हिमाचल प्रदेश में बंदरों की संख्या 33 फीसदी से अधिक घटी, फिर भी मारने की छूट, खतरे में 37 हजार से ज्यादा बंदर

केंद्र सरकार की अधिसूचना के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में नुकसान पहुंचा रहे बंदरों को मारा जा सकता है। जिन 10 जिलों में इन बंदरों की मारने की अनुमति मिली है वहां इनकी संख्या 37 हजार से ज्यादा है। ऐसे में अब सवाल यह भी है कि क्या इन हजारों बंदरों को लिए दूसरे विकल्प नहीं है?

Mithilesh DharMithilesh Dhar   9 Jun 2020 10:45 AM GMT

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
monkey, himachal pradesh, killedहिमाचल प्रदेश में बंदरों की संख्या तेजी से घटी है। ( फोटो- iStockphoto)

केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश के रीसस मकाक प्रजाति के बंदरों को 10 जिलों में वर्मिन (पीड़क जंतु) घोषित किया है। इस घोषणा के बाद अब किसान या कोई भी अपनी फसलों या जानमाल की रक्षा करने के लिए बंदरों को मार सकता है। शर्त यह है कि इन बंदरों को केवल अपनी निजी भूमि पर ही मारा जा सकता है। सरकारी भूमि या जंगलों में नहीं। 10 जिलों में इन बंदरों की संख्या 37 हजार से ज्यादा है।

दस जिलों 91 तहसीलों में बंदलों को मारने की अनुमति दी गई है। प्रदेश में इन बंदरों को वर्ष 2016 से ही मारा जा रहा है। कारण इन बंदरों की वजह से भारी मात्रा में किसानों की फसलें बर्बाद हो रही हैं। बंदर इंसानों को काट भी रहे हैं, लेकिन क्या इन्हें मारना ही एक मात्र विकल्प है ? जबकि हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2019-20 के दौरान इन बंदरों की संख्या में 33.5 फीसदी तक की गिरावट आई है।

हिमाचल प्रदेश की सरकार ने वर्ष 2019 के फरवरी महीने में केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी। रिपोर्ट में बताया गया था कि जंगलों के बाहर रीसस मकाक प्रजाति के बंदर बहुत बढ़ गये हैं जिससे बड़े पैमाने पर कृषि के साथ लोगों के जीवन और संपत्ति का नुकसान हो गया है। रीसस मकाक बंदर वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित प्रजाति है लेकिन सरकार ने अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए इन्हें हिंसक जंतु घोषित किया और एक साल तक इनके शिकार की अनुमति दे दी थी।

केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की अधिसूचना।

एक साल बीतने के बाद प्रदेश सरकार ने बंदरों को मारने के लिए केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और समय मांगा। केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश को 23 अप्रैल 2020 से एक साल का समय और दे दिया।

इससे पहले उत्तराखंड के जंगली सुअरों को भी हिंसक घोषित किया गया था। नवंबर 2018 में आई इस अधिसूचना में वहां के प्रशासन को जंगली सुअरों को 13 जिलों के कई तहसीलों में मारने की अनुमति दी गई थी।

हिमाचल प्रदेश की सरकार ने वर्ष 2016 में शिमला शहर और प्रदेश की 38 तहसीलों में एक बंदर को मारने के लिए 300 रुपए का पुरस्कार रखा था। बाद में इसे बढ़ाकर 500 कर दिया गया। बंदर को पकड़कर नसबंदी कराने पर 1,000 रुपए का पुरस्कार सरकार दे रही है। इससे भी काम नहीं हुआ तो बड़े स्तर पर बंदरों की नसबंदी की योजना लाई गई।

इसके लिए प्रदेश में नौ केंद्र बनाये गये। 31 मार्च 2020 तक इन केंद्रों पर लगभग 163,375 बंदरों की नसबंदी भी कराई गई जिसमें कुल लगभग 777 लाख (7.77 करोड़) रुपए का खर्च आया। इन सब कवायदों के बाद भी प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार से और एक साल मांगा।

हिमाचल प्रदेश बंदरों की हुई नसबंदी की रिपोर्ट।

हिमाचल प्रदेश की गौरी मौलेखी लंबे समय से पशु अधिकारों को लेकर काम कर रही हैं। वे गांव कनेक्शन को फोन पर बताता हैं, "केंद्रीय वन मंत्रालय वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया देहरादून के साथ मिलकर एक दवा पर काम कर रहा है जिससे बंदरों की प्रजनन क्षमता खत्म हो जायेगी। इससे उनकी आबादी भी घट जायेगी। दिल्ली सरकार ने 16 हजार बंदरों को एक सेंचुरी में रखा गया है और वहां की सरकार उन्हें खाना खिलाती है। वहां के बंदर कहीं उत्पात नहीं मचाते क्योंकि उन्हें वहां खाना मिलता रहता है।"

"इस तरह के उपाय बेहतर है। बंदरों को मारने के फैसला कतई ठीक नहीं कहा जा सकता। हम तो अहिंसा की बात करते हैं। हमारे तो संविधान में लिखा है पशुओं के साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। फिर हम मारने की बात क्यों करने लगे। हिमाचल प्रदेश में बंदरों की संख्या 30 फीसदी तक घटी है तो उन्हें मारने की क्या जरूरत है। सरकार को चाहिए कि इस तरह के आदेश की बजाए वनों और वन्यजीवों के कुप्रबंधन को लेकर उचित कदम उठाए।" वे आगे कहती हैं।

गौरी आगे कहती हैं कि सरकार ने गलत तरीके से बंदरों की नसबंदी पर करोड़ों रुपए खर्च कर दिये। जंगली जानवरों की बड़े पैमाने पर सर्जिकल नसबंदी की गई और अब उन्हें मारने के लिए एक अधिसूचना जारी कर दी गई। ऐसा नहीं है कि इन्हें मारना ही एक मात्र उपाय है।

हिमाचल प्रदेश में वर्ष 2015 में रीसस मकाक प्रजाती के बंदरों की संख्या 2,05,167 थी। सालिम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री, तमिलनाडु की रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार बंदरों की संख्या घटकर 1,36,443 हो गई है। ये कुल 3,336 ग्रुप में हैं। यह रिपोर्ट सरकार की निगरानी में तैयार हुई है जिसके सर्वे में काफी समय लगा। सरकार ने दावा कि बंदरों की नसबंदी के कारण संख्या में गिरावट आई है। 2003-04 में प्रदेश बंदरों की संख्या 3.17 लाख थी।

सालिम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री की ही सर्वे रिपोर्ट के अनुसार जिन 10 जिलों में रीसस मकाक प्रजाति के बंदरों को मारने का आदेश आया है, उनके से आठ जिलों में ही इन बंदरों की संख्या 37,077 हजार से ज्यादा है। रिपोर्ट में इसमें कांगड़ा और सिरमौर जिले के आंकड़े शामिल नहीं हैं। इन दोनों जिलों को जोड़ेंगे तो कुछ आंकड़ा और ज्यादा हो जायेगा। इनमें बंदरों की संख्या शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की अलग-अलग हैं।


केंद्र सरकार की अधिसूचना के मुताबिक बंदरों को अपने निजी भूमि पर ही मारा जा सकता है, इसका सीधा मतलब यह भी हो सकता है कि ज्यादातर बंदर ग्रामीण क्षेत्रों में मारे जाएंगे क्योंकि वहां वे किसानों का बहुत नुकसान कर रहे हैं, लेकिन

शिमला नगर-निगम ने भी बंदरों को मारने के आदेश दे दिये थे। ऐसे में शहरी क्षेत्रों में भी बंदरों को मारा जा सकता है।

हिमाचल प्रदेश के वन मंत्री गोविंद सिंह ठाकुर ने वर्ष 2019 में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि प्रदेश में वर्ष 2015 से 2019 के बीच मात्र 100 बंदरों को ही मारा जा सका है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां बंदर हमारे धर्म से जुड़े हुए हैं। इस दौरान 548 ग्राम पंचायतों में बंदरों ने 184 करोड़ रुपए से ज्यादा फसल और फलों को बर्बाद कर दिया।

हिमाचल प्रदेश किसान सभा के प्रदेश सचिव संजय चौहान इस पूरे मामले पर सरकार को घेरते हैं। वे गांव कनेक्शन से फोन पर कहते हैं, "किसान बंदरों को नहीं मारना चाहते और न ही मार पाएंगे। प्रदेश सरकार ऐसा करके अपना पल्ला झाड़ लेती है और किसानों को हर साल नुकसान हो रहा है। हम सरकार से लगातार मांग कर रहे हैं कि उने लिए फलदार जंगल लगवाएं जाएं ताकि वे जंगलों की तरफ चले जाएं। जितने पैसे सरकार इन सब पर खर्च कर रही है, उतने में अब तो कई जंगल बस गये होते। बंदरों को मारने के लिए किसानों के पास हथियार भी नहीं हैं। मजबूरी में किसानों को कुछ न कुछ तो करना ही होगा।"

हिमाचल प्रदेश में साल दर साल हुई नसबंदी की रिपोर्ट। (सोर्स- http://www.sacon.in/)

"जब देश में अंग्रेजों का राज था तब गर्मियों में वे शिमला में रहते थे। वे लोग इन बंदरों को रिसर्च के लिए दूसरे देशों में एक्पोर्ट करते थे। तब इनकी संख्या को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया गया था।" संजय चौहान आगे कहते हैं।

ऐसे में यह तो साफ है कि हिमाचल प्रदेश में बंदरों का आतंक नया नहीं है। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर वेद प्रकाश भी यही कहते हैं। वे बताते हैं, "अंग्रेजों को तब यह भी पता था कि भारत में बंदरों को लेकर धार्मिक मान्यताएं भी बहुत हैं, ऐसे में वे लोग इसे लेकर गुपचुप काम करते थे। शिमला में हनुमान जी का बहुत बड़ा मंदिर है। ऐसे में यह समझना चाहिए कि यहां के लोग बंदरों को नहीं मारना चाहते। सरकार खुद कुछ नहीं करना चाहती। ऐसे में सरकार लोगों को बंदरों को मारने के लिए प्रेरित कर रही है।"

पिछले साल कई ऐसी खबरें आई जिनमें सामने आया कि हिमाचल प्रदेश में बंदरों को जहर देकर मारा जा रहा है। सोलन और सिरमौर जिले में कुछ किसानों ने जहर के जरिये बंदरों को मारा, हालांकि विभाग इससे इनकार करना रहा।

बंदर फसलों को तो नुकसान पहुंचा ही रहे हैं, इंसानों पर हमले भी कर रहे हैं। शिमला के आईजीएमसी (इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल) में अस्पताल में साल 2015 में 430 मामले बंदरों के काटने दर्ज हुए थे। वर्ष 2016 में मामले बढ़कर 626 हो गए। 2017 में मामलों में कुछ और बढ़ोतरी हुई और यह आंकड़ा 649 तक पहुंच गया जबकि 2018 में 742 लोगों को बंदरों ने काटा। पिछले साल जून 2019 तक बंदरों के काटने के कुल 366 मामले सामने आए थे।

गांव कनेक्शन ने इस पूरे मामले को समझने के लिए हिमाचल प्रदेश की प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वाइल्ड लाइफ) डॉ सविता से बात की। वे कहती हैं, "पहली बात तो मीडिया में गलत तरीके से खबर दिखाई गई कि बंदरों को बड़े पैमाने पर मारने की इजाजत दी गई है। हमारे यहां वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट में सेक्शन 62 है जिसमें अगर किसी भी एनिमल को वर्मिन घोषित कर दें तो उसे मारा जा सकता है। जानवर जब खेत में आकर उसकी फसल को नुकसान पहुंचा सकता है। उसके बच्चे को घायल कर सकता है तब उस किसान को उसे मारने की इजाजत मिलेगी।"


"एक हमारा सेक्शन होता है 11B जिसमें आपको भारत सरकार से भी इजाजत लेने की जरूरत नहीं होती। अगर कोई जानवर खेतों में नुकसान पहुंचाता है तो इसके तहत प्रदेश सरकार से इजाजत के बाद डीएफओ (जिला वन अधिकारी) जानवर को वर्मिन घोषित करके मारने की इजाजत दे सकता है। वर्मिन घोषित होने के बाद अपनी जान बचाने के लिए इंसान उसे मार सकते हैं। वर्मिन घोषित कराने के लिए हमने केंद्र सरकार से इसलिए मांग क्योंकि हमारे यहां किसानों को इन बंदरों से बहुत नुकसान हो रहा था। कई जगहों पर तो किसानों ने खेती ही बंद कर दी।" वे आगे कहती हैं।

शहरों की तरफ बंदर क्यों आ रहे हैं, इस पर डॉ सविता कहती हैं, "हिमाचल प्रदेश में टूरिस्ट बड़ी संख्या में आते हैं। वे सामाना आधा खाते हैं और आधा फेंक देते हैं। ऐसे में बंदरों को शहरों में खाने के लिए मिलता है इसलिए वे इधर की ओर चले आते हैं। हमारे यहां तो वैसे भी बंदरों को लोग मारना नहीं चाहते। वर्ष 2018-19 के तहत प्रदेश में सिर्फ पांच बंदरों को ही मारा गया जबकि हम बंदर मारने के लिए 500 रुपए भी दे रहे हैं। बंदरों को मारने की इजाजत बस उन्हें ही है जिनका वे नुकसान करेंगे।"


जब बंदरों की संख्या घट रही है तो फिर से केंद्र से वर्मिन घोषित कराने की जरूरत क्यों पड़ी, इस पर डॉ सविता कहती हैं कि हमने जब केंद्र सरकार से मांग की थी उस समय तक यह रिपोर्ट नहीं आई थी। हमने दूसरे विकल्पों को पर भी काम किया। बंदरों को एक जगह रखने के लिए जगह भी चिन्हित किया, लेकिन जब रिसर्च किया तो पता चला कि एक बंदर पर कम से कम एक लाख रुपए सालाना का खर्च आयेगा। हमारे पास बंदरों की संख्या की बहुत ज्यादा है। इसलिए इस विकल्प पर सहमति नहीं बन पाई।

शिमला विश्वविद्यालय के छात्र और पत्रकार अंकुश का मानना है कि बंदरों ने किसानों को काफी नुकसान पहुंचाया है, लेकिन इसके लिए वे सरकार को ही जिम्मेदार बताते हैं। वे कहते हैं, "पहले बंदरों को अनुबंध के तहत अमेरिका निर्यात किया जाता था, लेकिन भाजपा की सरकार आते ही निर्यात बंद कर दिया गया। जंगलों की कटाई भी तो हुई है। जंगलों के फल इंसान बेच रहे हैं। फिर बंदर क्या करेंगे। नसबंदी से भी कोई फायदा नहीं हुआ। ईनाम देने की योजना भी फ्लॉप साबित हुई। ऐसे में अब सरकार को इस पर राष्ट्रिय निति बनानी चाहिए। तभी इस समस्या से किसानों को छुटकारा मिलेगा। बंदरों को मारने की नीति से कुछ नहीं होगा।"

बंदरों को वर्मिन घोषित किये जाने का विरोध लंबे समय से हो रहा है। ध्यान फाउंडेशन ट्रस्ट इसके खिलाफ ऑनलाइन मुहिम भी चला रहा है। फाउंडेशन शिमला के जाखू मंदिर में आने वाले बंदरों को पिछले चार वर्षों से खाना भी दे रहा है। हनुमान जी के मंदिर के आसपास बंदरों की संख्या बहुत ज्यादा है।

खाने के लिए लाइन से बैठे बंदर। (फोटो- ध्यान फांउडेशन)

फांउउेशन से जुड़ी पूनम कपूर गांव कनेक्शन को बताती हैं, "हमारे लोग वहां प्रतिदिन बंदरों को फल, सब्जी चना आदि देते हैं। वे कोई उत्पाद नहीं मचाते। इंसानों उनके घरों को खत्म कर रहे हैं। ऐसे में वे कहां जाएंगे। जब वे भूखे होते हैं, उनका पेट खाली होता है तभी वे इंसानों को नुकसान पहुंचाते हैं, फसलों को बर्बाद करते हैं। हमने सरकार को पत्र भी लिखा है कि वे अपना फैसला वापस ले लें। बंदरों को खाना खिलाने की जिम्मेदारी हम लेने के लिए तैयार है।"

  

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.