'मदर्स ऑफ़ इण्डिया' पार्ट-6: 'गाड़ी रोककर लोग हंसते थे, कहते थे देखो ये महिला कारीगरी कर रही है'

अपने बच्चों की परवरिश के लिए क्या-क्या करती हैं माएं? महिला दिवस के उपलक्ष्य में गांव कनेक्शन की विशेष सीरीज में मिलिए कुछ ऐसी मांओं से जो अपने परिवार के लिए दहलीज़ लांघकर, लीक से हटकर काम कर रही हैं। आज मिलिए मकान बनाने वाली महिला कारीगर लक्ष्मीबाई कुशवाहा से ...

Arvind Singh ParmarArvind Singh Parmar   8 March 2020 1:44 PM GMT

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ललितपुर। जब वो कन्नी पकड़कर फुर्ती से प्लास्टर करती है तो पहली नजर में लोगों को भरोसा नहीं होता।

"गाड़ी रोककर लोग हंसते थे, कहते थे देखो ये महिला कारीगरी कर रही है।" दीवाल का प्लास्टर कर रही लक्ष्मीबाई कुशवाहा बोलीं।

क्योंकि लक्ष्मीबाई जिस काम को करती थीं वो काम सिर्फ पुरुषों का काम माना जाता है पर लक्ष्मीबाई इस धारणा को तोड़ने वाली अपने जिले की पहली महिला हैं जो रानी मिस्त्री बनकर आगे आयीं।

"लोग हंसते, सवालिया निगाहों से देखते, कुछ-कुछ बोलकर चले जाते, पर मैं अपने काम में लगी रहती।" साधारण सी दिखने वाली लक्ष्मीबाई कुशवाहा (45 वर्ष) ने कहा, "बच्चे पालने थे तो काम करना ही था। गाँव देहात में बिना पढ़े-लिखे लोगों के लिए कहां नौकरी रखी है? तभी अपना ये काम सीख लिया।"

ये है वो बहादुर मां जो अपने क्षेत्र की सैकड़ों महिलाओं के लिए उदाहारण हैं.

लक्ष्मीबाई वो महिला हैं जिन्होंने पति की मौत के बाद 15 साल से अपने बच्चों की परवरिश राजमिस्त्री का काम करके की है। घर बनाना बहुत मेहनत का काम है इसलिए इसे पुरुष करते हैं पर लक्ष्मीबाई ने इस धारणा को तोड़ा। ये अपने क्षेत्र की पहली महिला हैं जो रानी मिस्त्री का काम करती हैं।

"ये मजदूरी करते थे इतनी आमदनी नहीं होती थी कि बचत की जा सके। इनकी मौत के बाद हमारे पास खाने तक के लिए अनाज नहीं था। ये रोज जितना कमाते थे उससे खाना खर्चा चलता था।" लक्ष्मीबाई का गला भर्रा आया, "इनकी मौत के बाद बच्चों की जिम्मेदारी हमारे कंधों पर ही आ गयी थी। मजदूरी का कम करती थी दिन का 150 रुपए मिलता है, इतने पैसे से चार बच्चों का खर्चा नहीं चल पा रहा था तभी कारीगिरी सीख ली।"

देश के अति पिछड़े जिले में उत्तर प्रदेश के ललितपुर की गिनती होती है। लक्ष्मीबाई कुशवाहा ललितपुर जिला मुख्यालय से पूर्व दिशा में 65 किमी दूर महरौनी तहसील के गौना गाँव की रहने वाली हैं। इनके दो बेटे और दो बेटियां हैं। पति के देहान्त के बाद इन्होंने अपने एक बेटे और दो बेटियों की शादी दूसरों के घरों को बनाकर की है।

मिस्त्री का काम करती लक्ष्मीबाई.

"हम पढ़े-लिखे बिलकुल भी नहीं हैं पर हम अपने दिमाग से सोचकर घर का नक्शा तैयार कर लेते हैं। काम करते-करते अब सब आने लगा है। अब तो भरोसा करके लोग सरकारी स्कूल, सड़क, पुलिया बनाने का ठेका दे देते हैं हमें," ये कहते हुए लक्ष्मीबाई के चेहरे पर आत्मविश्वास साफ़ झलक रहा था।

लक्ष्मीबाई की कहानी देश की लाखों महिलाओं के लिए उदाहारण है। शुरुआती दौर में जब इन्होंने ये कम शुरू किया था तब लोग इनका मजाक बनाते थे लेकिन अब लोग इन्हें सम्मान से कारीगर कहकर बुलाते हैं।

अपने घर के आँगन के चबूतरे पर बैठी लक्ष्मीबाई बताती हैं, "पति का साथ दस साल तक रहा। रिश्तेदार दूसरी शादी का हमारे ऊपर दबाव बना रहे थे दबाब बना रहे थे। चार बच्चों को छोड़कर मैं दूसरी शादी नहीं कर सकती थी?" ये कहते हुए लक्ष्मीबाई की आँखे भर आईं, "मैं अपने बच्चों को देखती तो सोचती ये किसको मां कहेंगे? हमें परेशानी सहना मंजूर था पर दूसरी शादी करना नहीं।"

अपने बच्चों के लिए पुरुषों के काम को दी चुनौती.

लक्ष्मीबाई अपने आसपास आधा दर्जन से ज्यादा गाँवों में मकान बनाने का काम कर चकी हैं। इनके लिए इतना आसान नहीं था अपने छोटे-छोटे बच्चों को सम्भालना और फिर काम पर जाना।

"भोर में जल्दी उटकर खाना बनाते फिर काम पर निकल जाते।दिन पर कारीगिरी करते पर शाम को भागते-भागते घर आते फिर बच्चों के लिए खाना बनाते। बच्चे बड़े होने के बाद थोड़ा आराम हो गया है।" काम के बोझ के चलते इनकी कमर झुक चुकी है।

कारीगरी के काम में बहुत मेहनत होती है। मजदूरी के काम में मेहनत कम है तभी इसमें दिन का 150 रुपए ही मिलते हैं। कारीगरी में दिन के हिसाब से 300 से 350 रुपए मिल जाते हैं। ज्यादा पैसे मिलने की वजह से लक्ष्मीबाई ने इस काम को चुना जिससे बच्चों की परवरिश में कोई कमी न रह जाए।

पति के जाने के बाद लक्ष्मीबाई की जिंदगी के तमाम मुश्किलें आयीं। कई बार उन्हें भूखा सोना पड़ता पर बच्चों खिलाकर सोतीं।

पुराने दिनो को याद करते हुऐ लक्ष्मीबाई कहती हैं, "बच्चो के लिए जितना कर पाई सो किया। मां-बाप दोनों का प्यार दिया है। मेरे जब तक हाथ पाँव चलेंगे हम तबतक कारीगरी करते रहेंगे।"

लक्ष्मीबाई के पास जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं है। कुछ साल पहले सवा एकड़ का पट्टा हुआ था पर अभी तक इन्हें कब्जा नहीं मिला। ऐसे में ये इनका ये काम ही इनके परिवार की जीविका का मुख्य जरिया है।

"हमने तो दूसरों के कपड़े पहनकर अपनी जिंदगी काटी है। बच्चों ने भी बहुत साल पड़ोसियों के कपड़े पहने हैं। वो भी एक समय था जिसे हमने काटा। पर अब पहले से अच्छे जिंदगी है," लक्ष्मीबाई उदास होकर बोलीं, "पूरे दिन काम करके हाथ पैर जबाब दे देते हैं। इस काम में लगातार हाथ चले ही रहते हैं पर खुश हूँ कि बच्चे अब भूखे नहीं रहते।"


    

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