'अगर वो हाथी बेजुबान न होता तो ज़रूर पूछता... फैसला कौन करेगा?'

कल-कल करती नदी की आवाज़, आस-पास के कटे पेड़ों की वीरानगी, और उस सन्नाटे में गूंजता उस हाथी और बच्ची का सवाल - दोषी कौन? पर आज जवाब भी मिल गया था - नदी के पानी पर मेरी परछाई नज़र आयी। दोषी मैं, दोषी आप, दोषी हम मनुष्य, दोषी हमारी लालच।

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अगर वो हाथी बेजुबान न होता तो ज़रूर पूछता... फैसला कौन करेगा?

त्रिदीप महतो

बात पिछले साल की है। गर्मियों का समय था। छह दिन काम करते हुए बिताने के बाद में सुकून सा रहता है कि कल रविवार है। सोचा सुबह देर तक सोऊंगा। पर वक्त इंसान के हाथ में कहाँ होता है।

फोन बजने से सुबह पांच बजे नींद खुली। यह सोचने में देर नहीं लगी कि इतनी सुबह साथ में काम कर रहे दैनिक वनकर्मी अजय जी का फोन आया है, हो न हो कुछ न कुछ अनहोनी हुई होगी। फ़ोन उठाते ही पता चला कि हमारे वन प्रमंडल (सरायकेला) के सिनी वन परिसर के गाँव डुमरा में हाथी ने एक बच्ची को मार डाला है।

मैं आनन-फानन में तैयार हुआ और थाने जाकर सूचना दी। अक्सर ऐसी स्थितियों में भीड़ उग्र हो जाती है, पर गाँव के मुखिया जी से बात होने पर पता चला कि फिलहाल स्थिति काबू में थी। पर उन्होंने जल्दी आने को कहा। इसी के साथ रेंजर साहब के नेतृत्व में हमारी एक छोटी सी टीम कुछ पुलिस के लोगों (जिन पर प्रक्रिया के तहत पंचनामा करने और पोस्टमार्टम के लिए शव को ले जाने का ज़िम्मा था) साथ गाँव को रवाना हो गयी।

रास्ते भर मन से शक था कि माहौल कैसा होगा, कहीं गाँव वाले अब तक उग्र न हो चुके हों। बहरहाल भीड़ के बीच हमारी गाड़ी रुकी। घटनास्थल पर भीड़ को हटाते हुए मैं मृत देह के पास पहुँचा। दृश्य देखते ही एक पल के लिये मेरा शरीर ठंडा पड़ गया।

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त्रिदीप महतो झारखंड के सरायकेला वन प्रमंडल में वनरक्षी के पद पर तैनात हैं।

...और अब पूछ बैठेगी कि ''क्या कसूर था मेरा?''

मात्र 15 वर्ष की लड़की खटिया पर पड़ी थी। आंखें तो बंद ज़रूर थीं पर ना जाने क्यों ऐसा लग रहा था मानो वो मेरी तरफ देख रही है और अब पूछ बैठेगी कि "क्या कसूर था मेरा? अभी तक तो दसवीं की परीक्षा के सभी पेपर भी नहीं दिए थे। क्या बिगाड़ा था मैंने?"

आसपास विलाप करते परिजन। न जाने कब एक बून्द मेरी आँखों से भी सरक कर मेरे गाल तक आ गयी। कदम ना जाने क्यों पीछे हटने लगे। लोग आपस में बातें करने लगे। मैं इस समय कुछ भी सुनने को इच्छुक नहीं था, पर न चाहते हुए भी एक जान पहचान वाले ने बात छेड़ दी- "कल रात अचानक हमारे गाँव से हाथी आ गया। हम लोग को सचेत होने का मौका ही नहीं मिला। घर में दो बहनें थी। रात को लघुशंका के लिए बाहर निकली और आंगन में ही हाथी से मुलाकात हो गयी। दोनों चिल्ला कर भागने लगीं, इसी क्रम में छोटी बहन को हाथी ने पकड़ कर सामने उस तुलसी मंच पर पटक दिया।"

मैं इतना ही सुन सका, इससे पहले की वो मुझे मौत का और विवरण देते मैं बहाना बना के वहां से दूर हो गया। बतौर वनरक्षी मेरे साल भर के कार्यकाल में यह पहली ऐसी घटना थी जब मैंने किसी हाथी द्वारा मारे गए इंसान को देखा था। उस लड़की के दर्दनाक आख़री पलों पर अब और बातें सुनने की हिम्मत नहीं थी मुझमें। मन में कुछ बातें लगातार उफान ले रहीं थी।

जहां दोनों बहनें पूजा करके स्कूल जाती थीं

सामने मिट्टी का टूटा तुलसी मंच था, वही मंच जहाँ परीक्षा के पूर्व दोनों बहनें पूजा करके स्कूल जाती थीं, वही मंच जहाँ घर की भलाई के लिये परिवार पूजा करते हैं। हिंदू धर्म में भगवान का वास होता है तुलसी मंच पर और हाथी यानि गजराज को भी हम गणेश जी का ही रूप मानते हैं। फिर भी गजराज ने बच्ची को मार डाला! वो भी तुलसी नारायण के सामने, उसी के ऊपर!

मन में सवाल था, क्या शायद उस मासूम बच्ची ने भी प्राण जाने से पहले पूछा होगा भगवान से- "मेरे समर्पण का ये परिणाम भगवान?" या फिर शायद उस कोमल मन, जो संसार के सारे बुरी परछाइयों से अनभिज्ञ था, उसने भी आज भगवान और गजराज दोनों को माफ कर दिया होगा।

नियमावलियों के अनुरूप सारी कार्यवाही कर परेशान और नाराज़ गाँव वालों को शांत करने के बाद हम गाँव से लौट गए। लौट तो आया, पर यह घटना मेरे अंदर के आस्तिक भाव पर अब लगातार चोट किये जा रही था। कैलेंडर में बस दिन और रात पार हो रहे थे, पर मेरा मन उसी हृदयविदारक दृश्य पर अटका था। हर दिन लगता मानो वो बच्ची मुझसे सवाल कर रही हो- दोष किसका था?

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एक सप्ताह बाद फिर सुबह फ़ोन की घंटी बजी

करीब एक सप्ताह बाद एक बार फिर सुबह फ़ोन की घंटी बजी। दूसरी ओर से समाचार आया कि मेरे उप परिसर के पालुबेड़ा नामक गाँव में एक हाथी मर गया है। बेमन से सुबह 7 बजे घटना स्थल पहुँचा। पहुंचने पर अनुमान हुआ कि वो हाथी भी 14-15 साल का ही था। जानकारी वश करीब गया तो कुछ और याद आ गया। ये भी तो उसी लड़की की भाँति 14-15 साल का है। पर इसके लिए कोई रो क्यों नही रहा यहां? कोई आक्रोशित क्यों नहीं है? सब अपने-अपने फोन से सेल्फ़ी क्यों ले रहे हैं? ये कैसी रीत है?

क्या मैं बोल नहीं बोल सकता ये मेरा क़ुसूर है

हाथी का शरीर ठंडा था, और उसके शरीर का ठंडापन मेरे अंदर तक घर कर रहा था। उसकी बंद आंखों को क़रीब से देखा तो गीलापन था, मानों वो विलाप कर रहा हो और सवाल पूछ रहा हो… "क्या मेरे जीवन का कोई मोल नहीं? मैं और मेरे पूर्वज तो सतयुग से इस पृथ्वी पर वास कर रहे हैं, जब कोई मानव नहीं था। पर आज सब मुझसे कहते हैं कि मैं उनकी बस्ती में घुस आया हूँ! ये तो मेरा घर था, सदियों से। फिर भी जब तुम सब ने घर बनाये तो मैंने कोई आपत्ति ना जताई। अपना पुराना घर तुम्हारे लिए छोड़ खुद पलायन कर गया। जिस जंगल में पलायन किया वहां भी जब तुम लकड़ी लाने आये तब भी किसी को रोक नहीं। तुमने जंगल काट कर अपने घर बनाए, अपने पेट पाले , परिवार और घर सजाये, मैंने कभी मना किया? पर क्या तुम सबने कभी मेरी व्यथा समझी? हम जीवों को तो तुम मनुष्य मंद बुद्धि घोषित कर देते हो, पर तुम तो समझदार हो। क्या मैं बोल नहीं बोल सकता ये मेरा क़ुसूर है या तुम सब उच्च श्रेणी के प्राणी होने के घमण्ड में चूर सुनना समझना नहीं चाहते मेरी भाषा?"

तभी ध्यान उसके मुंह की ओर गया। मुँह में बांस के कुछ पत्ते अभी भी फंसे हुए थे उसके। भूखा था शायद वो। मन में एक सवाल आया उसकी ख़ामोशी से, मैं नौकरी क्यों कर रहा हूँ? जवाब आया अपना, अपने परिवार का पेट भरने के लिये। हर कोई इस संसार में इसी पेट के ख़ातिर ही तो कमाता है। एक इंसान को 7 दिन खाना-पानी न मिले तो वह चोरी कर के खायेगा या दूसरों से छीन कर। बस इस 6 इंच के पेट के लिए। कभी ये सोचा कि उस हाथी का पेट तो मुझसे कई गुना बड़ा है। यदि फिर उसे खाना-पानी न मिले तो? क्या उसे अपने पेट कि चिंता करने का कोई अधिकार नही था?

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बेजुबान न होता तो ज़रूर पूछता - ''इसका फैसला कौन करेगा''

शायद वो हाथी बेजुबान न होता तो ज़रूर पूछता - "इसका फैसला कौन करेगा कि जंगल में इंसान घुसे तो सही और हाथी खेत चरे तो ग़लत? ये अधिकार तुम मनुष्यों को किसने दिया कि सारे नियम तुम सब ही तय करोगे?" मैं उस मृत हाथी से आंखें नहीं मिला पा रहा था। न मालूम कब मेरी आंखों में भी हल्का सा पानी आ गया। उस बच्ची और इस हाथी, दोनों की तस्वीर अब इन आँखों में तैर रही थी और दोनों वही सवाल कर रहे थे - दोषी कौन?

इन सवालों के कंबल ओढ़े यूं ही एक दिन एक गाँव के समीप जंगल के रास्ते से गुजर रहा था । सामने नदी थी, उसे देख कर रुक गया। पर उसके पानी का रंग सफेद था, नीला नहीं। सामने गया तो देखा कि पूरी नदी फ्लाई-ऐश की राख से भरी थी। जहां किनारे पर रेत होना चाहिए थी वहाँ फ्लाई-ऐश का जमाव था। न जाने किस कंपनी की करतूत थी। सामने से कुछ ग्रामीण साल की एक कटी बल्ली ले जा रहे थे।

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कहते हैं न आसमान की तरफ मुंह कर के थूकोगे...

तभी सारे सवाल अचानक न जाने क्यों जवाबों में परिवर्तित होने लगे। 'विकास' के नाम पर हमने प्रकृति पर अकल्पनीय अत्याचार किये। हमारे असंख्य कल-कारख़ानों, खदानों, गाड़ी-हवाई जहाज़ों, हमारे अतिक्रमण और हमारे स्वार्थीपन ने ही तो आज हाथी तथा अन्य वन्यजीवों और इंसान के बीच ऐसी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर दी। उस हाथी को भी हमने मारा और उस बच्ची को भी। कहते हैं न आसमान की तरफ मुंह कर के थूकोगे तो थूक अपने चेहरे पर ही पड़ेगा। प्रकृति और जंगलों का नरसंहार ठीक उसी प्रकार है, अंततः नाश हमारा ही होगा।

कल-कल करती नदी की आवाज़, आस-पास के कटे पेड़ों की वीरानगी, और उस सन्नाटे में गूंजता उस हाथी और बच्ची का सवाल - दोषी कौन? पर आज जवाब भी मिल गया था - नदी के पानी पर मेरी परछाई नज़र आयी। दोषी मैं, दोषी आप, दोषी हम मनुष्य, दोषी हमारी लालच।

(लेखक झारखंड के सरायकेला वन प्रमंडल में वनरक्षी के पद पर तैनात हैं। उन्होंने यह लेख बीते माह फारेस्ट गार्ड ट्रेनिंग स्कूल, चाईबासा में अपनी ट्रेनिंग के क्रम में लिखा था। यह उनके निजी विचार हैं।)


    

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