"पहले मैं किसी की बेटी, बहन, पत्नी और मां के नाम से पहचानी जाती थी ... अब मुझे मेरे काम से मेरे नाम की पहचान मिल गयी है"

'मदर्स ऑफ़ इंडिया' पार्ट-1: अपने बच्चों की परवरिश के लिए क्या-क्या करती हैं मांएं? महिला दिवस के उपलक्ष्य में गांव कनेक्शन की विशेष सीरीज में मिलिए कुछ ऐसी मांओं से जो अपने परिवार के लिए दहलीज़ लांघकर, लीक से हटकर काम कर रही हैं। आज मिलिए ई-रिक्शा ड्राइवर पुष्पा निषाद से ...

Neetu SinghNeetu Singh   2 March 2020 11:58 AM GMT

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पुष्पा निषाद जब सड़क पर निकलती हैं, तो सड़क चलते लोग बहुत कुछ कहते हैं।

"बहुत अच्छा काम कर रही हो!" ... "अरे वाह कमाल का हुनर है!" ... "बहुत अच्छे से चलाती हो!" ... "देखो न महिला ड्राइवर को!" ... "कमाल की ड्राइवर हो! ... "नाम क्या है आपका?" ... सैंतीस साल की पुष्पा निषाद रोजाना ऐसे वाक्य सवारियों और सड़क चलते लोगों से सुनती हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे पहले बैच में ई-रिक्शा ड्राइवर का लाइसेंस बनाने वाली सात महिलाओं में से पुष्पा एक हैं।

शहर की संकरी गलियों से लेकर बड़े चौराहों तक जब बैटरी से चलने वाला उनका ई-रिक्शा फर्राटे से चलता है तो आज भी लोगों की निगाहें अचानक इसपर कुछ देर के लिए ठहर जाती हैं।

"चारबाग़! चारबाग़! हजरतगंज! हजरतगंज!"

ये हैं पुष्पा निषाद जो ई-रिक्शा चलाकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करती हैं.

पुष्पा की कहानी देश की लाखों महिलाओं के लिए उदाहारण है। ये कहानी इसलिए भी ख़ास है क्योंकि उन्होंने अपने परिवार की खातिर पितृसत्तात्मक सोच को तोड़ते हुए लीक से हटकर काम करने की ठानी।

"पहले मैं किसी की बेटी, बहन, पत्नी और मां के नाम से पहचानी जाती थी लेकिन अब मुझे मेरे काम से मेरे नाम की पहचान मिल गयी है। एक औरत के लिए इससे बड़ी खुशी क्या हो सकती है?" पुष्पा ने ई-रिक्शा से चाभी निकालते हुए कहा, "जब पहली बार ये चाभी पकड़ी थी तो ये हाथ कांप रहे थे लेकिन अब तो कार भी चला लेती हूं। ई-रिक्शा अपना है इसलिए इसको चलाने में ज्यादा फायदा है।"

उत्तर प्रदेश में कितनी महिला ड्राइवर हैं इस बारे में उत्तर प्रदेश के परिवहन विभाग के पास महिला ड्राइवरों पर कोई आंकड़े नहीं मिले. दिल्ली ट्रांसपोर्ट विभाग के 2018 के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 75 पुरुषों पर एक महिला ड्राइवर हैं, जिनके पास गाड़ी चलाने का लाइसेंस है।

लेकिन सफल ड्राईवर बनने का सफर पुष्पा के लिए इतना आसान नहीं था। रात के करीब सात बजे एक पार्क की बेंच पर बैठी पुष्पा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव बता रहीं थीं। आज भी ये अपने मुश्किल समय को याद करके काफी देर तक रोती रहीं।

पुष्पा की तारीफ़ करते नहीं थकते लोग.

"एक बार नदीं के किनारे जाकर आत्महत्या करने की कोशिश की फिर बच्चों के चेहरे सामने आ गये। वहां से चुपचाप वापस लौट आयी। झाड़ू-पोछा करके बच्चों को पालना मुश्किल हो रहा था। पति रोज शराब पीते मारते-पीटते, गाली-गलौज करते बर्दाश्त नहीं हो रहा था।" ये बताते हुए पुष्पा अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई, "शादी के 13-14 साल तक बहुत कुछ झेला है। सोचती थी कभी तो अच्छा होगा पर नहीं हुआ। एक दिन पति ने शराब के नशे में रोड पर खींचकर बहुत मारा। जब इतने से उसका मन नहीं भरा तो मेरे प्राईवेट पार्ट में डंडा डाल दिया।"

इस घटना से पुष्पा पूरी तरह से टूट चुकी थी, महीनों इलाज चला। ये घटना 2013 की है जब पुष्पा ने अपने पति से हमेशा के लिए अलग रहने का फैसला लिया था। पति ने दो तीन दिन एक घर में बंद कर दिया। जब इसकी खबर लखनऊ में काम कर रही 'हमसफर' संस्था को लगी तो उन्होंने पुष्पा को इस सदमे से बाहर निकालने में पूरी मदद की। इस संस्था की मदद से पुष्पा ने वर्ष 2016 में ई-रिक्शा ड्राईवर की ट्रेनिंग ली और 2017 से ई-रिक्शा चला रही हैं।

"पहले दिन जब ई-रिक्शा चलाने ले गये तो मुंह से सवारियों को बुलाने के लिए आवाज़ ही नहीं निकल रही थी," पुष्पा ने पहले दिन का अनुभव बताया। "हर कोई हमें ही देख रहा था। बहुत हिम्मत करके सवारियों को धीमी आवाज़ में बुलाकर बैठाया। उस दिन पूरे दिन में केवल 60 रुपए कमाए थे।"

सड़क पर फर्राटे भरतीं पुष्पा निषाद.

पुष्पा को अपनी हिचक खत्म करने में एक दो महीने लग गये थे।

जिस "हमसफर" संस्था ने पुष्पा को यह प्रशिक्षण दिया था उस बैच में पुष्पा के साथ छः महिला ड्राइवर और थीं। ये लखनऊ में महिलाओं का ई-रिक्शा चलाने वाला यूपी का पहला बैच था। उस समय के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इन महिलाओं का हुनर देखकर इन्हें एक-एक ई-रिक्शा दिया था। ये ई-रिक्शा इन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रहा है और एक नई पहचान दे रहा है।

"अब बहुत लोग नाम से बुलाने लगे हैं। सवारियां सम्मान की नजर से देखती हैं। इस काम में खुद के नाम की पहचान मिली है।" ई-रिक्शा का हैंडल थामें पुष्पा आत्मविश्वास से कहती हैं, "इस बात का मुझे बिलकुल अफ़सोस नहीं है कि मैं पिछले छह सालों से सिंगल मदर हूं। आज मैं इतनी सक्षम हूं कि अपने तीनों बच्चों की परवरिश खुद कर सकती हूं।"

पुष्पा का कहा एक-एक शब्द पढ़ने में भले ही साधारण लग रहा हो पर पुष्पा के लिए इन शब्दों के मायने बहुत ख़ास और अलग हैं।

पुष्पा की दुनिया उनके तीन बच्चे हैं। लखनऊ के गोखले मार्ग में एक गरीब परिवार में जन्मी पुष्पा जीवन में उतार-चढ़ाव के कई दौर देख चुकी हैं।


पुष्पा को ई-रिक्शा ड्राइवर की ट्रेनिंग लखनऊ की एक गैर सरकारी संस्था 'हमसफर' ने दी है। ये संस्था पिछले 16 वर्षों से संघर्षशील महिलाओं के साथ काम करती है। इस संस्था की प्रोजेक्ट को-आर्डिनेटर ममता सिंह ने गाँव कनेक्शन को बताया: "हम संघर्षशील महिलाओं को जीवकोपार्जन के ऐसे साधनों से जोड़ने की कोशिश करते हैं जो पितृसत्तात्मक सोच को भी तोड़ते हों। अब तक 100 महिलाएं ड्राईवर का प्रशिक्षण ले चुकी हैं लेकिन परमानेंट 15 महिला ड्राईवर ही ऑन रोड चला रही हैं।"

सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में 11 फ़ीसदी महिलाओं के नाम ही गाड़ी रजिस्टर है। ये आंकड़े अपने आप में यह बताने के लिए काफ़ी हैं कि सड़क पर गाड़ी लेकर निकलने वाली महिलाओं की तादाद पुरुषों के मुक़ाबले अभी भी बहुत कम है।

ई-रिक्शा चलाकर पुष्पा एक महीने में 12,000 रुपये से 15,000 रुपये तक कमा लेती हैं। इनके दो बेटे और एक बेटी है जो पढ़ाई करते हैं। पुष्पा साल 2006 में नदी किनारे झोपड़ी बनाकर रहती थीं और दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा करके अपने बच्चों को पालती थीं। इनके मुश्किल हालातों को देखकर किसी संस्था ने इन्हें वृंदावन योजना के तहत तेलीबाग में एक आवास का आवंटन करा दिया। अपने बच्चों के साथ अब ये यहीं रहती हैं।

पुष्पा ने बताया. "अब तो कई महिलाओं को ट्रेनिंग दे चुकी हूं। कुछ रिक्शा भी चलाने लगी हैं।"

पांचवी पढ़ी पुष्पा ने शादी के बाद 13-14 साल दूसरों के घरों में झाडू-पोछा और केयर टेकर का काम करके अपने बच्चों को बड़ा किया है। पुष्पा कहती हैं, "जो मैंने झेला है वो मेरी बेटी को कभी न झेलना पड़े इसलिए शादी का फैसला मैं उसकी मर्जी से करूंगी।"

"आज मेरे घर के सारे फैसले मैं लेती हूं। मुझे अपने कमाए पैसे खर्च करने और निर्णय लेने का अधिकार है। पति से अलग रहती हूं -- लोग बहुत बाते बनाते हैं पर अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।"


   

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