'मिड-डे मील में घोटाला कम लापरवाही ज्यादा'

Ranvijay SinghRanvijay Singh   25 Sep 2019 7:19 AM GMT

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मिड-डे मील में घोटाला कम लापरवाही ज्यादा

लखनऊ। ''मिड-डे मील के लिए एक बच्‍चे पर 4.48 रुपये आते हैं। मान लीजिए किसी प्राथमिक स्‍कूल में 100 बच्‍चे हुए तो एक दिन में 450 रुपए के करीब आएगा। अब इसी 450 रुपए में सब्‍जी, मसाला, दाल, दूध और गैस पर खर्च करने हैं। सब कहते हैं मिड-डे मील में प्रधान और हेड मास्‍टर ने मिलकर घपला कर दिया, घोटाला हो गया। मैं पूछता हूं इतने कम पैसे में क्‍या ही घोटाला हो सकता है? कोई बहुत बचाने पर आएगा तो 1500 से 2000 रुपए महीने में बचा लेगा।''

यह बात उत्‍तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में स्‍थ‍ित पिपरिया दुलई ग्राम पंचायत के प्रधान सुजीत सिंह (45 साल) कहते हैं। सुजीत सिंह इस बात से आहत हैं कि लोग मिड-डे मील का नाम आते ही प्रधान और हेड मास्‍टर को घोटालेबाज समझने लगते हैं। सुजीत कहते हैं, ''ग्रामीण स्‍कूलों में मिड-डे मील बनवाने का जिम्‍मा सीधे तौर से प्रधान और स्कूल के हेड मास्‍टर पर होता है, ऐसे में कहीं कोई खामी मिलती है तो सीधे कह देते हैं- प्रधान चोर है, हेडमास्‍टर चोर है। अरे चोरी करने के लिए पहले पैसा तो हो? इतने कम के लिए कौन ईमान गिराएगा।''

मिड-डे मील को लेकर यह धारणा आम है कि इस योजना में स्‍कूलों में खूब भ्रष्‍टाचार हो रहा है। ऐसे में गाँव कनेक्‍शन की टीम ने बाराबंकी के कुछ प्रथामिक स्‍कूलों का दौरा किया, और यह जानने की कोशिश की कि मिड-डे मील में गड़बड़ी की असल वजह क्या है? क्या घोटाला होता है या लापरवाही की वजह से बच्चों को ढंग से मिड-डे मील नहीं बंट पाता।

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के अखईपुर गाँव में मौजूद प्राथामिक विद्यालय।

इन्‍हीं सवालों के साथ गांव कनेक्‍शन की टीम उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के अखईपुर गाँव में मौजूद प्राथामिक विद्यालय पहुंची। स्‍कूल में बच्‍चों को मिड-डे मील बस बांटा ही गया था। प्राथामिक विद्यालय अखईपुर के हेड मास्‍टर जगदीश चंद्र सिंह ने बताया, ''हमारे यहां प्रधान के द्वारा मिड-डे मील नहीं बनवाया जाता। मैं ही मिड-डे मील बनवाता हूं। मुझे ही सब्‍जी से लेकर मसाले तक का प्रबंध करना होता है।''

इस सवाल पर कि अगर कोई प्रधान या हेड मास्‍टर मिड-डे मील में कुछ बचाना चाहे तो कितना बचा पाएगा? जगदीश चंद्र सिंह कहते हैं, ''कुछ बच ही नहीं सकता। एक बच्चे के लिए 4.48 रुपए (प्रति दिवस) के हिसाब से फंड आता है। ये रुपए भी तत्‍काल नहीं आते, कभी छह महीने पर, तो कभी साल भर बाद आते हैं। ऐसे में खुद से ही खर्च करना होता है। अब 4.48 रुपए में सब्‍जी, तेल, मसाला, दूध, गैस यह सब शामिल हैं। आप खुद हिसाब लगा लीजिए कि क्‍या बच पाएगा। मेरे हिसाब से तो कुछ नहीं बचता।''

मध्याह्न भोजन योजना (मिड-डे मील) भारत सरकार और राज्य सरकार के संयुक्त प्रयास से चलने वाली योजना है। भारत सरकार ने यह योजना 15 अगस्त, 1995 को लागू की थी। इसके तहत प्राथमिक विद्यालयों (कक्षा 1 से 5 तक) में पढ़ने वाले वो बच्‍चे जिनकी उपस्‍थ‍िति 80 प्रतिशत होती थी, उन्‍हें हर महीने तीन किलोग्राम गेहूं या चावल दिए जाने की व्यवस्था थी। लेकिन इस अनाज का पूरा लाभ बच्‍चों को नहीं मिल पाता था और यह परिवार में बंट जाता था। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्देश के बाद 01 सितम्बर-2004 से पका-पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराने की योजना शुरू की गई। बाद में इस योजना का दायरा बढ़ाते हुए इसमें उच्‍च प्राथमिक विद्यालय भी शामिल कर लिए गए।

बाराबंकी के स्‍कूल में मिड-डे मील खाने से पहले अपना बर्तन धुलते बच्‍चे।

यूपीएमडीएम की वेबसाइट के मुताबिक, वर्तमान में मध्याह्न भोजन योजना का लाभ उत्‍तर प्रदेश के 1,14,460 प्राथमिक विद्यालय और 54,372 उच्च प्राथमिक विद्यालय में मिल रहा है। वहीं, इन विद्यालयों में पढ़ने वाले कुल 1.76 करोड़ बच्‍चों को पौष्टिक भोजन मुहैया कराया जा रहा है। इनमें प्राथमिक स्तर पर पढ़ने वाले 1.20 करोड़ छात्र और उच्च प्राथमिक स्तर पर पढ़ने वाले 55.89 लाख छात्र शामिल हैं।

हेड मास्‍टर जगदीश चंद्र सिंह द्वारा पैसा आने में देरी की बात लगभग सभी स्कूलों में दोहराई गई। मिड-डे मील का फंड प्रधान और हेडमास्‍टर के साझा बैंक एकाउंट में आता है, जहां से दोनों ही इस पैसे को निकाल सकते हैं। योजना के तहत एक छात्र के लिए प्राथमिक स्‍कूलों को 4.48 रुपए हर दिन और उच्च प्राथमिक स्‍कूलों को 6.71 रुपए हर दिन फंड दिया जाता है। इस फंड से सब्‍जी, तेल, मसाला, दूध, गैस के लिए खर्च किया जाता है।

इसके अलावा मिड-डे मील के मेन्यू के हिसाब से बच्‍चों को सप्ताह में चार दिन चावल से बना खाना और दो दिन गेहूं से बना खाना दिए जाने की व्‍यवस्‍था है। इसके लिए प्राथमिक स्‍कूलों को 100 ग्राम प्रति छात्र प्रति दिवस और उच्च प्राथमिक स्‍कूलों को 150 ग्राम प्रति छात्र प्रति दिवस की दर से खाद्यान्न (गेहूं/चावल) भी उपलब्ध कराया जाता है। यह खाद्यान्न सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान के माध्यम से दिया जाता है।

मिड-डे मील का मेन्‍यू।

हेड मास्‍टर जगदीश चंद्र सिंह मिड-डे मील मेन्यू को आधार बनाकर कहते हैं, ''क्‍या मेन्‍यू देखकर आपको लगता है हम कुछ बचा पाएंगे? यह मुमकिन ही नहीं है। अगर कोई बचाने की नियत से भी काम करे और क्‍वालिटी बहुत गिरा दे तो भी 1000 से 1500 रुपए बचा पाएगा? क्‍या कोई 1000 या 1500 रुपए के लिए अपनी नौकरी दांव पर लगाना चाहेगा?''

जगदीश चंद्र सिंह कहते हैं, ''पहले एक घोटाला आम था, कोटेदार और प्रधान मिलकर राशन का गबन कर जाते थे। लेकिन जबसे राशन प्रणाली में डिजिटलाइजेशन की शुरुआत हुई है इसपर भी रोक लग गई। अब महीने का राशन सीधे मिल जाता है। इसके बाद इतनी निगरानी है कि इस राशन को गायब करने की कोई सोच भी नहीं सकता।''

हेड मास्‍टर जगदीश चंद्र सिंह की इस बात की तस्‍दीक पीलीभीत जिले के माधवटांडा ग्राम पंचायत के प्रधान पति योगेश्‍वर सिंह भी करते हुए कहते हैं, ''पहले हम भी सुनते थे कि कोटेदार और प्रधान मिड-डे मील के राशन में घालमेल कर देते हैं। अब हालात बदल गए हैं। राशन में तो चोरी संभव ही नहीं है। अगर कोई करेगा तो पकड़ा जाएगा। यही वजह है कि अब कोटेदार खुद इस्‍तीफा सौंप रहे हैं, क्‍योंकि कुछ बच नहीं रहा। डिजिटलाइजेशन की वजह से तस्‍वीर बदली है। यह बात मिड-डे मील पर भी लागू होती है।''

बाराबंकी जिले के अखईपुर प्राथामिक विद्यालय के बाद गाँव कनेक्‍शन की टीम बाराबंकी के ही घुंघटेर में स्‍थ‍ित उच्‍च प्राथमिक विद्यालय पहुंची। यहां पर बच्‍चों ने बताया कि मिड-डे मील रोजाना मिलता है। उस दिन शनिवार था ऐसे में चावल और सोयाबीन की सब्जी बनी थी। स्‍कूल के छठवीं क्‍लास में पढ़ने वाले एक बच्‍चे ने बताया, ''हमें मिड-डे मील पसंद आता है। यहां अच्‍छा खाना देते हैं।'' उसने यह भी बताया कि मिड-डे मील रोज सुबह 10:30 बजे मिलता है।

बाराबंकी के एक स्‍कूल में मिड-डे मील का रजिस्‍टर।

मिड-डे मील के वितरण में आने वाली दिक्कतों के बारे में संतकबीरनगर के एक न्‍याय पंचायत रिसोर्स सेंटर के कॉडिनेटर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, ''यह बात तो आप भूल ही जाइए कि स्‍कूल के स्‍तर पर कोई बड़ा घोटाला हो सकता है। हाँ, कई बार ऐसा देखने में आता है कि मिड-डे मील खाने वाले बच्‍चों की उपस्‍थ‍िति रजिस्‍टर में हेरफेर की गई, लेकिन वो भी अब बहुत कम हो गया है। क्‍योंकि इसकी भी निगरानी रखी जाती है। जैसे ही खाना खिलाया जाता है हेड मास्‍टर के नंबर पर मिड-डे मील प्राधिकरण से कॉल आती है, जिसमें उन्‍हें बताना होता है कि आज कितने बच्‍चों ने मिड-डे मील खाया। ऐसे में रोज का रोज यह दर्ज होता है। कोई भी मॉनिटरिंग टीम इस आंकड़े को लेकर स्‍कूल जा सकती है। इस बात की जानकारी अध्‍यापकों को भी होती है कि कोई जांच टीम आ सकती है तो वो गड़बड़ी करने से बचते हैं।''

न्‍याय पंचायत रिसोर्स सेंटर की जिम्‍मेदारी होती है कि उनके न्‍याय पंचायत में आने वाले स्‍कूलों का वो निरीक्षण करें। इसमें मिड डे मील की क्‍या स्‍थ‍िति है इसकी भी वो निगरानी रखे।

न्‍याय पंचायत कॉडिनेटर जिस ऊपरी स्‍तर पर घोटाले की बात करते हैं, वैसा घोटाला इसी साल बाराबंकी जिले में सामने आया था। बाराबंकी में मिड-डे मील के फंड को निजी खातों में भेजा जा रहा था। पिछले पांच साल में करीब साढ़े चार करोड़ रुपए निजी खातों में भेजे गए थे। इस घोटाले में बेसिक शिक्षा निदेशालय, लखनऊ में तैनात सीनियर ऑडिटर से लेकर बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसए) कार्यालय बाराबंकी में संविदा पर काम करने वाला कम्प्यूटर आपरेटर तक शामिल था।

इस मामले का खुलासा करने वाले बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसए) वीपी सिंह ने गांव कनेक्‍शन को बताया, ''ये लोग मिड-डे मील का फंड स्‍कूलों के बैंक खातों में भेजने के साथ ही निजी खातों में भी भेज रहे थे। यह पेपर पर सही काम करते, लेकिन कंप्‍यूटर में दर्ज करते वक्‍त अपने निजी खाते भी उसमें दर्ज कर देते थे और फर्जी स्‍कूलों के नाम पर इन खातों में फंड भेज देते। इस तरह से यह गिरोह चल रहा था। मैंने जब हार्ड कॉपी और कंप्‍यूटर का मिलान किया तो यह मामला सामने आया। फिलहाल इस मामले में सात लोग गिरफ्तार किए गए हैं।''

वीपी सिंह कहते हैं, ''जहां तक बात स्‍कूल के स्‍तर पर घोटाला करने की है तो यह मुमकिन नहीं है। हां, वहां पर काम में लापरवाही हो सकती है, घोटाला नहीं हो सकता। लेकिन लापरवाही से निपटने के लिए भी निगरानी और मॉनिटरिंग लगातार की जाती है तो इसके भी आसार बहुत कम हो जाते हैं।''


मिड-डे मील की व्‍यवस्‍था की निगरानी और मॉनिटरिंग के लिए मिड-डे मील प्राधिकरण की ओर से कई कदम उठाए गए हैं। प्राधिकरण में पोषण विशेषज्ञ तरुना सिंह बताती हैं, ''हमारे यहां आईवीआरएस (इंटरेक्टिव वॉयस रिस्पॉन्स सिस्टम) प्रणाली है, जिससे हर रोज हेड मास्‍टर के नंबर पर कॉल जाती है और उन्‍हें यह बताना होता है कि कितने बच्‍चों ने खाना खाया है। यह कॉल तब तक जाती है जबतक इसपर कोई डाटा दर्ज नहीं कर दिया जाता। हमारा सबसे बड़ा मॉनिटरिंग सिस्‍टम यही है।''

तरुना सिंह बताती हैं, ''जब भी कोई टास्‍क फोर्स स्‍कूलों का निरीक्षण करने जाती है तो वो पहले आईवीआरएस से एक महीने का डाटा लेकर जाती है और फिर मिड-डे मील रजिस्‍टर से उसका मिलान कर लेती है। एक बार उन्‍नाव जिले में अभियान चलाकर यह काम किया गया था, उसमें सिर्फ पांच प्रतिशत का अंतर आया था।''

प्रदेश में कितनी टास्‍क फोर्स हैं? इसके जवाब में तरुना बताती हैं, ''हमारी तीन तरह की टास्‍क फोर्स हैं। पहली स्‍टेट लेवल टास्‍क फोर्स, दूसरी जिला लेवल टास्‍क फोर्स और तीसरी ब्‍लॉक लेवल टास्‍क फोर्स। जिला लेवल टास्‍क फोर्स में 12 मेंबर होते हैं और इसके अध्यक्ष जिलाधिकारी होते हैं। ब्‍लॉक लेवल टास्‍क फोर्स में आठ मेंबर होते हैं और इसके अध्‍यक्ष उप जिलाधिकारी होते हैं। इसके अलावा न्‍याय पंचायत रिसोर्स सेंटर भी है जिससे स्‍कूलों की मॉनिटरिंग होती है। यानि हर स्‍तर पर मिड-डे मील की चेकिंग की व्‍यवस्‍था है।''

"इसके अलावा खाने की गुणवत्ता सही रखने के लिए भी हमने सिस्‍टम बनाया है। रसोइया इसकी पहली कड़ी है। जो रसोइया खाना बनाती है उसके किसी बच्‍चे का दाखिला भी उसी स्‍कूल में कराया जाता है। ऐसे में वो खुद के बच्‍चे के लिए तो गलत खाना नहीं बना सकती। इसके अलावा हमने मां समूह भी बनाए हैं। मां समूह में छह माताएं होती हैं, जिनके बच्‍चे उसी स्‍कूल में पढ़ते हैं। इस समूह से जुड़ी महिलाएं, सप्‍ताह के छह दिन खाने को चखती हैं। हर दिन एक महिला स्‍कूल जाती है। इस तरह खाने की गुणवत्‍ता को सही रखा जाता है।

बाराबंकी के अखईपुर गांव में मौजूद प्राथामिक विद्यालय में ही मां समूह से जुड़ी एक मां से भी मुलाकात हुई। इनका नाम कुंति देवी है। कुंति देवी बताती हैं, ''मिड डे मील का खाना सही हो गया है। बच्‍चे इसे पसंद कर रहे हैं। मेरा खुद का बेटा यह खाना खाता है।''


    

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