पलायन से टक्कर: विपरीत हालात में उम्मीद जगाते ये नायक

उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में पलायन की समस्या अधिक विकराल है क्योंकि यहां जनजीवन का पर्यावरण और पारिस्थितिकी से भी करीबी रिश्ता है।

Hridayesh JoshiHridayesh Joshi   7 Jan 2019 5:48 AM GMT

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पलायन से टक्कर: विपरीत हालात में उम्मीद जगाते ये नायक

गांवों से शहरों की ओर पलायन विकट समस्या बनता जा रहा है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में पलायन की समस्या अधिक विकराल है क्योंकि यहां जनजीवन का पर्यावरण और पारिस्थितिकी से भी करीबी रिश्ता है। सरकार खुद मानती है कि आज राज्य के 1000 से अधिक राज्य खाली हो चुके हैं और अलग अलग आंकलन इस संख्या को 3500 के पार बताते हैं। ऐसी विषम परिस्थितियों में पहाड़ के ही कुछ लोगों ने रोज़गार पैदा करने और इस हिमालयी राज्य को समृद्ध बनाने की कोशिश की है जिसमें अभिनव प्रयोगों के साथ कई सालों की मेहनत शामिल है। गांव कनेक्शन ऐसे ही उत्साही और सृजनात्मक युवाओं की कहानी आप तक पहुंचाता रहा है।

सहकारिता का प्रयोग

उत्तराखंड के गरूड़ में रहने वाले हेम पंत ने 18 साल पहले जब अपने गांव में मधुमक्खी पालन शुरू किया तो उनके पास न तो भविष्य का कोई खाक़ा था न ही उन्हें ये अंदाज़ा था कि उनकी कोशिश आखिर उन्हें कहां तक ले जायेगी।

संघर्ष के दिनों को वो बड़े हास्य भाव के साथ याद करते हैं। वो कहते हैं कि साल 2000 में उत्तराखंड जब नया-नया राज्य बना तो सब पर बुरांश और पहाड़ी फलों के जूस बनाने का जुनून सवार था। वो ठहाका मारते हुये कहते हैं कि शायद ये प्रेरणा उत्तराखंड के लोगों को हिमाचल से मिली थी। ऐसे में उन्होंने भी मौनपालन के साथ जूस बनाने के इस काम में हाथ आजमाना शुरू किया। इसके साथ ही आंवला, लहसुन, नीबू, मिर्च का अचार बनाना भी शुरू कर दिया।

अपने साथी नरेंद्र सिंह रावत के साथ सहकारिता का सफल प्रयोग करने वाले हेम पंत (दाएं)।

हेम पंत कहते हैं, "हम ये सामान यहां के स्थानीय बाज़ार में बेचने लगे और जल्दी ही हमें अंदाज़ा हो गया कि इस काम में पैर जमाये जा सकते हैं। इसमें उत्पादों की पैकेजिंग किये जाने की ज़रूरत है।" 2003 में उन्होंने इन काम को विस्तार देने के लिये करीब 4.5 लाख रुपये की ज़मीन खरीदी। सारे उत्पाद जैविक खेती के तहत तैयार हो रहे थे। इसी आकर्षण को उन्होंने ग्राहक तक पहुंचने का रास्ता बना लिया। तब तक वो एक सहकारी समिति बना चुके थे।

पिछले 35 साल से पंत के आत्मीय दोस्त और कारोबारी साथी रहे नरेंद्र सिंह रावत कहते हैं कि अपने काम को फैलाने और ऊंचे स्तर पर ले जाने की प्रेरणा उन्हें पंजाब के लुधियाना से मिली जहां घर घर में लोगों ने कुछ न कुछ काम धन्धा लगाया हुआ था।

रावत बताते हैं, "यहां काम शुरू करने से पहले हम कुछ वक्त लुधियाना में रहे। हमने देखा कि वहां हर घर में लोगों ने एक न एक मशीन लगाई हुई है। चाहे प्रेस हो या मोल्डिंग की हो या चप्पल काटने की हो या फिर बिन्दी काटने की हो। हमने सोचा कि पहाड़ में यह सब क्यों नहीं हो सकता।"

सहकारिता (कॉपरेटिव) का यह प्रयोग आगे बढ़ता गया इसके तहत आज हिम आर्ग नाम से बनी कॉपरेटिव आटा, चावल, दाल, मसाले, शहद और कई तरह के जैम और चटनियों के साथ दर्जनों तरह की हर्बल चाय बना रही है। साथ ही मडुये (पहाड़ी आटा) के बिस्किट और पहाड़ी अनाज की नमकीन उत्पाद बनते हैं।

हिम ऑर्गेनिक का कारोबार लगातार बढ़ रहा है और उम्मीद है कि यह 6 करोड़ के आंकड़े को इसी साल पार कर लेगा।

हिम ऑर्गेनिक के इस प्रयोग से आस पास के 50 परिवार और करीब 10 हज़ार किसान सीधे या परोक्ष रूप से जुड़े हैं। हिम ऑर्गेनिक उत्तराखंड के 6 ज़िलों के 60 गांवों से उत्पाद ले रहे हैं और देश के पांच राज्यों तक यह प्रोडक्ट पहुंच रहे हैं। सहकारिता का यह प्रयोग अभी 1.5 करोड़ सालाना का हो गया है और पंत कहते हैं कि इस वित्तीय साल के खत्म होते-होते यह करीब 6 करोड़ का हो जायेगा।

100 प्रतिशत जैविक उत्पादों के इस प्रयोग की एक बड़ी उपलब्धि ये भी है कि किसानों और ग्रामीणों में आत्मविश्वास जगा है और वह पलायन कर चुके अपने साथियों को वापस लाने की सोच रहे हैं।

सामाजिक उद्यमिता

40 साल के हीरासिंह बिष्ट पिछले 10 साल से पशुपालन और जैविक खेती के साथ मछली पालन में लगे हैं। उन्होंने अच्छी नस्ल की गायों की अहमियत और खाद बनाने में उनके महत्व को समझा और इसके ज़रिये कृषि का वो चक्र शुरू किया जो फायदेमंद भी है और किफायती भी। बिष्ट की 5 गायें करीब 200 लीटर दूध देती हैं जिसे बाज़ार में बेचने के साथ दुग्ध उत्पादों का कारोबार शुरू किया।

गायों के गोबर से जैविक खाद बनाई और मुर्गियों की बीट और अनाज़ को मछली के तालाब में डाला। जहां जैविक खाद ने खेतों को हरा भरा बनाया वहीं मछली के तालाब से निकलने वाले पानी ने फसल पौष्टिक पोषण दिया और सेहतमन्द किया।

पिछले साल बिष्ट ने 60 हज़ार रुपये मछली पालन से ही कमाये। बिष्ट कहते हैं कि मछली पालन के कारोबार में पारम्परिक खेती के मुकाबले मेहनत काफी कम है और बंदर और सुअरों से फसल की बर्बादी जैसा डर नहीं है।

हीरासिंह बिष्ट ने पशुपालन, खेती और मछली पालन के चक्र को जोड़ा है और सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं।

पहाड़ में स्वावलंबन के प्रयोगों के लिये हीरासिंह बिष्ट को कई संस्थायें सम्मानित कर चुकी हैं और वो कई लोगों को सिखा भी रहे हैं। सरकारी सब्सिडी की मदद से बिष्ट ने अपनी छत में सौर ऊर्जा के लिये पैनल भी लगाये हैं और आंगन में लगे सोलर कुकर की मदद से घर का सारा खाना बनता है।

"खाना पकने में उतना ही वक्त लगता है कि जितना हमें गैस चूल्हे में लगता था। छत पर लगे पैनल से अतिरिक्त बिजली हम लोकल ग्रिड को भेज रहे हैं जिससे कुछ कमाई ही हो जाती है।" हीरासिंहबिष्ट ने गांव कनेक्शन को बताया।

डेरी उद्योग का एक और प्रयोग

हीरा सिंह की ही तरह पास के गांव में श्याम सिंह ने भी पशुपालन और मछली पालन का प्रयोग किया। आज पनीर, मक्खन, खोया, दही समेत कई तरह के दुग्ध उत्पाद वह बड़े पैमाने पर बेच रहे हैं। आसपास के गांवों के सैकड़ों किसान उनके पास दूध बेचने आते हैं। अपने बेटे को इंजीनियरिंग की पढ़ाई कराने के बाद उन्होंने इसी कारोबार में लगाया है। वह बाज़ार में उपलब्ध कई ब्रांड्स के साथ टक्कर ले रहे हैं और उनकी योजना इसे फैलाने की है।

श्याम सिंह बिष्ट (दायें) ने उन्नत खेती के तरीके अपनाये और डेरी उद्योग के ज़रिये नये झंडे गाड़ रहे हैं।

हीरा सिंह की ही तरह श्याम सिंह भी मछली पालन को बहुत फायदेमंद काम मानते हैं जो खेती के लिये भी काफी उपयोगी है।

स्थानीय फलों के जूस और उत्पाद

संजीव भगत ने उत्तराखंड राज्य बनने से 7 साल पहले 1993 में उद्यमिता की ओर रुख किया। आसपास के बगीचों के फल लेकर उससे जूस और जैम जैसे उत्पाद बनाये और उन्हें बेचना शुरू किया। धीरे धीरे ये काम बढ़ता गया। नैनीताल से 14 किलोमीटर दूर नगारीगांव में आज करीब 30 महिलायें उनके कारोबार से जुड़ी हैं।

यहां पहाड़ के फलों से जूस, जैम, अचार, चटनी, मुरब्बे और दूसरे उत्पाद बनाये जाते हैं। कुल 45 तरीके के प्रोडक्ट 80 से अधिक अलग अलग तरह की पैकेजिंग में बेचे जाते हैं।

संजीव भगत आज स्थानीय फलों से बने उत्पाद तैयार कर रहे हैं जिसका बाज़ार लगातार बढ़ रहा है।

"स्थानीय फलों के उत्पाद और स्थानीय महिलाओं की भागेदारी यही हमारा मंत्र है।" 50 साल के संजीव बताते हैं। वो अपने उत्पाद स्थानीय बाजार में ही बेचते हैं लेकिन उसके अलावा उनकी नज़र पर्यटकों पर रहती है। "उत्तराखंड आने वाले पर्यटक यहां के विशेष उत्पाद लेकर जायें यही हमारा लक्ष्य है। सड़क के किनारे बने हमारे विक्रय केंद्रों पर रुककर बाहर से आने वाले लोग इन्हें ज़रूर खरीदते हैं। हालांकि हमारे प्रोडक्ट ऑनलाइन भी बेचे जा रहे हैं।"

भगत की योजना में महिलाओं की भागेदारी महत्वपूर्ण है।

अब भगत के कारोबार को 25 साल पूरे हो गये हैं और यह सालाना 75 लाख रुपये के आंकड़े को पार कर गया है। "इस दौर में हम पैसे के हिसाब से हम बहुत बड़े नहीं हुये हैं लेकिन हमारे काम से जुड़ी महिलाओं और उनके परिवार की खुशी एक अनमोल तोहफा है।" भगत कहते हैं।

  

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