्षिण अफ्रीका की थी लेकिन यहां स्थितियों को समझने में उन्हें देर नहीं लगी और एक साल बाद ही गांधी इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक का नेतृत्व कर रहे थे।

Hridayesh JoshiHridayesh Joshi   30 Jan 2019 1:30 AM GMT

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Gandhi in champaran, Gandhi anniversary, champaran satyagrahइनसेट फोटो में किसान राजकुमार शुक्ला और चम्पारन में लगी महात्मा गांधी की युवावस्था की प्रतिमा

मोहनदास करमचंद गांधी 45 साल की उम्र में 1915 में जब भारत लौटे तो ज़मीन एक क्रांति के लिये तैयार थी। अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले की सलाह पर वह करीब एक साल तक सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और उन्होंने भारत का व्यापक दौरा किया। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे गांधी को उस वक्त अपने देश के बारे में ज़्यादा पता नहीं था। भारत से अधिक समझ उन्हें दक्षिण अफ्रीका की थी लेकिन यहां स्थितियों को समझने में उन्हें देर नहीं लगी और एक साल बाद ही गांधी इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण आंदोलनों में से एक का नेतृत्व कर रहे थे।

दिसम्बर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में पार्टी के सारे बड़े नेता इकट्ठा हुए थे। तब बिहार से यहां आए एक किसान ने गांधी से विनती की कि वह उनके साथ चम्पारन चलें और वहां नील की खेती कर रहे किसानों की दुर्दशा देखें। इस किसान का नाम था- राजकुमार शुक्ला। पत्रकार-लेखक लुई फिशर ने लिखा है कि तब गांधी को यह तक पता नहीं था कि चम्पारन कहां है। शुक्ला अशिक्षित लेकिन बहुत ही मज़बूत इरादों वाले व्यक्ति थे। पहले उन्होंने यही अनुरोध कांग्रेस के बड़े नेता बाल गंगाधर तिलक से भी किया था लेकिन तिलक का ध्यान स्वतंत्रता की लड़ाई में था और उन्होंने शुक्ला की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया।

गांधी ने भी शुक्ला को टालने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि वह कानपुर जा रहे हैं और फिर वहां से उन्हें कहीं और जाना है। शुक्ला ने हार नहीं मानी और गांधी का पीछा करते रहे। जहां गांधी जाते वहां शुक्ला उनके पीछे पहुंच जाते और कुछ वक्त बाद वह उनके पीछे-पीछे अहमदाबाद उनके आश्रम में पहुंच गए।

शुक्ला ने कहा, "चम्पारन आने की तारीख तय कर दीजिए"। गांधी ने इस किसान की ज़िद से प्रभावित होकर कहा, "मैं कुछ दिन बाद कलकत्ता (अब कोलकाता) जा रहा हूं मुझे वहीं मिलो। मैं वहां से आपके साथ चलूंगा।"

इतिहासकार रामचंद्र गुहा गांधी की ताज़ा जीवनी (GANDHI, The Years that Changed the World 1914-48) में लिखते हैं कि शुक्ला अकेले व्यक्ति नहीं थे जो गांधी को चम्पारन लाकर किसानों की दुर्दशा दिखाना चाहते थे।


गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादिक "प्रताप" अख़बार के संवाददाता पीर मोहम्मद मुनीस भी लगातार गांधी को चम्पारन के किसानों की बदहाली पर लिखते रहे। मुनीस को उम्मीद थी कि गांधी का दक्षिण अफ्रीका में काम करने का अनुभव ज़रूर किसानों को न्याय दिलाने में मदद करेगा।

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चम्पारन में नील की खेती किसानों के लिये अभिशाप थी। किसानों के लिये 15 प्रतिशत ज़मीन पर नील की खेती करने की मजबूरी जिसे लगान के रूप में देना होता। महंगी डाई बनाने के लिये नील का इस्तेमाल होता और इसे यूरोप के बाज़ारों में बेचा जाता। जो किसान नील की खेती नहीं करते उन्हें बढ़ी दरों पर लगान देना होता वरना उनकी ज़मीन हड़प ली जाती थी।

राजकुमार शुक्ला पहले गांधी को पटना में डॉ राजेन्द्र प्रसाद के घर ले गये। वहां से गांधी मुज़फ्फरपुर गये। वहां पहुंचने से पहले गांधी ने अपने परिचित जे. बी. कृपलानी को टेलीग्राम भेजा जो कई छात्रों के साथ के साथ गांधी की अगुवाई के लिये रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। यह 15 अप्रैल 1917 की रात थी। फिर गांधी ने जानकारी इकट्ठा करते हुये चम्पारन के लिये प्रस्थान किया। गांधी के पहुंचने की ख़बर आग की तरह फैलती गई। रास्ते भर लोग उनसे मिलने आते और अपना दुखड़ा सुनाते।

गांधी ने चम्पारन पहुंच कर किसानों का हाल देखा। उन्होंने स्थानीय वकीलों को फटकारा जो गरीब किसानों से अदालत में उनके मुकदमे लड़ने के लिये फीस वसूल रहे थे। फिर गांधी ने किसानों से कहा कि ऐसे मामलों में अदालत जाने का कोई मतलब नहीं है।

उन्होंने किसानों से कहा – "लगान देने से मना कर दो"। चम्पारन की लड़ाई अब शुरू हो चुकी थी। अंग्रेज़ अफसरों ने गांधी का "बाहरी"व्यक्ति बताते हुये उन्हें कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया। उन्हें वहां से चले जाने को कहा। गांधी ने ऐलान किया कि वह खुद किसान हैं और यहां के लोगों में से ही एक हैं। गांधी ने अंग्रेज़ अफसरों को बताया कि वह चम्पारन छोड़कर नहीं जाएंगे।


राजकुमार शुक्ला के वंशज

सारे चम्पारन के किसान गांधी के साथ आकर खड़े हो गए। देश के दूसरे हिस्सों से भी नेताओं का चम्पारन पहुंचना शुरू हो गया। अदालत और प्रशासन गांधी के अहिंसक असहयोग के आगे लाचार था। यह अहिंसक लड़ाई चम्पारन सत्याग्रह के नाम से जानी जाती है। यह गांधी की पहली बड़ी जीत थी। इसका वर्णन इतिहास में अलग अलग जगह विस्तार से मिलता है।

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गांधी ने कहा था – "मैंने चम्पारन सत्याग्रह में जो किया वह बहुत मामूली बात थी। मैंने अंग्रेज़ों को यही बताया कि वह मेरे देश में मुझे आदेश नहीं दे सकते।" यह सत्याग्रह ही था जिसने गांधी को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के विराट नेता के रूप में स्थापित किया और उनका कद काफी बढ़ गया लेकिन इसे राजकुमार शुक्ला जैसे किसानों के जी-तोड़ परिश्रम और ज़िद के लिये भी जाना जाना चाहिए जिन्होंने गांधी को चम्पारन लाने का काम किया।

  

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