नंदा देवी लोकजात यात्रा: उत्तराखंड की वर्षों पुरानी परंपरा

नंदा देवी यात्रा: जिस तरह सावन की महीने में शिव की कावंड़ यात्रा निकाली जाती है ठीक उसी तरह उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी की यात्रा निकाली जाती है। इस यात्रा लोकजात यात्रा को कहा जाता है और ये हर साल निकलती है।

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रोबिन सिंह चौहान, कम्युनिटी जर्नलिस्ट

चमोली (उत्तराखंड)। जिस तरह सावन की महीने में शिव की कावंड़ यात्रा निकाली जाती है ठीक उसी तरह उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी की यात्रा निकाली जाती है। इस यात्रा लोकजात यात्रा को कहा जाता है और ये हर साल निकलती है।

यह यात्रा सबसे ऊंचे और निर्जन पड़ावों पर करीब 13000 फीट पर स्थित बेदनी बुग्याल पहुंचती है, इस यात्रा में करीब 240 किमी का सफर 20 दिनों में तय किया जाता है। इस यात्रा में 365 गाँव जुड़े होते हैं और बीस दिन की यात्रा में बीस दिन का रात्रि विश्राम होता है। 20 दिवसीय 280 किमी की इस ऐतिहासिक यात्रा को गढ़वाल-कुमाऊं की सांस्कृतिक मिलन का प्रतीक भी माना जाता है।


नंदा सप्तमी के दिन देवी की डोली अंतिम पड़ाव गैरोली पातल से वेदनी बुग्याल में स्थित वैदनी कुंड पहुंचती है। मां नंदा राज राजेश्वरी के साथ ही उनकी छोटी बहन मां नंदा देवी की डोली भी अपने अंतिम पड़ाव रामणी गांव से बालपाटा पहुंचती है। वेदनी और बालपाटा में देव डोलियों ने अग्निकुंड की परिक्रमा करते हैं। बाद में मां नंदा की डोली को नियत स्थान पर रखा जाता है।

मंदिर कमेटी, कुरुड़ के अध्यक्ष मंशाराम बताते हैं, "ये लोकजात की यात्रा है जो हर साल आयोजित की जाती है और 12 साल में राजजात यात्रा होती है। हमारे पूर्वज बताया था कि ये बहुत वर्षों से चला आ रहा है, इसकी शुरुआत यहां के राजा ने की थी। जैसे कि आप देखते हैं कि हमारे यहां बेटियों की विदाई होती है, वैसे ही इस यात्रा में माता अपने ससुराल जाती हैं।"


12 वर्षों में आयोजित होने वाली हिमालयी महाकुंभ के नाम से विश्व प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात में शामिल मुख्य डोली चमोली के घाट विकासखंड स्थित कुरुड़ मंदिर से ही निकलती है और अगस्त महीने में हर साल कुरुड़ गांव से ही नंदा लोकजात आयोजित की जाती है, जिसको स्थानीय लोगो द्वारा छोटी जात यात्रा भी कहा जाता है।

सातवीं शताब्दी में गढ़वाल राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से श्रीनंदा को बाहरवें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की। इस दौरान कुरुड़ मंदिर से लोकजात यात्रा के लिए दो डोलियां निकलती हैं। जिसमें एक डोली की लोकजात वैदनी और दूसरी डोली की लोकजात यात्रा बालपाटा में सम्पन्न होती है। यात्रा में शामिल होने आयी एक श्रद्धालू कहती हैं, "नंदा देवी तो हमारी ईष्ट हैं, देवी कैलास अपने ससुराल जाती हैं, आसमान भी उनके साथ रोता है, तभी तो हम भी औरतें शामिल होती हैं और माता की विदाई में रोती हैं।"

राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदा देवी राजजात वर्ष 1843, 1963, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987 तथा 2000 में आयोजित हो चुकी है। वर्ष 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी। सुतोल के निकट रूपगंगा और नंदाकिनी के संगम पर ही वैदिक पूजा-अर्चना के बाद राजजात की गई।


इस यात्रा में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है, उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।


  

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