'मदर्स ऑफ़ इण्डिया' पार्ट-2: उस मां की कहानी जो हर दिन अपनी जान जोखिम में डालकर अपने बच्चों की परवरिश करती है
अपने बच्चों की परवरिश के लिए क्या-क्या करती हैं माएं? महिला दिवस के उपलक्ष्य में गांव कनेक्शन की विशेष सीरीज में मिलिए कुछ ऐसी मांओं से जो अपने परिवार के लिए दहलीज़ लांघकर, लीक से हटकर काम कर रही हैं। आज मिलिए नाव चलाने वाली शीला नायक से ...
Neetu Singh 3 March 2020 9:43 AM GMT
ये कहानी उस बहादुर मां की जिंदादिली की है जो नाव चलाकर हर दिन अपनी जान जोख़िम में डालती है।
"डर लगता है पर क्या करें डर को मारते हैं इसी कमाई से बेटा-बेटी को पढ़ाते हैं।" पानी के बीचोबीच सुबह के छह बजे नाव को खेते हुए शीला नायक बोलीं।
जिस गेतलसूत डैम में शीला नायक (34 वर्ष) नाव चलाती हैं वो झारखंड का एक बड़ा डैम माना जाता है। शीला रांची जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर अनगढ़ा ब्लॉक के महेशपुर बगान टोली में रहती हैं। इस बस्ती में 45 घर हैं। नाव चलाकर मछली मारना यहां के लोगों का पुश्तैनी काम है जिसे वर्षों से यहां के पुरुष करते आ रहे थे।
नाव चलाने का जो काम वर्षों से पुरुष करते आ रहे थे इस धारणा को तोड़ने वाली शीला नायक पहली महिला हैं। शीला के देखादेखी इस बस्ती की कई महिलाओं में ये हिम्मत आयी कि वो भी ये काम कर सकती हैं। शीला की तरह अब दर्जनों महिलाएं बेखौफ़ होकर नाव चलाती हैं।
"सुबह तीन चार बजे उठकर जब डैम में जाते हैं तो बच्चों को दुलार लेते हैं। पता नहीं वापस घर लौटकर आयेंगे कि नहीं ये कह पाना मुश्किल होता है।" शीला नायक ने भावुक होकर बताया, "हवा के तेज झोंके जब आते हैं तो ऐसा लगता है अब नहीं बचेंगे लेकिन थोड़ी देर में ये झोके थम जाते हैं तब राहत की सांस लेते हैं।"
बड़े डैम में नाव चलाकर मछली पकड़ना जोखिम भरा काम है पर शीला नायक रोज इन लहरों को चीरती हैं। जिस डैम के बीचोबीच ये मछलियां पकड़ती हैं वहां से दूर-दूर तक सिर्फ पानी दिखाई पड़ता है। सुबह के तीन चार घंटे और शाम के तीन चार घंटे इन्हें इस डैम के बीच में ही मछली फंसने के लिए जाल डालना पड़ता है।
"माड़ भात, चोखा भात, चटनी भात ऐसा खाना कई वर्ष खाया है पर जब बच्चे हो गये तो उनको ये खाना नहीं खिला सकते थे। इसलिए मजबूरी कहिए या बहादुरी इसी काम को अपना लिया।" शीला नायक यह बताते हुए भावुक हो गईं, "पर खुश हूं अभी, क्योंकि आज मेरे बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं। उनकी फीस कॉपी-किताब सबका इंतजाम हम नाव चालकर पूरा कर लेते हैं।"
शीला का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। चार बहन दो भाई में सबसे बड़ी शीला नायक की शादी महज 15 साल की उम्र में हो गयी थी। ससुराल के हालात भी बहुत खराब थे। मजदूरी करके तीन बेटी और एक बेटा का खर्च चलाना इनके लिए मुश्किल हो रहा था। इसलिए इन्होंने नाव चलाने का हुनर सीखा जिसे इनके पति कार्तिक नायक 18 साल से कर रहे थे।
शीला के इस चुनौतीपूर्ण काम को बहुत करीब से देखने के लिए बतौर रिपोर्टर हमने इनके साथ 24 घंटे बिताये। हमने इनकी पूरे दिन की गतिविधि को बहुत करीब से महसूस किया।
शीला के साथ हम भी उनके साथ उस दिन डैम में गये और नाव में बैठकर दो तीन घंटे डैम के बीचोबीच रहे।
"मुझे अब इन लहरों से डर नहीं लगता। ये तो हमारे साथ हर दिन होता है। मैं इसलिए परेशान हो गयी थी क्योंकि इस नाव में आप बैठीं थीं।" शीला के इन शब्दों ने मुझे भावुक कर दिया था।
शीला ने ये शब्द हमसे उस वक़्त कहे थे जब नाव चलाते हुए अचानक से पानी में तेज लहरें उठने लगी। कुछ देर के लिए नाव पानी में डगमगाने लगी। इन लहरों ने उन्हें और हमें कुछ देर के लिए बहुत बेचैन कर दिया था।
ये रिपोर्टिंग के कैरियर में मेरा पहला अनुभव था जब हमने इतने डरावने हालात हो करीब से रिपोर्ट किया था। लगभग दो तीन मिनट की तेज लहर ने मेरे मन में हजारों सवाल खड़े कर दिए थे। मुझे बचकर निकलने की उम्मीद नहीं थी। जबकि शीला अपने चेहरे पर चिंता की तमाम लकीरों के बावजूद लहर की दिशा में तेजी से नाव चला रही थीं।
"हमारे साथ हर दिन ऐसा होता है, अब तो आदत सी हो गयी है। पांच छह साल यही काम कर रहे हैं पर कुछ नहीं हुआ है।" शीला लगातार हवा की दिशा में नाव चला रही थीं।
जब दो तीन मिनट बाद हवा का ये झोंका थमा तब मैंने शीला की ओर देखा तो उनके चेहरे पर किसी बड़े हादसे से बाहर सुरक्षित निकलने का आत्मविश्वास था।
"खेती नहीं है हमारे पास, इतने पढ़े लिखे नहीं कि नौकरी कर सकें। अब तो हाथों का यही हुनर है जिससे बच्चों की परवरिश अच्छे से कर पा रहे हैं।" शीला ने डैम के बाहर नाव को रस्सी में बांधते हुए बोलीं।
शीला नायक रोज इन जोखिमों का सामना करती हैं। पर वो नाव चलाना नहीं छोड़ सकती क्योंकि ये उनके परिवार की रोजी रोटी का सवाल है। गर्मी में जो हवा के झोंके हमें और आपको सुकून देते है वो नाव चलाने वाली शीला जैसी उन तमाम महिलाओं के लिए जोख़िम भरे होते हैं।
शीला जब डैम के बीच में थीं तब वो जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही थी लेकिन डैम से बाहर निकलते ही उनकी प्राथमिकताएं कुछ और थीं।
शीला की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा, "घर चलिए, मेरे बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे होंगे। देखूं चलकर उन्होंने कुछ नाश्ता बनाया या नहीं।"
हमने ये महसूस किया कि उनके पास इतना भी वक़्त नहीं था कि वो डैम के अन्दर हुई परेशानियों के बारे में कुछ सोंच पाए जबकि मेरे दिमाग में अभी भी सबकुछ वही घूम रहा था।
उनके पति ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और वो मछलियों से भरे बैग को लेकर घर के लिए चल दीं।
"जब तक मछली पकड़कर आते हैं बच्चे स्कूल जाने के लिए खुद से तैयार हो जाते हैं। बेटी अगर जल्दी उठ गयी तो खाना भी बना लेती है।" शीला नायक दरवाजा खोलते हुए बोलीं।
घर पहुंचते ही इन्होंने जाल में फंसी मछलियों को निकालना शुरू कर दिया क्योंकि सात आठ बजते-बजते ये मछली उन्हें अपने घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर रांची में लगने वाले लालपुर बाजार में पहुंचना था। मछली बेचकर 12 से एक बजे तक ये घर पहुंचती हैं और फिर एक दो घंटे बाद वही जाल डालने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
"बिना कुछ खाये मछली बेचने बाजार चले जाते हैं अगर समय से नहीं पहुंचे तो ये मछली किसी काम की नहीं। खरीदने वाले लोग सुबह-सुबह आते हैं।" शीला तराजू से मछली तौलती हुई बोलीं।
जाल में मछली फंसाने से लेकर बाजार तक पहुँचाने तक की पूरी जिम्मेदारी शीला नायक बखूबी निभाती हैं। पर इन सबके बीच इन्हें जीतोड़ मेहनत करनी पड़ती है हर दिन अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है।
रोजाना जिस हिसाब से जाल में मछली फंसती उस हिसाब से शीला की आमदनी 500-2000 रुपए तक हो जाती है। इनकी छुट्टी उसी दिन होती है जिस दिन हवा चलती है। बाकी ये इनका हर दिन का काम है।
ये समय की बहुत पाबन्द हैं बस इनकी दिनचर्या तब अस्त-व्यस्त होती है जब इनके काम के समय हवा चलने लगती है।
"कई लोग हमें नाव चलाते हुए देखने आते हैं पर उनको हमारे जोखिम नहीं पता है। आये हुए लोग हमारी बहादुरी की तारीफ करते हैं। अच्छा लगता है पर कठिन काम है।" शीला बोलीं।
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