मनरेगा : मजदूरी निकालने के लिए बैंकों के कई बार चक्कर काटने को मजबूर होते हैं 45 फीसदी मजदूर

मनरेगा श्रमिकों के लिए समय पर भुगतान नहीं मिलना एक गंभीर समस्या रही है। बैंक में मजदूरी आने के बावजूद उन रुपयों को निकालने के लिए मजदूरों को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। कैसी-कैसी चुनौतियों का सामना करते हैं मनरेगा मजदूर, पढ़िए रिपोर्ट ...

Kushal MishraKushal Mishra   25 Nov 2020 2:49 PM GMT

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मनरेगा : मजदूरी निकालने के लिए बैंकों के कई बार चक्कर काटने को मजबूर होते हैं 45 फीसदी मजदूरबैंक से मजदूरी पाने के लिए मनरेगा मजदूरों को उठानी पड़ती है कई मुश्किलें। फोटो : गाँव कनेक्शन

ग्रामीण भारत में काम कर रहे मनरेगा मजदूरों के बैंक खातों में भले ही सरकार सीधे मजदूरी हस्तांतरित करती आ रही है, मगर एक मनरेगा मजदूर को बैंक से अपनी ही मजदूरी निकालने के लिए कई मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं।

हाल में एक सर्वे में सामने आया कि 45 फीसदी मनरेगा मजदूरों को मजदूरी निकालने के लिए कई बार बैंक के चक्कर काटने के लिए मजबूर होना पड़ता है। सिर्फ इतना ही नहीं, 75 फीसदी मनरेगा मजदूरों को यह भी नहीं पता था कि वे किसी भी बैंक शाखा में लेनदेन कर सकते हैं।

इन मनरेगा श्रमिकों को मजदूरी पाने के लिए कितनी समस्याएं झेलनी पड़ती हैं और ग्रामीण स्तर पर उनके सामने कैसी अड़चने आती हैं, इस मुद्दे पर लिबटेक इंडिया ने हाल में अपना सर्वे जारी किया। इस सर्वे में सामने आया कि ग्रामीण स्तर पर काम कर रहे मनरेगा मजदूरों को बैंकिंग मानकों और अधिकारों के बारे में जानकारी बहुत ही कम है।

मनरेगा मजदूरों को लेकर लंबे समय से काम करते आ रहे और इस सर्वे से जुड़े अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर राजेंद्रन नारायण 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "असल में ये मजदूर अस्थायी और अकुशल मजदूर होते हैं। ऐसे में यह सर्वे बहुत ही महत्वपूर्ण है जो कि इन श्रमिकों की जमीनी तकलीफों को उजागर करता है। आम तौर पर शहरों में कोई भी लेनदेन करने पर बैंक से एसएमएस मिलता है, मगर हमारे सर्वे में सामने आया कि सिर्फ 11 फीसदी मजदूरों के पास बैंक में मजदूरी आने पर एसएमएस आता है। ऐसे में ज्यादातर मनरेगा श्रमिकों को उनकी मजदूरी बैंक में आ गयी है, यह भी मालूम नहीं चलता।"

45 फीसदी मनरेगा मजदूरों को मजदूरी निकालने के लिए कई बार बैंक के चक्कर काटने के लिए मजबूर होना पड़ता है। फोटो : गाँव कनेक्शन

मनरेगा यानी महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत देश के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को साल में 100 दिन रोजगार देने का प्रावधान किया गया है। इसके तहत केंद्र सरकार ने इस वित्तीय वर्ष में एक लाख करोड़ रुपये का बजट निर्धारित किया है।

वहीं मजदूरी के भुगतान के बाद मनरेगा मजदूरों के सामने आने वाली चुनौतियों को लेकर लिबटेक इंडिया की ओर से यह सर्वे आंध्र प्रदेश, झारखण्ड और राजस्थान के 1947 मनरेगा श्रमिकों पर किया गया। इन राज्यों में यह सर्वेक्षण सितम्बर और नवम्बर 2018 के दौरान किया गया।

असल में ये मजदूर अस्थायी और अकुशल मजदूर होते हैं। ऐसे में यह सर्वे बहुत ही महत्वपूर्ण है जो कि इन श्रमिकों की जमीनी तकलीफों को उजागर करता है। आम तौर पर शहरों में कोई भी लेनदेन करने पर बैंक से एसएमएस मिलता है, मगर हमारे सर्वे में सामने आया कि सिर्फ 11 फीसदी मजदूरों के पास बैंक में मजदूरी आने पर एसएमएस आता है। ऐसे में ज्यादातर मनरेगा श्रमिकों को उनकी मजदूरी बैंक में आ गयी है, यह भी मालूम नहीं चलता।

राजेंद्रन नारायण, प्रोफेसर, अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी

मनरेगा मजदूरों के लिए लेनदेन के लिए बैंक के अलावा ग्रामीण स्तर पर ग्रामीण सेवा स्थल और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स, डाक घर और एटीएम जैसे कई भुगतान केंद्र भी सक्रिय हैं, इसके बावजूद मनरेगा श्रमिकों को अपनी मजदूरी लेने के लिए इनके भी कई चक्कर काटने पड़ते हैं।

ग्रामीणों के लिए बैंकिंग लेनदेन के लिए ग्रामीण सेवा स्थल और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स मौजूद हैं। सर्वे के अनुसार, इनका सहयोग लेने वाले मजदूरों में 40 फीसदी श्रमिकों को अपनी मजदूरी पाने के लिए इनके कई बार चक्कर लगाने पड़ते हैं। यह भी सामने आया कि ग्रामीण सेवा स्थल और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स की नि:शुल्क सुविधाएँ होने के बावजूद मजदूरों से शुल्क वसूला जाता है। यह आंकड़ा सबसे ज्यादा झारखंड में सामने आया जहाँ 45 फीसदी मनरेगा मजदूरों से शुल्क वसूला गया।

मजदूरों की मुश्किलें यहीं ख़त्म नहीं होती, ग्रामीण सेवा स्थल और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स के बैंक की पासबुक अपडेट करने की सुविधा नहीं होती, इसलिए इनकी सुविधा लेने के बावजूद श्रमिकों को बैंक के चक्कर काटने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

बैंक से मजदूरी निकलने के लिए ग्रामीण मजदूरों को लगानी पड़ती है लंबी लाइन। फोटो : लिबटेक

राजेंद्रन नारायण बताते हैं, "ग्रामीण स्तर पर एक बैंक पर कई पंचायतों का भार होता है, बैंक में कर्मचारियों की कम संख्या होने के कारण उनके पास भी काम का दबाव काफी रहता है, ऐसे में मजदूरों को अपनी पासबुक अपडेट कराने के लिए बैंक में घंटों इंतजार करना पड़ता है। तब न सिर्फ उस मजदूर को उस दिन की मजदूरी का नुकसान होता है, बल्कि गाँव से दूर उस बैंक तक जाने के लिए भी खासा खर्च करना पड़ता है।"

सर्वे में सामने आया कि झारखंड, राजस्थान और आंध्र प्रदेश इन तीन राज्यों में अपनी मजदूरी निकालने के लिए एक मनरेगा मजदूर को एक बार बैंक जाने के लिए औसत लागत 31 रुपये खर्च करना पड़ता है, जबकि ग्रामीण सेवा स्थल और बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट्स तक जाने का खर्च 11 रुपये, एटीएम तक जाने का खर्च 67 रुपये और डाक घर तक जाने के लिए औसत खर्च छह रुपये है। इतना ही नहीं, झारखंड और राजस्थान में क्रमशः 42 और 38 फीसदी मनरेगा मजदूरों को बैंक से अपनी मजदूरी निकालने में चार घंटे से ज्यादा का समय लगता है।

दूसरी ओर मनरेगा के आधिकारिक आंकड़ों पर गौर करें तो जुलाई 2020 तक पिछले पांच वर्षों में, देश भर में करीब 4,800 करोड़ रुपये के मनरेगा मजदूरों के भुगतानों को ख़ारिज कर दिया गया। अभी भी 1,274 करोड़ रुपये की मजदूरी का भुगतान श्रमिकों को किया जाना बाकी है।

पासबुक अपडेट कराने के लिए भी मजदूरों को बैंक के लगाने पड़ते हैं चक्कर। फोटो साभार : लिबटेक

सर्वे में सामने आया कि भुगतान रिजेक्ट किये जाने वाले 77 फीसदी मजदूरों को पता ही नहीं था कि उनका भुगतान क्यों ख़ारिज किया गया। इसके लिए अस्वीकृत भुगतान वाले 70 फीसदी मजदूरों ने अपनी सम्बंधित भुगतान केन्द्रों पर बहुत अधिक तकलीफों का सामना किया।

मजदूरी भुगतान का रिजेक्ट होना भी मजदूरों के लिए एक बड़ी समस्या है क्योंकि उन्हें कई बार आधार कार्ड और कई तकनीकी कारणों की वजह से ये समस्याएँ आती हैं, मगर मजदूरों को यह भी नहीं पता होता कि उनकी मजदूरी क्यों नहीं मिली।

सकीना धोराजीवाला, लिबटेक इंडिया

दूसरी ओर लिबटेक इंडिया से इस सर्वेक्षण से जुड़ीं सकीना धोराजीवाला 'गाँव कनेक्शन' से बताती हैं, "मजदूरी भुगतान का रिजेक्ट होना भी मजदूरों के लिए एक बड़ी समस्या है क्योंकि उन्हें कई बार आधार कार्ड और कई तकनीकी कारणों की वजह से ये समस्याएँ आती हैं, मगर मजदूरों को यह भी नहीं पता होता कि उनकी मजदूरी क्यों नहीं मिली।"

"ग्रामीण भारत में मनरेगा रोजगार की एक महत्वपूर्ण कड़ी है, ऐसे में जरूरी है कि श्रमिकों को अंतिम स्तर तक मजदूरी भुगतान का प्रभावी वितरण किया जाए। हम उम्मीद करते हैं कि इस रिपोर्ट के जरिए देश के नीति निर्माता मनरेगा श्रमिकों के वेतन भुगतान को लेकर अंतिम मील की चुनौतियों को समझ सकेंगे और मजदूरी भुगतान को लेकर विसंगतियों को दूर करने के लिए बेहतर कदम उठाएंगे," सकीना धोराजीवाला आगे कहती हैं।

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