देश में हर साल राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने के जश्न में अगर एक नजर हम भारत में लापता लड़कियों पर डालें तो एक रिपोर्ट से हमें पता चलता है कि जन्म से पहले और बाद में 66% लड़कियां यानि एक तिहाई लड़कियां लापत�भारत में हर साल जन्म से पहले और जन्म के बाद चार लाख 60 हजार बच्चियां हो जाती हैं लापता. प्रतीकात्मक फोटो

राष्ट्रीय बालिका दिवस विशेष : भारत में करीब चार लाख 60 हजार बच्चियां हर साल कहाँ हो जाती हैं 'लापता'

देश में हर साल राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने के जश्न में अगर एक नजर हम भारत में लापता लड़कियों पर डालें तो एक रिपोर्ट से हमें पता चलता है कि जन्म से पहले और बाद में 66% लड़कियां यानि एक तिहाई लड़कियां लापता हो जाती हैं।

Neetu Singh

Neetu Singh   23 Jan 2021 5:28 PM GMT

"मेरी माँ की मौत सिर्फ इसलिए हो गयी क्योंकि उनके गर्भ में एक बेटी थी"

ये शब्द उस बेटी के हैं जिसने अपनी माँ को बीस साल पहले खो दिया था, कसूर सिर्फ इतना था कि वो तीन बहनें थीं, उसकी माँ के गर्भ में चौथी संतान भी बेटी थी।

तीस वर्षीय किरन (बदला हुआ नाम) अपनी तीनों बहनों में सबसे बड़ी हैं वो समाज को कोसती हैं, "मेरे जन्म के बाद से ही माँ पर बेटे को जन्म देना का दवाब था। मेरे जन्म के बाद मेरी तीन और बहनों का जन्म हुआ। जब चौथे नंबर की बहन ने जन्म लिया तो माँ पूरी तरह से टूट चुकी थीं क्योंकि उनकी आख़िरी उम्मीद भी टूट चुकी थी। उन्होंने उससे प्यार नहीं था, उसे बहुत दुलार नहीं किया। लापारवाही कहें या बीमारी जन्म के तीन महीने बाद उसकी मौत हो गयी।"

"समाज का बेटे के जन्म को लेकर इतना दवाब और ताने थे जिससे माँ बेटे को जन्म देकर छुटकारा पाना चाहती थी, जब वो पांचवी बार गर्भवती हुई तो उन्होंने लिंग परीक्षण कराया क्योंकि वो नहीं चाहती थी कि जन्म लेने वाली बेटी हो। जांच में पता चला कि बेटी है तो उन्होंने गर्भपात करा दिया। गर्भपात के समय डॉ की लापरवाही से कुछ बारीक हिस्सा माँ के पेट में ही रह गया, जिसकी जानकारी हममे से किसी को नहीं थी, हम तीन बहन बहुत छोटे थे तभी माँ का देहांत हो गया।"

किरन हमारे समाज की पहली बेटी नहीं हैं जिनकी माँ पर समाज का बेटे के जन्म का दवाब हो। ऐसी लाखों महिलाएं हैं जो लड़के और लड़की में होने वाली असामनता की पीड़ा से रोजाना गुजरती हैं।

30 जून 2020 में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) द्वारा जारी 'वैश्विक आबादी की स्थिति 2020' रिपोर्ट के अनुसार साल 2013 से 2017 के बीच दुनिया में 12 लाख लड़कियां जन्म के समय ही लापता हो गईं। भारत में प्रतिवर्ष करीब चार लाख 60 हजार बच्चियां हर साल जन्म के समय ही लापता हो जाती हैं। एक विश्लेषण के अनुसार कुल लापता लड़कियों में से करीब दो तिहाई मामले और जन्म के समय होने वाली मौत के एक तिहाई मामले लैंगिक आधार पर भेदभाव के कारण लिंग निर्धारण से जुड़े हैं। लैंगिक आधार पर भेदभाव की वजह से (जन्म से पूर्व) लिंग चयन के कारण दुनियाभर में हर साल लापता होने वाली अनुमानित 12 लाख से 15 लाख बच्चियों में से 90 से 95 प्रतिशत चीन और भारत की होती हैं।


लैंगिक समानता के लिए काम करने वाली एक प्रतिष्ठित संस्था 'पॉपुलेशन फर्स्ट' की निदेशक डॉ ए.एल. शारदा गाँव कनेक्शन को फोन पर बताती हैं, "देश में लड़कियों की संख्या क्यों घट रही है इसका कोई एक कारण नहीं है। बेटियों को लेकर असुरक्षा तो है ही पर और भी कई तरह के कंसर्न हैं कि वो पराए घर चली जाएगी, एक बेटा तो होना ही चाहिए इस मानसिकता से हम अभी तक उबर नहीं पाए। जनसंख्या का ग्रोथ रेट कम हो रहा है जिसका असर लिंगानुपात पर पड़ रहा है, 2021 में ये आंकड़े और चिंताजनक होंगे। अब परिवार में लोगों को एक ही बच्चा चाहिए वो भी ज्यादातर बेटा चाहते हैं।"

मुम्बई में रहने वाली डॉ ए.एल. शारदा आगे कहती हैं, "आंकड़ों में यह भी देखने को मिला है अगर पहला बच्चा लड़का है तो वहां सेक्स रेसियो डाउन मिलेगा वहीं अगर पहली दो बेटियां हैं तो सेक्स रेसियो थोड़ा ठीक होगा। हम कानून कितने भी बना लेकिन जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तबतक इस समस्या का समाधान नहीं होगा। हमें लिंगानुपात पर लोगों को ज्यादा से ज्यादा जागरुक करने की जरुरत है जिससे लड़कियों की घटती संख्या में सुधार लाया जा सके।"

यूएनएफपीए के आंकड़ों के अनुसार दूसरे जन्म के समय अगर पहला बच्चा एक लड़की है तो लड़कियों की संख्या एक हजार पर 860 होगी वहीं अगर तीसरे जन्म के समय पहली दो लड़कियाँ हैं तो एक हजार पर लड़कियों की संख्या 708 होगी। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार (0-06 वर्ष) के बीच जन्म से पहले और बाद में लापता हुई लड़कियों की संख्या राज्यवार कुछ इस तरह से है।

राज्यवार आंकड़े देखें :

जन्म से पहले और बाद में 66% लड़कियाँ लापता हुई हैं. फोटो क्रेडिट : साभार यूएनएफपीए

यूएनएफपीए (UNFPA) की सितंबर 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार जन्म से पहले और बाद में 66% लड़कियां यानि एक तिहाई लड़कियां लापता हो जाती हैं। लिंग चयन और कम प्रजनन क्षमता वाले राज्यों में पंजाब, महाराष्ट्र और हरियाणा हैं जहाँ 86% से अधिक लड़कियाँ लापता हैं। एमपी, यूपी, बिहार और उड़ीसा में ऐसा देखा गया कि जन्म के बाद यहाँ भेदभाव बढ़ जाता है जिस वजह से यहाँ लड़कियों के गायब होने की संख्या जन्म के बाद दूसरे राज्यों से काफी ज्यादा है।

भारत की साल 2018 की जनसंख्या पंजीकरण सांख्यिकी रिपोर्ट के अनुसार साल 2016-18 के बीच देश का लिंगानुपात 1000 लड़कों पर 899 लड़कियों का रहा है। चौंकाने वाली बात यह है कि भारत के नौ राज्य हरियाणा, उत्तराखंड, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और बिहार में लिंगानुपात का यह आंकड़ा 900 से कम रहा है। हालांकि इसके बाद सरकार ने जागरुकता अभियान चलाए हैं।

हरियाणा के जींद जिले के बीबीपुर गाँव के पूर्व सरपंच सुनील जागलान गाँव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "बीते कुछ सालों में आंकड़ों में ऐसा दिखाया गया है कि हरियाणा में लड़कियों की संख्या बेहतर हुई है, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ आंकड़ों में फेरबदल किया गया है। जमीनी स्तर पर इतना आसान नहीं है कि लोगों की मानसिकता में तीन चार साल में इतना परिवर्तन आ जाए।"

सुनील जागलान अपनी पंचायत में अपनी बेटी के जन्म 24 जनवरी 2012 से बेटी बचाओ बेटी पढाओ अभियान चला रहे हैं। लिंगानुपात को लेकर कई तरह का काम कर रहे हैं, पंचायत में निरंतर बैठक के साथ इन्होंने 100 गांवों में लाडो पुस्तकालय खोले हैं।

सुनील कहते हैं, "कई तरह के काम करने के बाद अपने आसपास आठ सालों में 25-30 प्रतिशत ही बदलाव देखने को मिला है इसलिए ये आंकड़े मैं नहीं मान सकता। इतना जरुर बदला है प्रधानमन्त्री, मुख्यमंत्री समेत कई नेता हरियाणा में अगर कोई बेटी अच्छा करती है तो सोशल मीडिया पर उसे प्रमुखता से शेयर किया जाता है जिससे लोगों में एक छवि बन गयी है कि हरियाणा की स्थिति पहले से ठीक हो गयी है जबकि हकीकत इससे कोसो दूर हैं।"

फोटो क्रेडिट : साभार यूएनएफपीए

देश में चल रही बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत प्रधानमन्त्री ने हरियाणा के पानीपत जिले में जनवरी 2015 में की थी। देश में केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से बेटियों और महिलाओं की शिक्षा, सुरक्षा को लेकर तमाम योजनाएं चल रही हैं लेकिन बेटियों की लापता होती संख्या अपनेआप में कई सवाल खड़े करती है।

'वैश्विक आबादी की स्थिति 2020' रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले 50 वर्षों में दुनिया भर में लापता हुई महिलाओं की संख्या दोगुनी हो गयी है। वर्ष 1970 में छह करोड़ 10 लाख थी जो 2020 में बढ़कर 14 करोड़ 26 लाख हो गयी है। लापता महिलाओं में चार करोड़ 58 लाख महिलाएं भारत की हैं जिसमें चीन में सात करोड़ 23 लाख महिलाएं लापता हुई हैं। रिपोर्ट में प्रसव के पूर्व या प्रसव के बाद लिंग निर्धारण के प्रभाव के कारण लापता लड़कियों को भी इसमें शामिल किया गया है।

महिला बाल विकास कल्याण विभाग उत्तर प्रदेश के डिप्टी डायरेक्टर आशुतोष कुमार सिंह कहते हैं, "बेटियों और महिलाओं के लिए राज्य सरकार कई तरह की योजनाएं चला रही है। बीते चार महीने में मिशन शक्ति अभियान के तहत हम छह करोड़ लोगों तक पहुंचे हैं। कई जिलों में घर के बाहर बेटियों की नेम प्लेट लगाई गयी है जिससे लोग लड़कियों के जन्म को लेकर प्रोत्साहित हों। लोगों की मानसिकता में बदलने में काफी समय लगेगा, अभी काफी सुधार हुआ है। पीसीपीएनडीटी (लिंग परीक्षण) एक्ट को लेकर भी हम लोग काफी काम कर रहे हैं। जो इस काम में संलिप्त पाया गया उसके साथ कठोर से कठोर कार्रवाई करेंगे।"

यूएनएफपीए की रिपोर्ट में बताया है कि यदि भारत में स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो 2055 में दुल्हों के लिए दुल्हनों का अंतर बहुत अधिक हो जाएगा। वर्तमान में 50 साल तक अकेले रहने वाले पुरुषों की संख्या में 2055 में 10% का इजाफा हो जाएगा।

फोटो क्रेडिट : साभार यूएनएफपीए.

कन्या भ्रूण हत्या पर लंबे समय से काम कर रहीं स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ नीलम सिंह कहती हैं, "सरकार बेटियों को बचाने के कानून कितने भी बना लें पर जबतक उसका क्रियान्वयन नहीं होगा तबतक इन आंकड़ों में सुधार होना संभव नहीं है। लिंग जांच के प्रदेश में काफी सारे केंद्र चल रहे हैं पर उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। जो पीसीपीएनडीटी एक्ट की कमेटी बनी है उसकी सालों बैठक नहीं होती। सरकार के पास ऐसे कितने आंकड़े हैं जिसमें उन्होंने लिंग जांच में संलिप्त लोगों के खिलाफ कार्रवाई की हो।"

डॉ नीलम आगे कहती हैं, "सरकार जागरुकता के लिए जो तमाम योजनाएं चला रही है अगर सरकार केवल उन्हीं पर कार्रवाई कर दे जो लिंग परीक्षण कर रहे हैं तो मुझे लगता है स्थति बेहतर हो सकती है।"

लड़कियों के जन्म की बात हो या फिर शिक्षा की भेदभाव हर जगह देखने को मिलता है। वर्ष 2019 में आई एक गैर सरकारी संगठन क्राई यानि 'चाइल्ड राइट्स ऐंड यू' की रिपोर्ट 'ऐजुकेटिंग द गर्ल चाइल्ड' के मुताबिक देशभर में स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में से 25.2 फीसदी लड़कियां स्कूल दूर होने की वजह से स्कूल छोड़ देती हैं। किसी अनहोनी होने का भय लड़कियों के स्कूल तक पहुंचने की हिम्मत और जरूरत पर भारी पड़ता है।

मध्यप्रदेश में जेंडर समानता के मुद्दों पर 20 वर्षों से ज्यादा काम कर रहीं भोपाल में रहने वाली कुमुद सिंह कहती हैं, "पितृसत्तात्मक सोच को बदलना इतना आसान नहीं है। सरकार विवाह में अनुदान देती है अगर उससे ज्यादा बेटियों की शिक्षा पर अनुदान दे उनकी सुरक्षा को लेकर ईमानदार रहें तो हो सकता है स्थिति में बदलाव देखने को मिलें।"


एक्शन एड में बाल-विवाह निषेध कार्यक्रम के नेशनल मैनेजर घासीराम पांडा कहते हैं, "लोगों के दिमाग में अभी लड़कियों को लेकर भय पैदा हो गया है। हम लोग इस दिशा में 25 साल से ज्यादा काम कर रहे हैं कि कैसे जेंडर को लेकर सिस्टम को सम्वेदनशील किया जाए। कहने को महिलाएं आधी आबादी तो हैं लेकिन उन्हें कितने जिम्मेदार पदों पर कितनी संख्या में जगह मिली है।"

समाज में जहाँ एक तरफ लड़के-लड़कियों को लेकर इतना भेदभाव है वहीं दूसरी तरफ आदिवासी समुदाय में ये भेदभाव देखने को नहीं मिलता जो अपने आप में एक सुखद तस्वीर है। झारखंड में लंबे समय से आदिवासियों को लेकर काम कर रहीं वन्दना टेटे कहती हैं, "आदिवासी बाहुल्य समाज में लड़कियों की संख्या बाकी की जगह अभी भी काफी ठीक है। ये प्रकृति के हमेशा करीब रहते हैं इनमें लिंग भेदभाव कभी नहीं देखने को मिला। आदिवासियों में लड़के-लड़कियों को लेकर कभी भी गैर-बराबरी नहीं होती, यहाँ महिला पुरुष मिलकर काम करते हैं। यही बड़ा कारण है कि लड़कियों की संख्या यहाँ अभी काफी ठीक है।"

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