मन की बात में मोदी ने लिए इन तीन पद्मश्री विजेताओं के नाम

Alok Singh BhadouriaAlok Singh Bhadouria   28 Jan 2018 5:19 PM GMT

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मन की बात में मोदी ने लिए इन तीन पद्मश्री विजेताओं के नामइन तीनों पद्मश्री विजेताओं ने समस्याओं का डटकर सामना किया

देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ने इस बार खूब सुर्खियां बटोरीं। वैसे तो हर साल अपने क्षेत्र में ख्याति पाने वाले 50-80 असाधारण लोगों को ये सम्मान दिए जाते हैं. लेकिन इस बार की लिस्ट में कुछ ऐसे नाम थे, जो बहुत साधारण थे... पढ़िए कुछ खास...

2018 की पहली मन की बात का एक बड़ा हिस्सा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल पद्म पुरस्कार पाने वाले अनजान चेहरों को समर्पित किया। मोदी के मुताबिक, ये ऐसे लोग हैं जो किसी मान-सम्मान के लिए काम नहीं करते। अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में मोदी ने कहा, आपको गर्व होगा कि कैसे आज हमारे देश में सामान्य व्यक्ति बिना किसी सिफारिश के ऊंचाइयों तक पहुंच रहे हैं। अब पुरस्कार देने के लिए व्यक्ति की पहचान नहीं उसके काम का महत्व बढ़ रहा है।

अपनी बात में नरेंद्र मोदी ने इस साल पद्म पुरस्कार पाने वाले ऐसे कुछ आम भारतीयों का जिक्र किया जो जनसेवा के व्यापक मकसद को लेकर आगे बढ़े। मोदी ने तीन महिलाओं के नाम का विशेष तौर पर जिक्र किया। इन तीनों महिलाओं के जीवन में कई समानताएं हैं। ये तीनों ही समाज में हाशिए पर रहने वाले वर्ग से हैं। गरीबी, अशिक्षा इन्हें विरासत में मिली फिर भी ये समस्याएं उनके जज्बे को नहीं तोड़ पाईं।

सुभाषिनी मिस्त्री: मजदूरी करके बनाया गरीबों के लिए अस्पताल

इनमें सबसे उल्लेखनीय हैं कोलकाता की सुभाषिनी मिस्त्री (75) जिन्हें इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार मिला। सुभाषिनी ने मेहनत-मजदूरी करके पाई-पाई जोड़ी और गरीबों के लिए एक अस्पताल खोला। सुभाषिनी का जन्म 1943 में बंगाल के अकाल के दौरान हुआ था। उनकी कम उम्र में ही शादी कर दी गई। 1971 में इलाज के अभाव में उनके पति की मृत्यु हो गई। हालांकि उन्हें मामूली बीमारी थी लेकिन गरीबी की वजह से समय पर सही इलाज नहीं मिल पाया। इसी समय सुभाषिनी ने ठाना कि वह कुछ ऐसा करेंगी कि भविष्य में उनके पति की तरह किसी गरीब की बिना इलाज के मौत ना हो। पति की मौत के बाद चारों बच्चों की जिम्मेदारी सुभाषिनी पर आ गई। घरों में काम करके, सब्जी बेचकर उन्होंने बच्चों को पाला। अपनी कमाई को बड़े बेटे की पढ़ाई और अस्पताल बनाने के लिए बचाना शुरु किया। 20 वर्षों तक पैसे जोड़कर सुभाषिनी ने 10 हजार रुपये में एक एकड़ जमीन खरीदी। गांव वालों से चंदे में 962 रुपये मिले और इए तरह एक कच्चे कमरे में अस्पताल की शुरूआत हुई। इसके बाद लाउडस्पीकर पर अपील करके फ्री में मरीजों को देखने वाले डॉक्टरों की खोज शुरु हुई। पहले दिन 252 मरीज आए, धीरे-धीरे सुभाषिनी को स्थानीय नेताओं का सहयोग मिला। इस बीच उनका बेटा डॉक्टर बन गया। एक कमरे का अस्पताल 9000 वर्ग फीट के अस्पताल में बदल गया। यहां गरीबों से पैसे नहीं लिए जाते, जो सक्षम हैं उनसे महज 10 रूपये फीस ली जाती है। फिलहाल सुभाषिनी का सपना है कि उनका अस्पताल 24 घंटे गरीबों को सुविधा देने वाला आधुनिक अस्पताल बन जाए।

सुभाषिनी मिस्त्री का सपना है कि उनका अस्पताल आधुनिक सुविधाओं से संपन्न हो

सीतावा : देवदासी प्रथा में फंसी महिलाओं को सहारा दिया

दूसरी पद्मश्री विजेता हैं कर्नाटक की सीतावा जोद्दती (43)। सात वर्ष की उम्र में उनके माता-पिता ने देवी येल्लामा से उनका विवाह करा कर उन्हें देवदासी बना दिया था। सीतावा की तीन संतानें हुईं लेकिन उन्होंने न केवल खुद को इस कुप्रथा से बाहर निकाला, अपने बच्चों को पढ़ाया बल्कि लगभग पांच हजार देवदासियों को मुख्यधारा से जोड़ा। इसके लिए उन्होंने महिला अभिवृद्धि समरक्षणा संस्थते नामका एक संगठन बनाया। इसे उन्हीं की तरह देवदासियां संचालित करती हैं। इस संगठन का मुख्य लक्ष्य है इस प्रथा के खिलाफ लोगों को जागरूक करना, पीड़ित महिलाओं को समाज में सम्मान दिलाना और उनके बच्चों को शिक्षा व रोजगार मुहैया कराना।

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लक्ष्मीकुट्टी: जड़ी-बूटियों के ज्ञान को बचाने वाली जंगलों की दादी

तीसरी पद्मश्री विजेता हैं केरल की लक्ष्मीकुट्टी (75)। उन्हें आदिवासी प्यार से जंगल की दादी बुलाते हैं। वह साधारण सी दिखने वाली एक असाधारण आदिवासी महिला हैं। उनकी स्कूली पढ़ाई सिर्फ 8वीं कक्षा तक की है, लेकिन वह केरल के कल्लार में केरल फोकलोर एकेडमी में पढ़ाती हैं, नेचुरल मेडिसन पर लेक्चर देती हैं और समय मिलने पर कविताएं लिखती हैं। उन्हें आज भी 500 के आसपास हर्बल या जड़ी-बूटी वाली दवाएं याद हैं जो उन्होंने अपनी मां से सुन-सुन कर सीखीं। इन दवाओं की बदौलत वह सांप काटने, बिच्छू के डंक के अलावा कई बीमारियों का इलाज कर लेती हैं। लक्ष्मीकुट्टी 60 के दशक से अपने ज्ञान को छात्रों, शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों के साथ साझा करती रही हैं। 1995 में उन्हें केरल सरकार ने नेचुरोपैथी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। 2016 में उन्हें इंडियन बायोडायवर्सिटी कांग्रेस ने सम्मानित किया था। पद्मश्री से सम्मानित किए जाने के बाद उन्होंने कहा, आजकल चारों ओर जंगल और पेड़ काटे जा रहे हैं, मैं चाहती हूं कि सरकार इस तरफ भी ध्यान दे।हमें अपने जंगलों को बचाना होगा।

लक्ष्मीकुट्टी को आदिवासी प्यार से जंगल की दादी बुलाते हैं

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