कभी घर-घर सर्वे, कभी थोड़ी जासूसी, कभी ढोलक की थाप: कौन हैं ये गुमनाम "कोरोना वॉरियर्स", महामारी से लड़ती हुई ये दस लाख की पैदल सेना ?

उन पर हैशटैग नहीं बनते, उन्हें मीडिया में वाहवाही नहीं मिलती, लेकिन कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में आशा कार्यकर्ता पैदल एक ऐसा युद्ध लड़ रही हैं जो करोड़ों लोगों को सुरक्षित रख रहा है। वे भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का ज़मीनी स्तर पर पहला सुरक्षा घेरा हैं ... लेकिन आज भी उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिल पाया।

Neetu SinghNeetu Singh   20 April 2020 8:40 AM GMT

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खबर पक्की थी। फोन गुपचुप आया था, "दीदी हमारे पड़ोस में बंबई से आये हैं।"

उत्तर प्रदेश के अटेसुआ गाँव में शहर से वापस आये मजदूरों को कायदे से 14 दिन के लिए क्वारंटाइन होना था, लेकिन ग्राम प्रधान ने उनके तुरंत आने पर ऐसा नहीं करवाया था।

गाँव की आशा कार्यकर्ता कुसुम सिंह (48) को पता था कि अगर प्रधान पर उन्होंने सीधे ऊँगली उठाई तो उनका विरोध होगा। वो ये भी नहीं बता सकती थी कि ये खबर उन्हें बाहर से आये मजदूरों के पड़ोसियों ने ही दी है।

इसलिए कुसुम ने प्रधान को फोन करके तुरंत झूठी कहानी गढ़ दी।

"हमें स्वास्थ्य विभाग से फोन आया है कि वो बंबई से आये हैं। अब सबके ऑनलाइन टिकट की डिटेल से यह खबर सरकार को पता चल रही है कि हर गाँव में कौन बाहर से आया है?"

अटेसुवा गाँव की आशा कुसुम सिंह एक घर के बाहर खड़े होकर आवाज़ देती हुई.

कुसुम की इन बातों से सहमत ग्राम प्रधान ने बंबई से आये यात्रियों को तुरंत गाँव के बाहर सरकारी स्कूल में क्वारंटाइन कर दिया। अगले चौदह दिन तक वो रोज़ क्वारंटाइन किये लोगों से मिलती रही, ये देखने के लिए कि उन्हें सर्दी, जुखाम, बुखार तो नहीं आ रहा।

कुसुम की तरह देश की दस लाख इस पैदल फ़ौज के पास इस समय भारत के गांवों की हर घर की खबर मिलेगी। इन्हें पता है गाँव में किसे खांसी, जुखाम, बुखार,गले में दर्द, शुगर और टीबी के लक्षण हैं, कितने लोग दूसरे राज्यों से आये हैं, कितने लोगों की कोविड-19 की जांचे हुई हैं या होनी हैं।

लॉक डाउन के दौरान इन आशा कार्यकर्ताओं का काम पहले के कामों से बिलकुल अलग हैं। कोरोना वायरस के संक्रमण के पहले चरण में इन्होंने हर घर का सर्वे किया और बीमार लोगों को चिंहित किया। दूसरे चरण में बाहर से आये लोगों की सूची बनाई और क्वारंटाइन हुए लोगों का 14 दिन तक फालोअप किया। लॉकडाउन बढ़ने के बाद इनका काम अलग-अलग राज्यों में वहां की जरूरतों के अनुसार अलग हो गया है। अभी कहीं दीवारों पर स्लोगन लिखे जा रहे तो कहीं ढोलक की थाप पर गीत-संगीत से ग्रामीणों से घर पर रहने की अपील की जा रही है। कहीं गोल घेरे बनाकर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा रहा तो कहीं ये आशा घर-घर दवाइयां पहुंचा रही हैं।

दीवार पर स्लोगन लिखती कुसुम सिंह.

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के आंकड़ों के अनुसार सितंबर 2018 तक देश में कुल आशा कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 10 लाख 31,751 है। कुसुम इनमे से एक हैं।

उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर बक्शी का तालाब ब्लॉक के अटेसुवा गाँव की रहने वाली आशा कुसुम की दिनचर्या सुबह पांच छह बजे से शुरू हो जाती है। सुबह की चाय से लेकर खाना बनाने तक की जिम्मेदारी पूरी करके कुसुम सुबह नौ बजे तक गाँव की गलियों में सबके हाल खबर लेने निकल जाती हैं।

मैरून बार्डर में क्रीम कलर की साड़ी पहन चेहरे पर मास्क लगाकर गाँव के खडंजे (ईंट से बनी गाँव की सड़क) पर खड़ी कुसुम एक घर के सामने एक परिवार को बता रहीं थीं, "आप हमेशा मुंह पर कपड़े बांधे रखो। जरूरी न हो तो घर के बाहर मत निकलना। साबुन से बार-बार हाथ धोना, एक दूसरे से दो तीन हाथ की दूरी बनाकर रहना है।"

उस घर की चारपाई पर बैठे एक 80-85 साल के बुजुर्ग, एक 35 साल की महिला और 12 साल का एक लड़का आशा की बातें सुनकर गर्दन हिलाकर सहमति जता रहे थे।

एक परिवार को घर में रहने और साफ़-सफाई पर ध्यान देने की अपील करती कुसुम सिंह.

इस समय आशा कार्यकर्ता किसी के घर के अन्दर नहीं जा रही हैं। ये बाहर से ही आवाज़ देकर लोगों को बुलाती हैं। अपनी बात कहती हैं और फिर आगे बढ़ जाती हैं।

अप्रैल महीने की चिलचिलाती धूप में कुसुम के चेहरे से पसीना निकल रहा था पर वो अपने काम में लगी थी।

इनका काम भले ही हैशटैग न बने, इन्हें मीडिया में वाहवाही न मिले, पर कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में आशा कार्यकर्ता पैदल एक ऐसा युद्ध लड़ रही हैं जो करोड़ों लोगों को सुरक्षित रख रहा है। वे भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था का ज़मीनी स्तर पर पहला सुरक्षा घेरा हैं ... लेकिन आज भी इन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिल पाया।

जब आप अटेसुवा गाँव में घुसेंगे तो आपको जगह-जगह दीवारों पर लिखे कई सारे स्लोगन दिख जाएंगे।

कहीं लिखा है ..."हम गाँव की आशा ने मिलकर यह ठाना है, सब घर में रहो देश से कोरोना को भगाना है" तो कहीं ..."नून रोटी खाएंगे, घर से बाहर नहीं जाएंगे" कहीं लिखा है, 'पापा घर में रहो बाहर कोरोना है, सब मिलकर साथ रहें, नहीं किसी को खोना है' ऐसे दर्जनों लिखे स्लोगन पर आपकी नजर पड़ जायेगी।

अटेसुवा गाँव में घुसते ही आपको ऐसे दर्जनों स्लोगन दीवारों में लिखे दिख जाएंगे.

जिस कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाने के लिए ये आशा बहु दिन रात एक कर रही हैं उसी कोरोना वायरस के संक्रमण से अबतक दुनियाभर में 23 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं, वहीं एक लाख 65 हजार 229 लोगों की मौत हो चुकी है। भारत में इस वायरस से संक्रमित मरीजों की संख्या 16,116 हो गयी है। अब तक 519 लोगों की मौत हो गयी है।

लॉकडाउन बढ़ने के बाद गाँव की आशा वर्कर की दिनचर्या को समझने के लिए गाँव कनेक्शन की रिपोर्टर ने एक दिन इनके साथ गुजारा। कुसुम सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक लोगों को यह समझाने में गुजार देती हैं कि सबको घर में रहना है। ये दोपहर में एक दो घंटे के लिए खाना खाने आती और फिर चली जातीं। इस गाँव में कुसुम के अलावा दो और आशा अलग-अलग मजरों की रहती हैं।

उस दिन कुसुम सुबह नौ बजे के बाद पहले कुछ घरों में जाकर लोगों की हाल खबर ली। बाद में गाँव की आशा और आशा संगिनी के साथ उमस भरी दोपहरी में गांव की गलियों से गाते-बजाते सबसे बार-बार हाथ धुलने, मुंह पर पट्टी बाँधने की गुजारिश करने लगीं।

"सारे देश में फ़ैल रही कोरोना की माहमारी, गाँव वालों अगर बचाव चाहते हो तो मानो बात हमारी ..." सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र इटौंजा की आशा संगिनी रेनू सिंह (38 वर्ष) द्वारा लिखा ये गीत गाँव की आशा कुसुम, अनीशा, उमा सब एक साथ गा रहीं थीं।

भरी दोपहरी में ढोल की थाप के साथ ग्रामीणों को जागरूक करती ये आशाएं.

दरवाजे की ओट से घरों की महिलाएं साड़ी के पल्लू से नाक ढके इन्हें गुजरते हुए निहार रहीं थीं।

जैसे-जैसे ये गाँव की गलियों से गुजर रही थीं, वैसे-वैसे गाँव के लोग घरों से बाहर निकलकर इन्हें सुन रहे थे।

इस भीषण गर्मी में जब हम और आप घरों में आराम फरमा रहे हैं तब ये पैदल फौज ग्रामीण को जागरूक करने के लिए एक नये अंदाज में ढोलक, थाली बजाते हुए गा रहीं थीं, नारे लगा रहीं थीं।

मुंह पर सफेद रंग का दुप्पट्टा बांधे रेनू सिंह ऊँची आवाज में बोलीं, "हम गाँव की आशा ने मिलकर यह ठाना है, सब घर में रहो देश से कोरोना को भगाना है।"

सब पीछे से तेज स्वर में इस नारे को दोहरा रहीं थीं। ये नजारा कुछ दरवाजे की ओट से देख रहीं थीं तो कुछ चबूतरे पर बैठकर। गाँव में जगह-जगह नीम के पेड़ की छाँव में खेतों से काम करके सुस्ता रहे किसान भी इन्हें बड़े गौर से सुन रहे थे।

इन आशा कार्यकर्ता को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे यूपी में इन्हें आशा बहु तो झारखंड में सहिया दीदी और मध्यप्रदेश में आशा कहते हैं।

मध्यप्रदेश में पानी भरने के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो इसके लिए यहाँ की आशा ने चूने से बनाये गोल घेरे.

"इस समय हमारी एक भी दिन की छुट्टी नहीं है। हमारा काम घर-घर जाकर लोगों को सही तरीके से हाथ धुलना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करवाना और मास्क लगाने के फायदे बताना है," आशा कार्यकर्ता रेखा जाटव (41 वर्ष) ने अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या बताई।

रेखा मध्यप्रदेश के भोपाल शहर के वीनापुर गाँव की आशा कार्यकर्ता हैं। ये रोज सुबह धूप की वजह से जल्दी घर से निकल जाती हैं।

रेखा जाटव उन दस लाख से ज्यादा आशा कार्यकर्ताओं में से एक हैं जो ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था की महत्वपूर्ण रीढ़ हैं। रेखा की तरह देश की सभी आशा कार्यकर्ता इस समय अपने-अपने गाँव की पल-पल की खबर स्वास्थ्य विभाग तक पहुंचा रही हैं।

एक हजार आबादी पर एक आशा कार्यकर्ता होती है। ज्यादा आबादी वाले गाँवों में ये संख्या बढ़ जाती है। इन आशा कार्यकर्ताओं को कुछ राज्यों में एक निश्चित मानदेय दिया जाता है जबकि कई जगह इनके काम के आधार पर इन्हें प्रोत्साहन राशि मिलती है। इनके काम के अनुसार इनका मेहनताना बहुत कम है जिसको लेकर इनकी शिकायत रहती है।

कुसुम दोपहर में गाँव से आकर अपने घर के बाहर साबुन से हाथ धुलती हुई.

उस दोपहरी कुसुम सभी के साथ गाते बजाते करीब दो बजे के बाद अपने घर पहुंची। घर के बाहर लगे नल पर साबुन से हाथ धोते हुए कुसुम बोलीं, "यह रोज का काम है सुबह जाना और फिर दोपहर में खाना खाने के लिए वापस आना और शाम को फिर निकल जाना।"

कोरोना संक्रमण के जागरूक करने के अलावा कुसुम के पास गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी की कभी भी काल आ जाती है। ऐसे में इनके काम करने के कोई घंटे निर्धारित नहीं हैं। कुसुम की तीन बेटियां हैं जो घर की ज्यादातर जिम्मेदारी इनके बाहर रहने पर संभाल लेती हैं।

कुसुम सुबह जो काम करती हैं, उसकी रिपोर्टिंग दोपहर 12 बजे से दो बजे के बीच फोन से हर रोज आशा संगिनी को देती हैं। उस दिन आशा संगिनी रेनू सिंह कुसुम के साथ ही थीं।

आशा संगिनी रेनू सिंह 26 आशा बहु को मानीटर करती हैं। रेनू सिंह ने बताया, "हर दिन इन आशाओं से रिपोर्ट लेकर शाम चार बजे तक हम ब्लॉक कम्युनिटी प्रोसेस मैनेजर तक भेज देते हैं। यह हमारा रोज का काम है।"

"हमें ऊपर से जितने भी काम बताये गये थे वो सब हमने कर लिए हैं। लॉकडाउन बढ़ने के बाद मुझे लगा कि कुछ इंट्रेस्टिंग तरीके से लोगों को जागरूक करें। मुझे लिखने का शौक है, हमने अपनी मर्जी से कई सारे स्लोगन लिखे और कुछ गाने भी," रेनू सिंह ने बताया, "दीवारों पर लिखा वही लोग पढ़ सकते हैं जो पढ़े-लिखे हैं, हमारी बात सबको समझ आये इसलिए फिर गाने लिखकर गाना शुरू किया। अभी तो पूरे ब्लॉक में देखादेखी कई आशाएं इसे अपना रही हैं। अगर ये लॉकडाउन और बढ़ता है तो फिर हम लोग नुक्कड़ नाटक करके जागरूक करेंगे।"

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र इटौंजा की आशा संगिनी रेनू सिंह 26 आशाओं को मानीटर करती हैं.

रेनू लोगों को घर में रहने, मुंह पर कपड़ा बाँधने, दूरी बनाकर खड़े होने, बार-बार हाथ धुलने के लिए कई तरीके अपना रहीं हैं। उनकी कोशिश है कुछ भी हो जाए पर गांवों तक इस वायरस का संक्रमण न फैले।

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र इटौंजा के अधीक्षक डॉ योगेश सिंह इन आशाओं की तारीफ़ में कहते हैं, "आशा हमेशा से स्वास्थ्य विभाग की मजबूत कड़ी रही है। इस समय इनकी जिम्मेदारी पहले से कई गुना बढ़ गयी है। अच्छी बात ये है कि इस डर के माहौल में भी इनका उत्साह कम नहीं हुआ है। ये अपने स्तर से बताये कामों के अनुसार ज्यादा काम करती हैं।"

कोरोना वायरस की इस लड़ाई में सबसे आगे खड़े 'कोरोना वॉरियर्स' के लिए वित्तीय सुरक्षा का एलान सरकार ने किया है। मेडिकल स्टाफ से लेकर आशा कार्यकर्ता और सफाई कर्मी जो ऐसे समय में अपनी जान जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं ऐसे लोगों के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.70 लाख करोड़ रुपये की घोषणा की है जिसमें सभी का 50 लाख रुपये का इंश्योरेंस भी शामिल है।

रेनू की तरह आशा संगिनी को हर राज्य में अलग-अलग नाम से बुलाते हैं। जैसे झारखंड में आशा बहु को सहिया दीदी और आशा संगिनी को सहिया साथी कहते हैं वहीं मध्यप्रदेश में आशा और आशा संगिनी को आशा सहयोगी कहते हैं।


"अभी हमारे यहाँ की सहिया दीदी को अस्पताल से कुछ बेसिक दवाइयां दे दी गयी हैं। अब ये घर-घर जाकर सबसे पूछती हैं किसी को कोई बीमारी तो नहीं और फिर पता चलने पर दवाई दे देती हैं," झारखंड के जमशेदपुर के जोड़ीसा गाँव की रहने वाली सहिया साथी भाषा शर्मा (40 वर्ष) ने अपनी अभी की दिनचर्या बताई। इनके अधीन 18 सहिया दीदी (आशा कार्यकर्ता) आती हैं।

ग्रामीण महिलाओं और बच्चों की देखरेख के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने वर्ष 2005 में आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) का पद सृजित किया था। आबादी के अनुसार एक जिले में 1,000 से 2,500 आशा कार्यकर्ता होती हैं।

भोपाल के ईंट खेड़ी गाँव में रहने वाली आशा सहयोगी सविता शर्मा (42 वर्ष)14 आशाओं को मानीटर करती हैं।

ये बताती हैं, "इस समय हमारे यहाँ की आशा जगह-जगह गोल घेरे बना रही हैं जिससे लोग सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें। इस समय किसी को कोई खाने की समस्या तो नहीं इसपर भी इनकी नजर है। ये दीवारों पर स्लोगन भी लिख रहीं हैं।"

कोरोना वायरस से बचने के लिए कपड़े से मुंह ढके अटेसुवा गाँव के ग्रामीण.

आशा बहु और आशा संगिनी स्वास्थ्य विभाग की वो आखिरी सिपाही हैं जो हमेशा गाँव में कुपोषण, टीकाकरण, किशोरियों संग मीटिंग, गर्भवती महिलाओं की देखरेख, कुपोषित और अतिकुपोषित बच्चों पर ख़ास नजर, कई-कई दिन अस्पताल में गुजारना और दिन भर भूखे-प्यासे कई किमी.पैदल चलना इनके लिए आम बात है।

अटेसुवा गाँव की कुसुम दोपहर का खाना खाने के बाद शाम चार बजे अपने गाँव की उस मुस्लिम बस्ती की तरफ निकल गईं जहाँ लॉकडाउन के दौरान दिल्ली, बंबई, हैदराबाद से 12 लोग वापस आये थे। ये वही 12 लोग थे जिनके आने की खबर कुसुम को गुपचुप तरीके से उनके ही पड़ोसियों ने पहुंचाई थी।

आप पूरे दिन इस दोपहरी में काम करते थकती नहीं इस पर कुसुम बोलीं, "हमें कितनी भी मेहनत करनी पड़े हम करेंगे पर गाँव में कोरोना नहीं फैलने देंगे," ये कहते हुए कुसुम के चेहरे पर आत्मविश्वास था।


   

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