सरकारी आंकड़ों में 42 हज़ार से ज़्यादा मैनुअल स्कैवेंजर्स, लेकिन फिर भी पुनर्वास के बजट में कटौती

बजट पेश होने के ठीक एक दिन बाद केंद्र सरकार ने लोकसभा को बताया कि देश भर में पिछले पांच साल में सीवर और सैप्टिक टैंक की सफ़ाई के दौरान 340 सफ़ाई कर्मियों की मौत हुई है। लेकिन इसके बावजूद सफ़ाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए इस साल के बजट में पिछले साल की बजट घोषणाओं की तुलना में कमी आई है।

Neetu SinghNeetu Singh   4 Feb 2021 4:26 PM GMT

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सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में अभी भी बड़ी संख्या में मैनुअल स्कैवेंजर्स हैं।सफ़ाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए इस साल के बजट में पिछले साल की बजट घोषणाओं की तुलना में कमी आई है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में अभी भी बड़ी संख्या में मैनुअल स्कैवेंजर्स हैं। इनके पुनर्वास की सरकारी योजना के लिए वित्त वर्ष 2020-21 में 110 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे जिसे संशोधित अनुमानों में 72.72% घटाकर 30 करोड़ रुपए कर दिया गया। इस साल के बजट में वित्त वर्ष 2021-2022 के लिए यह राशि 100 करोड़ रुपए है जो संशोधित अनुमानों से तो ज़्यादा है लेकिन पिछले साल की बजट घोषणाओं से कम है।

मैनुअल स्कैवेंजर्स पर काम कर रहे बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के संयोजक कुलदीप कुमार बौद्ध कहते हैं, "सरकार ये स्वीकारती है कि देश में अभी भी हाथ से मैला ढोने वाले लोग हैं तो फिर इनके पुनर्वास के लिए सरकार प्रयास क्यों नहीं करती? एक तो बजट कम है दूसरा जो आवंटित राशि खर्च नहीं होती है तो ये किसकी जवाबदेही होगी।"

लोकसभा में दो फरवरी 2021 को एक सवाल के जवाब में सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास आठवले ने बताया कि पिछले पांच वर्षों में 31 दिसंबर 2020 तक के आंकड़ों के मुताबिक़, 19 राज्यों में सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 340 सफ़ाई कर्मचारियों की मौत हुई है। इन आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा, उत्तर प्रदेश में 52, तमिलनाडु में 43, दिल्ली में 36, महाराष्ट्र में 34, गुजरात में 31 और कर्नाटक में 24 मौतें हुईं।


सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन काम करने वाली संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसकेएफडीसी) ने 18 राज्यों के 170 जिलों में अगस्त 2019 में एक सर्वे किया था। सर्वे में कुल 87,913 लोगों ने खुद को मैला ढोने वाला बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था। जिसमें सिर्फ 42,303 लोगों को ही राज्य सरकारों ने मैनुअल स्कैवेंजर्स (मैला ढोने वाले लोग) के रूप में स्वीकार किया। इस हिसाब से जितने लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया था, उसमें से 50% से भी कम लोगों को मैनुअल स्कैवेंजर्स माना गया।

सीवेज कर्मचारियों के लिए काम कर रहे, अशोक टांक ने कहा, "इस बजट में सीवेज कर्मचारियों और मैला ढोने वालों की मांगों को पूरा करने के लिए धन का आवंटन नहीं है। इनके साथ जो सामाजिक शोषण होता है जो अवहेलना होती है उस दिशा में जारी बजट अशोभनीय है। प्रधानमंत्री ने स्वच्छता कर्मचारियों को उनके पैरों की सफाई करके विशेष सम्मान दिया था लेकिन बजट में वो सम्मान क्यों नहीं दिखा? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकांश सीवेज श्रमिक और मैनुअल श्रमिक अनुसूचित जाति के हैं।"


नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसकेएफडीसी) के 30 नवंबर 2020 तक के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 से लेकर 2018 तक देश के 17 राज्यों में कुल 57,396 मैनुअल स्कैवेंजर्स को 40,000 रुपए की पुनर्वास राशि दी गई है। ये राशि सबसे ज्यादा यूपी में 32,028 लोगों को दी गयी है। दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र 6,261, तीसरे नंबर पर उत्तराखंड 4,968, चौथे पर नंबर पर असम 3,831 और पांचवें नंबर पर कर्नाटक में 2,890 मैनुअल स्कैवेंजर्स को दी गई।

गाँव कनेक्शन ने दिसंबर 2020 में 'स्वच्छ भारत में मैला उठाती महिलाएं' के नाम से एक विशेष सीरीज भी की थी। इस रिपोर्ट में यूपी के जालौन ज़िले के संदी गांव की शोभारानी (45) ने बताया था कि वो 30-35 साल से अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए हाथ से मैला उठाने का काम कर रही हैं। हालांकि जिन महिलाओं को काम बंद करने के बदले पुनर्वास के लिए 40,000 रुपए की राशि मिली है उन्होंने ये काम छोड़ तो दिया है मगर उनके सामने भी रोजी-रोटी का संकट है। ये समुदाय भूमिहीन होता है, इनके पास रोजगार का कोई साधन नहीं हैं, छुआछूत की वजह से इनके बच्चे पढ़ाई नहीं कर पाते।


नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के अनुसार उत्तर प्रदेश में 47 जिलों से 41,068 लोगों ने खुद को मैनुअल स्कैवेंजर्स बताते हुए रजिस्ट्रेशन कराया था जबकि राज्य सरकार ने केवल 19,712 लोगों को मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में स्वीकार किया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश में अभी भी 19,000 से ज्यादा महिलाएं मैला उठाने का काम कर रही हैं।

हाथ से मैला ढोने का काम करने वाले लोगों के पुनर्वास के लिए 'राज्य स्तरीय निगरानी समिति के सदस्य, जालौन ज़िले के भग्गू लाल वाल्मीकि केंद्रीय बजट 2021-2022 पर कहते हैं, "कोविड के दौरान इस समुदाय ने अपनी जान की परवाह किये बगैर काम किया लेकिन बजट के अभाव में कईयों को समय से मानदेय नहीं मिल पाया। जो महिलाएं हाथ से मैला ढोने का काम कर रही हैं बजट के अभाव में उनका पुनर्वास नहीं हो पा रहा, जो काम छोड़ चुकी हैं बजट के अभाव में उन्हें कौशल विकास प्रशिक्षण से नहीं जोड़ा जा रहा है। इन तमाम समस्याओं के बावजूद बजट कटौती कीबात समझ नहीं आती।"


     

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