कैफी आज़मी के गांव मिजवां से जहां कैफी की कलम गमज़दा होकर रो पड़ी थी
गाँव कनेक्शन 21 Sep 2018 12:53 PM GMT
आज 10 वीं की मुहर्रम है, यानि मुहर्रम की दसवीं तारीख। अगर इस्लामिक तारीख की मानें तो मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है। एक तरफ जब पूरी दुनिया में नया साल नई खुशी और उमंग लेकर आता है मगर इस्लामिक कैलेंडर में इस महीने को एक गमजदा महीना माना जाता है क्योंकि मुहर्रम की 10 तारीख को मोहम्मद साहब के दो नवासे हसन रजि. और हुसैन रजि. अपने 72 साथियों के साथ के साथ कूफा के मैदान में सच्चाई के लिये लड़ते हुए शहीद हुए थे। इसलिए 10 वीं की मुहर्रम को पूरी दुनिया में गम का माहौल होता है। लोग जगह-जगह पर हसन रजि. और हुसैन रज़ि को याद कर के मातम करते हैं।
गम का यही माहौल आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील के गांव मिजवां में भी रहा। मिजवां मशहूर शायर कैफी आज़मी की जन्म स्थली है। कहते हैं मिजवां गांव में 1899 से ताज़ियेदारी हो रही है। इस गांव के लोगों से बात कर के पता चलता है कि यहां के इतिहास में आज के दिन को लेकर कितनी चीजें दर्ज हैं। कैफी आज़मी की कलम भी आज के दिन के लिये गमज़दा होकर रो पड़ती थी...
"हुर्रियत को आज फिर है इबन ए हैदर की तलाश
वक्त को फिर है कारों में बेहतर की तलाश"
मिजवां गांव के रहने वाले रियासत हुसैन बताते हैं कि एक बार एक अजीब वाकया हुआ कैफी आज़मी साहब के घर पर। उस दिन उनके घर पर अलम का आयोजन था और अचानक उस अलम से खून रिसने लगा था। जिसके बाद आस—पास से लोग उस अलम की ज़ियारत करने आने लगे थे। कैफी आज़मी साहब और उनके वालिद मरहूम फतेह हुसैन साहब भी मिजवां गांव में मजलिस पढ़ते थे। उन्हीं की रवायतें आज भी इस गांव में देखने को मिलती हैं। पूरे महीने इस गाव में नोहा, मजलिस, मातम का आयोजन होता है। लखनऊ से बुलाए गए मौलाना यहां के अज़ा खानो में मजलिस पढ़ते हैं। इमाम ज़ैनुल आबदीन का ताबूत भी इस गांव में रखा जाता है। सबसे खास बात यहां की औरतों की मजलिस आस-पास के गांव में काफी मशहूर है जिसमें महिला आलिम दर्स देती हैं।
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