"मुम्बई से चलकर आधी दूरी तो तय कर ली, अब जेब खाली है, फोन बंद है, पता नहीं घर कब पहुंचेंगे"

Arvind Singh ParmarArvind Singh Parmar   17 May 2020 5:32 AM GMT

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मुम्बई से चलकर आधी दूरी तो तय कर ली, अब जेब खाली है, फोन बंद है, पता नहीं घर कब पहुंचेंगे

ललितपुर (उत्तर प्रदेश)। "पूरी जिंदगी के इन दो महीनों में पेट भर खाना नहीं मिला, जेब में पैसे भी खत्म हो गए, क्या करते भूखों मरने से अच्छा हैं, अपनी भूख लिए बच्चों के पास घर पहुंच जाएं।"

राष्ट्रीय राजमार्ग-44 ललितपुर अमझरा घाटी के यूपी-एमपी सीमा वार्डर पर चिलचिलाती धूम में दोपहर के दो बजे साइकिल के दोनों ओर बोरियां लटकए हुए प्रेमनाथ (48 वर्ष) सड़क पर चल रहे थे, उनके माथे से पसीने की बूंदे टपक रही थी।

प्रेमनाथ के पेट के भूख की ये अकेली तकलीफ नहीं हैं, बल्कि उनकी तरह हर रोज मध्य-प्रदेश की सड़कों के रास्ते यूपी बार्डर पर आ रहे हजारों प्रवासी मजदूरों के दर्द, बेबसी और पीड़ा में उलझी तकलीफों के बीच अभी भूख का सफर पूरा नहीं हुआ। सफर आधा बाकी है।

प्रेमनाथ बोरीवली वेस्ट मुम्बई से भदोही जिले के लिए लगभग 1471 किलोमीटर अपनी साईकिल लेकर चल दिए। चलते समय जेब में सौ रुपए थे, जो कुछ पैसा था, लॉकडाउन के चलते दो महीने में खर्च हो गया। बाकी पैसा ठेकेदार ने नहीं दिया।


अमझरा घाटी पर चलते वक्त दिहाड़ी मजदूर प्रेमनाथ दर्द भरी धीमी आवाज में कहते हैं, "मुम्बई में रहकर तो भूखों मर जाते, दो महीने खिचड़ी खाकर दिन निकाले। ठेकेदार ने मजदूरी का दस हजार रुपए नहीं दिए उसने कहा था लॉकडाउन से बैंक बंद है, हम पैसों का इंतजाम कर रहे हैं। इंतजार में चालीस से पचास दिन निकल गये, जो पैसे थे पेट की भूख मिटाने में खर्च हो गए। आते समय जेब में सौ रुपए ही बचे थे वहीं लेकर साईकिल से चल दिए।"

लगातार लॉकडाउन बढ़ने से महानगरों में रह रहे प्रवासी मजदूरो के काम ठप्प पड़े थे। पेट की भूख मिटाने के लिए दिहाड़ी मजदूर अपने खेत खलियान और गाँवों को अलविदा करते हुऐ शहरों में गये थे वहीं भूख शहरों को छोड़ गाँवों की ओर हजारों की संख्या में हर रोज सड़को पर पैदल ही चलती जा रही है। जहां रात हुई रुक गए खाने को जो भी मिला उसी से पेट की भूख मिटा ली। एक दिन में भूखे प्यासे 12 से 15 घंटे साइकिल के साथ पैदल चलते हैं।


राज्य व केन्द्र सरकार के तमाम आश्वासनों व इंतजामों के बाद महानगरों में रह रहे दिहाड़ी प्रवासी मजदूर अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर पाए। हालात और परिस्थितियों के उतार चढ़ाव से परेशान होकर वो अपने घर पन्द्रह सौ किलोमीटर से अधिक दूरी का सफर पैदल और साइकिलों से तय कर पेट की भूख मिटाने गाँव के लिए निकल पड़े।

ललितपुर बुंदेलखंड झाँसी से सागर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 44 अमझरा घाटी यूपी वार्डर पर महानगरों से लौट रहे प्रवासी मजदूरों से गाँव कनेक्शन संवाददाता ने बातचीत की। जो महानगरों से 1500 किलो मीटर दूरी तय कर अपने घर जा रहे हैं।

"एक कमरे में 14 लोग रहते हैं, एक महीने में एक व्यक्ति 400 रुपए का किराया देता था। कमरे वाला पैसा मांग रहा था, खर्च के लिए पैसे भी नहीं बचे कमरे वाले को पैसे कहां से दे देते। पैसे बाद में देने की कहकर अपने गृह जनपद भदोही के दिगवर गाँव चलने की बात करते हुऐ प्रेमनाथ ने बताया। 17-18 साल से मुम्बई में दिहाड़ी मजदूरी का काम करने वाले प्रेमनाथ कहते हैं, "शहर में मजदूरी से भूख मिटाकर आत्मनिर्भर बनेंगे यहीं सोचकर रह रहे थे, जिस भूख को मिटाने शहर आये थे वहीं भूख लेकर खाली हाथ गाँव वापस जा रहे हैं।"


वैश्विक महामारी के कारण बड़े लॉकडाउन से महानगरों में रह रहे प्रवासी मजदूरों को आर्थिक संकट से भूख मिटाने के लाले पड़ गए वहीं कमरों का किराया नहीं दे पाए। महानगरों से चलते वक्त मजदूरों की जेबें खाली रही। शहरों में बिगड़े हालातों के बीच मजदूरों ने रुकने के बजाए भूखे पेट लेकर सड़कों के सहारे अपने घर की ओर चलना मुनासिब समझा।

दो महीने से जो कुछ पैसे थे खाने पीने में खर्च हो गए। ईंट गारे का काम बंद पड़ा है, खाने का सामान कैसे खरीदते। घंटों लाइन में लगकर कुछ दिन खाना लेकर खाया। मुम्बई और रुकते तो आगे के दिन कैसे कटते, हमें तो भूखों मरना पड़ता। यह देखकर कन्हैया लाल (48 वर्ष) बचे दौ सौ रुपए जेब में रखकर मिर्जापुर जिले के भदईया गाँव को साइकिल से चल दिए। अपने जिले तक पहुंचने के लिए 1516 किलोमीटर की दूरी नापना हैं।

कन्हैया लाल मध्यप्रदेश के बुरहानपुर तक पैदल चले तो कहीं साइकिल चलाई। रास्ते में भूखे पेट बिस्किट खाकर सफर काटा, कहीं कहीं रास्ते में खाना खाने को भी मिल गया। बुरहानपुर से बस मिली उसने बैठकर ललितपुर के यूपी बॉर्डर तक आ गए। कन्हैया लाल को अपने जिले तक पहुंचने के लिए 541 किलोमीटर का सफर और तय करना हैं अब तो घर वालों से बात भी नहीं होती, फोन तो बंद पड़ा है।


बॉर्डर पर बनी गोशाला में साइकिल वाले प्रवासी मजदूरों को अंदर जाने से रोक दिया, कन्हैया लाल उदास होकर कहते हैं, "वहां के कर्मचारियों ने हम साइकिल वालों को दुत्कारकर गौशाला के अंदर नहीं जाने दिया और कहा कि साइकिल वालों को पहुंचाने की व्यवस्था नहीं हैं। आप लोग साइकिल से ही निकल जाए। मालूम करने पर पता चला कि वो पाली तहसील के तहसीलदार हैं।"

कन्हैयालाल जैसे दर्जनों मजदूर अपनी साइकिल लेकर गौशाला के गेट के बाहर खड़े थे। स्थानीय लोगों ने प्रवासी मजदूरों की समस्या समझी और गौशाला में ड्यूटी कर रहे ज्ञानेश्वर प्रसाद शुक्ला एसडीएम महरौनी से बात की। उन्होने कहा कि बसें बिना जाल के हैं मजदूरों की साइकिल कैसे जाएगी। मजदूरों को इंतजार करना पड़ेगा जब भी जाल वाली बस आएगी भेज दिया जायेगा।

साइकिल के पास खड़े कन्हैया लाल कहते हैं, "दो दिन यहीं गौशाला में रुक जाएंगे। जाल वाली बस आती है तो ठीक है, नहीं तो हम साईकिल लेकर अपने घर निकल लेगें। वो कहते हैं जेब खाली है भगवान भरोसे भूखे प्यासे घर पहुंच ही जाएंगे, चलते-2 अब तो भूख भी मर गई।"

ललितपुर और झाँसी यूपी बॉर्डर पर हर रोज मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली, मुम्बई, बैंगलूरु, हरियाणा, पंजाब आदि प्रदेशों के महानगरों में लाखों दिहाड़ी मजदूर काम करते हैं जो पैदल, साइकिलों, टैक्सी, बसों और ट्रकों में सवार होकर यूपी बॉर्डर को पार करते हुऐ अपने गाँव वापस लौट रहे हैं। ललितपुर यूपी बॉर्डर से करीब एक लाख से अधिक प्रवासी मजदूर निकल चुके हैं।


महाराष्ट्र के पुरन्दर में रहकर पुट्ठे बनाने का काम करने वाले चंदन पांडे (27 वर्ष) 1860 किमी दूर बिहार के गोपालगंज के रहने वाले हैं। महाराष्ट्र से ललितपुर यूपी बॉर्डर की 1,021 किलोमीटर दूरी तय करके पहुंचे हैं। चंदन पांडे 860 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद अपने घर पहुंच पाएंगे। इनके साथ आधा दर्जन लोग साथ चल रहे हैं। चंदन पांडे अपनी परेशानी बताने लगे।

"परेशानी के ऐसे दिन कभी नहीं कटे, लग रहा था कि हालात ठीक हो जायेगा। ना हालात ठीक हुए ना ही लॉकडाउन खुला, क्या करते वहां रहकर लॉकडाउन बढ़ने से जो राशन पानी था वो भी खत्म हो गया। और रुकते तो वहां क्या खाते, कोई अपना थोड़ी है। इसी वजह से शहर को छोड़कर गाँव की ओर पैदल चल दिए। करीब 200 किलोमीटर पैदल चलने के बाद सरकारी बस से यूपी बॉर्डर पर छोड़ दिया। अब यहां से घर कैसे पहुंचे चिंता सता रही है।"

किरणदेवी (42 वर्ष) गाजीपुर जिले के मुहम्मद पुर गाँव की रहने वाली हैं अपने पति और चार बच्चों के साथ 1647 किमी दूर मुम्बई में रहकर गजरा बनाने का काम करती थीं। लॉकडाउन की वजह से मुश्किलें खत्म नहीं हुईं। बल्कि जेब का सारा पैसा खर्च हो गया। कमरे का छह हजार रुपए भाड़ा कहां से देते। मध्यप्रदेश बॉर्डर से यूपी बॉर्डर तक बस से आ गए।

ललितपुर के अमझरा घाटी यूपी बॉर्डर पर बनी गौशाला के अंदर अपने परिवार के साथ अपने घर जाने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही किरणदेवी कहती हैं, "मेरे पास इतना पैसा नहीं था कि कमरे की किराया दे पाते, बच्चे भूख से मर रहे थे कमरा खाली करके परिवार के साथ आये हैं। बस, घर पहुंच जाएं वहीं रहेंगे कुछ भी करके बच्चों का पेट पाल लेगें लेकिन शहर मरने नहीं जाएंगे।"

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