बिहार के मक्का किसानों का दर्द- हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी किसानी करें, क्योंकि इसमें किसी तरह का फायदा नहीं है
मध्य प्रदेश की ही तरह बिहार के मक्का किसान भी परेशान हैं। बिहार वैसे तो मक्के का बड़ा उत्पादक राज्य है, लेकिन सही कीमत न मिलने के कारण किसानों का मक्के की खेती से मोह भंग हो रहा है।
गाँव कनेक्शन 14 Aug 2020 3:45 AM GMT
गुंजन गोस्वामी
मधेपुरा (बिहार)। "संसार में जो भी निर्माता है, अपनी वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वो खुद करते हैं, तो आखिर किसानों की फसल का मूल्य निर्धारण करने वाले वे (सरकार) कौन होते हैं, इसका अधिकार मुझे क्यों नहीं मिला अभी तक।"
न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रति अपना गुस्सा जाहिर करते हुए मधेपुरा ज़िला (बिहार) के रामपुर गांव के किसान जगदेव पंडित कहते हैं कि फसलों की सही कीमत न मिल पाने के कारण उनके गांव के कई किसान मेहनत करके उपजाए अपने आलू, मक्का सहित कई फसलों को सड़क पर फेंकने या घर में रख कर सड़ाने के लिए मजबूर हैं।
हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या बिहार, इन सभी राज्यों के मक्का किसानों की स्थिति बताती है कि किसानों को लेकर सरकार की कथनी और करनी में काफी बड़ा अंतर है। इन राज्यों में किसान या तो मक्के के न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए या फिर मक्के की सही कीमत के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर किसानों का गुस्सा कई बार तर्क संगत भी लगता है क्योंकि, मान लीजिए आपने एक साबुन की फैक्ट्री लगाई। उसके लिए रॉ मेटेरियल इकट्ठा किए, मशीनें, स्टाफ और एक अच्छी टीम बनाकर साबुन का उत्पादन भी हो गया।
आपने साबुन की 100 ग्राम की टिकिया की कीमत 20 रुपए तय की क्योंकि मशीनें, जगह, रॉ मेटेरियल इत्यादी मिलाकर आपका खर्च 16 रुपए का आया। लेकिन साबुन के, बाज़ार में उतरने से पहले सरकार कहे कि आप साबुन को 17 रुपए से अधिक कीमत पर नहीं बेच सकते।
आप कहेंगे, यह तो तानाशाही है, हमारे सामान की कीमत आखिर सरकार कैसे तय कर सकती है, लेकिन अब ज़रा सोच कर देखिए कि दशकों से सरकारें न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर किसान के उपजाए फसल की कीमत तय करती है और किसान उस मूल्य या उससे कम पर अपनी फसल को बेचने के लिए मजबूर हैं।
देश में रबी सीजन की बात करें तो इस समय के कुल उत्पादन का 80 फीसदी मक्का बिहार में पैदा होता है। बिहार के 10 जिले समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और भागलपुर में देश के कुल मक्का उत्पादन का 30 से 40 प्रतिशत पैदावार होता है।
यूं तो देश में मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपए प्रति कुंतल निर्धारित किया गया है, लेकिन बिहार में मक्के पर समर्थन मूल्य का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि बिहार सरकार न तो मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है और न ही गेंहू और चावल की तरह पैक्स के माध्यम से मक्के की खरीद करती है।
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मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद जो वादे किए थे उनमें सबसे अधिक उम्मीद वाला वादा था 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा। साफ बात है कि किसान की आय न तो सरकारी दावों से दोगुनी होगी और न ही उसके फंदे से लटक जाने के बाद मिले मुआवज़े से। किसान की आय सिर्फ और सिर्फ उसके फसल की उसे सही कीमत मिलने के बाद ही दोगुनी हो सकती है।
भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा मक्का उत्पादक देश है। चावल और गेंहू के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी फसल भी मक्का ही है। इसी मक्के की स्थिति का जायजा लेने के लिए हम पहुंचे बिहार के मधेपुरा ज़िला के कुछ गांवों में।
मधेपुरा और इसके आसपास के ज़िलों में मक्के की रिकॉर्ड खेती होती है। मिट्टी के अनुसार भी मक्का इस इलाके के लिए उपयुक्त फसल है। लेकिन इस बार मक्का किसान मायूस हैं। मायूसी और घाटा इतना है कि किसान अगले साल से मक्के की खेती छोड़ने पर भी विचार कर रहे हैं।
किसान बताते हैं कि पिछली बार मक्के का अच्छा दाम मिला था, प्रति कुंतल उन्हें मक्के के 1900 से 2400 रुपए मिल गए थे, लेकिन इस बार आंधी और पानी के कारण फसल बर्बाद हो गई और जो फसल बची उसके दाम प्रति कुंतल 1000 रुपए से भी कम मिल रहे हैं। जो हाल बिहार के किसानों का है लगभग वही हाल मध्य प्रदेश के किसानों का भी है।
मध्य प्रदेश में किसान 900 से 1000 रुपए प्रति कुंतल की दर पर मक्का बेचने को मजबूर हैं। लॉकडाउन में सब्जी और फल उगाने वाले किसानों को नुकसाऩ हुआ ही अनाज उगाने वाले किसानों को काफी घाटा उठाना पड़ रहा है। मक्के को औने-पौने दामों पर बेचने पर मजूबर सिवनी और छिंदवाड़ा के किसानों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन किया। ये किसान न तो कहीं धरना दे रहे हैं और ना ही कोई रैली कर रहे हैं, किसानों ने वही तरीका अपनाया है जो आज के दौर में सबसे प्रचलित हथियार है, यानि सोशल मीडिया।
मधेपुरा (बिहार) जिला के जजहट सबैला पंचायत के किसान मोहम्मद जमाल कहते हैं, "हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे भी किसानी करें, क्योंकि इसमें किसी तरह का फायदा नहीं है। मेरे दादा किसान थे, मेरे पिता भी किसान थे, लेकिन हम अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं, कुछ भी बनाएंगे लेकिन किसान नहीं बनाएंगे।"
एक तरफ जहां किसान अपने मक्के को सड़क पर फेंकने और सड़ाने के लिए मजबूर हैं। वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार इस बार 1800 रुपए प्रति कुंतल की दर पर 5 लाख टन मक्के का कई देशों से आयात कर रही है। मतलब एक तरफ किसान अपने ही देश में सस्ते दाम पर मक्का बेचने के लिए मजबूर हैं और केंद्र सरकार अधिक दाम पर दूसरे देश के किसानों से मक्के खरीद रही है।
आसान शब्दों में कहें तो, पिछली बार किसानों ने मक्के को 19-25 रुपए प्रति किलो तक बेचा था। इस बार 8-10 रुपए प्रति किलो तक बेच पा रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार इस बार 18 रुपए प्रति किलो की दर से दूसरे देशों से 5 लाख टन मक्का खरीद रही है।
किसान बताते हैं कि मक्के का उत्पादन इस लिए भी फायदेमंद होता है क्योंकि 1 एकड़ में जितने गेंहू और चावल की उपज होती है उससे 2.5-3 गुना अधिक मक्के की उपज होती है। मक्के का उपयोग जानवर और इंसान दोनों करते हैं साथ हीं कई पैकेटबंद उत्पादों में मक्के का व्यापक इस्तेमाल होता है, इसलिए इसकी खपत भी अच्छी खासी है।
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मक्के की मांग में कमी आने का एक कारण यह भी था कि लॉकडाउन के समय अफवाह उड़ाई गई कि मुर्गे व अंडे से कोरोना वायरस के फैलने का खतरा है, इस कारण से लोगों ने पॉल्ट्री उत्पादों से किनारा किया और मुर्गे के दाने के रूप में इस्तेमाल होने वाले मक्के की खपत घट गई। इसके अलावा किसानों का कहना है कि इस बार अधिक बारिश होने के कारण मक्का ठीक से सूख नहीं पाया, इसलिए किसान चाह कर भी इसका भंडार नहीं कर सके और कम कीमतों पर ही मक्के को बेचना पड़ा।
गौरीपुर पंचायत के मक्का किसान अनिल पंडित का आरोप है कि आंधी में 2 एकड़ की फसल के नष्ट हो जाने के बाद भी उन्हें इसका एक पैसा भी मुआवज़ा नहीं मिला। अपने मोबाइल फोन में नष्ट खेत की फोटो दिखाते हुए अनिल कहते हैं कि आवेदन के साथ बर्बाद फसल की तस्वीर लगाकर उन्होंने कई बार प्रखंड कार्यालय के पदाधिकारियों से मुआवजे की मांग की लेकिन उनके साथ साथ उनके पूरे गांव के किसानों के आवेदन को खारिज कर दिया गया और किसी भी किसान को कोई मुआवजा नहीं मिला।
अमेरिका इस वक्त दुनिया का सबसे बड़ा मक्का उत्पादक देश है। और मक्का वहां की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा कारक है। कॉर्न शुगर और जेनेटिकली मोडिफाइड मक्के के उत्पादन से अमेरिका ने खुद को कृषि के क्षेत्र दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक देश बना लिया है। लेकिन मक्के के लिए मशहूर बिहार के इस क्षेत्र में एक भी मक्का प्रसंस्करण केंद्र नहीं है।
किसानों का कहना है कि अगर उन्हें वाजिब सरकारी सहायता मिले तो वह मक्के के सहारे इस इलाके की तस्वीर और तकदीर बदल सकते हैं। किसानों की मांग है कि बिहार में मक्के पर तत्काल प्रभाव से न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाए और प्रखंड स्तर पर सक्रिय कृषि पदाधिकारियों की जिम्मेवारी तय की जाए।
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