लॉकडाउन में 5% लोगों को ही बैंकों से मिला कर्ज, 57% लोगों के लिए दोस्त और पड़ोसी बने मददगार- गांव कनेक्शन सर्वे

लॉकडाउन में धंधा-व्यवसाय ठप होने के कारण लोगों को आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। ऐसे मुश्किल हालात में लोगों को कई कामों के लिए कर्ज लेने पड़े। इस मुश्किल घड़ी में दोस्त और पड़ोसियों ने एक दूसरे की सबसे ज्यादा मदद की।

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gaon connection survey, rural india survey 2020, lockdownउम्मीद की अपेक्षा लोगों को बैंकों से नहीं मिला कर्ज।

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए देशभर में लगे राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन ने ग्रामीण भारत की अर्थव्यस्था पर गहरी चोट पहुंचाई है। हालात ऐसे हो गये कि अपना खर्च चलाने के लिए लोगों को कर्ज लेने पड़े, जमीन गिरवी रखने पड़े, लेकिन इस मुश्किल घड़ी में एक बार फिर दोस्त और पड़ोसी ही एक दूसरे के मददगार साबित हुए।

कोविड-19 लॉकडाउन का दौरान ग्रामीण इलाकों में जनजीवन और कारोबार पर कैसा प्रभाव पड़ा और कैसे लोगों इस मुश्किल वक्त में अपनी आजीविका चलाते रहे, इसे समझने के लिए गांव कनेक्शन ने देशव्यापी सर्वे कराया। सर्वे में शामिल 23 फीसदी लोगों ने लॉकडाउन के दौरान उधार या कर्ज लेने की बात कही। 5 फीसदी लोगों ने जमीन बेची या गिरवी रखा। 7 फीसदी ने गहने या तो बेचे या गिरवी रखे। वहीं 8 फीसदी लोगों ने महंगे सामान या तो बेचे या गिरवी रख दिये।

गांव कनेक्शन के इस सर्वे में हर चौथे व्यक्ति ने यह स्वीकारा कि उन्हें घर चलाने के लिए लॉकडाउन में या तो किसी से कर्ज या उधार लेना पड़ा।

अगर राज्यों के अनुसार सर्वे पर नजर डालें तो सबसे ज्यादा हरियाणा, पंजाब, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश में लोगों को दूसरे राज्यों की तुलना में ज्यादा कर्ज और उधार लिया है। त्रिपुरा में 13 फीसदी लोगों ने जमीन तो 20 फीसदी लोगों ने किमती सामान बेचा या गिरवी रखा। पश्चिम बंगाल में 22 फीसदी लोगों ने गहने और 17 फीसदी लोगों ने कीमती सामान बेचा या गिरवी रखा।


लॉकडाउन में कर्ज लेने की वजहें भले ही अलग-अलग हों लेकिन किसी न किसी मद में लोगों ने कर्ज जरूर लिया है। जिन 23 फीसदी लोगों ने बताया उन्हें कर्ज़ या उधार लेना पड़ा उनमें से जिसमें 71 फीसदी लोगों के मुताबिक उन्होंने ये पैसा घरेलू खर्च के लिए लिया, जबकि 10 फीसदी ने दवा, अस्पताल खर्च और 8 फीसदी कृषि कार्य जबकि 11 फीसदी लोगों ने कर्ज़-उधारी की दूसरी वजहें बताईं। वहीं 4 फीसदी लोगों का कोई जवाब नहीं आया।

इस मुश्किल दौर में लोगों की मदद किन लोगों ने की? गांव के कनेक्शन के सर्वे में शामिल लोगों अनुसार 57 फीसदी मददगार दोस्त और पड़ोसी थे। साहूकारों से 21 फीसदी लोगों ने कर्ज लिया जबकि सिर्फ 5 फीसदी को बैंक से लोन मिला, वहीं 7 फीसदी को रिश्तेदार और 8 फीसदी अन्य में थे जबकि तीन फीसदी ने कोई जवाब नहीं दिया।

यूपी में 29 फीसदी लोगों को पैसे उधार या कर्ज़ लिए। 7 फीसदी ने जमीन गिरवी रखी या बेची, 8 फीसदी को अपनी कोई कीमती चीजें बेचनी पड़ी तो वहीं 8 फीसदी को ज्वैलरी बेचनी या गिरवी रखनी पड़ी।

लॉकडाउन में सरकार ने अलग-अलग मदों में जैसे जनधन, उज्जवला, वृद्धावस्था पेंशन, पीएम किसान निधि में सीधे गरीबों के खातों में पैसे भेजे पर सर्वे के आंकड़ों के अनुसार 69 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें तंगी हुई। सर्वे में इन्हीं लोगों ने कहा कि सरकार ने जो मदद भेजी थी वो उनके लिए पर्याप्त नहीं थी।


सर्वे में दो तिहाई परिवारों ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन में खाद्य सामग्री को लेकर दिक्कत हुई। आंकड़ों की बात करें तो 32 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन में फूड एक्सेस के लिए हद से ज्यादा दिक्कत हुई। जबकि 36 फीसदी ने कहा कि उन्हें काफी दिक्कतें हुई। 22 फीसदी के मुताबिक कई बार या कुछ-कुछ दिक्कतें हुई।

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जिन राज्यों में खाने की समस्या हुई उनमें सबसे ऊपर जम्मू कश्मीर और लद्धाख है। यहां 56 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें बहुत ज्यादा दिक्कत हुई जबकि उत्तराखंड में 47 फीसदी, बिहार में 43, पश्चिम बंगाल में 41, हरियाणा में 40 और झारखंड में 39 फीसदी रहा। केरल में सिर्फ 9 फीसदी लोगों को खाने की दिक्कत हुई। सर्वे में साफ नजर आया कि जिन लोगों को किसी तरह की भी दिक्कतें हुई उनमें गरीब सबसे ज्यादा थे।


इस सर्वे में 79.1 फीसदी पुरुष और 20.1 फीसदी महिलाएं शामिल थीं। सर्वे में शामिल 53.7 फीसदी लोग 26 से 45 साल के बीच के थे। इनमें से 33.1 फीसदी लोग या तो निरक्षर थे या फिर प्राइमरी से नीचे पढ़े हुए थे सिर्फ 15 फीसदी लोग स्नातक थे। सर्वे में शामिल 43.00 लोग गरीब, 24.9 फीसदी लोवर क्लास और 25. फीसदी लोग मध्यम आय वर्ग के थे।

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया।

देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शाषित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया। जिन राज्यों में सर्वे किया गया उनमें राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, असम, अरुणांचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा, ओडिशा, केरला, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और चंडीगढ़ शामिल थे, इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, लद्धाख, अंडमान एडं निकोबार द्पी समूह में भी सर्वे किया गया।

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इन सभी राज्यों में घर के मुख्य कमाने वाले का इंटरव्यू किया गया साथ उन लोगों का अलग से सर्वे किया गया जो लॉकाडउन के बाद शहरों से अपने गांवों को लौटे थे। जिनकी संख्या 963 थी। सर्वे का अनुमान 25000 था, जिसमें राज्यों के अनुपात में वहां इंटरव्यू निर्धारित किए गए थे। इसमें से 79.1 फीसदी पुरुष थे और और 20.1 फीसदी महिलाएं। सर्वे में शामिल 53.7 फीसदी लोग 26 से 45 साल के बीच के थे। इनमें से 33.1 फीसदी लोग या तो निरक्षर थे या फिर प्राइमरी से नीचे पढ़े हुए सिर्फ 15 फीसदी लोग स्नातक थे।

सर्वे में शामिल 43.00 लोग गरीब, 24.9 फीसदी लोवर क्लास और 25 फीसदी लोग मध्यम आय वर्ग के थे। ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा गया।

सीएसडीएस, नई दिल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, "सर्वे की विविधता, व्यापकता और इसके सैंपल साइज के आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वे है, जो ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव पर फोकस करता है। लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और अन्य सरकारी नियमों का पालन करते हुए यह सर्वे गांव कनेक्शन के द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें उत्तरदाताओं का फेस टू फेस इंटरव्यू करते हुए डाटा इकट्ठा किए गए।"

"पूरे सर्वे में जहां, उत्तरदाता शत प्रतिशत यानी की 25,000 है, वहां प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और 95 प्रतिशत जगहों पर संभावित त्रुटि की संभावना सिर्फ +/- 1 प्रतिशत है। हालांकि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से उनके जनसंख्या के अनुसार एक निश्चित और समान आनुपातिक मात्रा में सैंपल नहीं लिए गए हैं, इसलिए कई लॉजिस्टिक और कोविड संबंधी कुछ मुद्दों में गैर प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और वहां पर हम संभावित त्रुटि की गणना करने की स्थिति में नहीं हैं," संजय कुमार आगे कहते हैं।

इस सर्वे के कुछ मुख्य निष्कर्ष नीचे दिए गए हैं

  • लॉकडाउन के दौरान लगभग 23 फीसदी ग्रामीणों को उधार लेना पड़ा, जबकि 8 फीसदी लोगों को अपने कीमती सामान जैसे- घड़ी, मोबाइल आदि बेचने पड़े, जबकि 7 फीसदी लोगों को अपने गहने गिरवीं रखने पड़े। 5 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्हें लॉकडाउन की दिक्कतों के कारण अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी या उसे बेचना पड़ा।
  • गांव कनेक्शन के सर्वे में शामिल लोगों में सबसे ज्यादा संख्या किसानों की थी, सर्वे में शामिल आधे से अधिक किसान लॉकडाउन के दौरान अपने फसल को सही समय पर काटने में सफल तो हुए लेकिन सिर्फ एक चौथाई किसानों को ही अपनी फसल का सही दाम मिल पाया।
  • वो लोग जिनके पास राशन कार्ड था, उनमे से 71 फीसदी लोगों को लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा निर्धारित राशन (गेंहू या चावल) मिला। सर्वे के दौरान 17 फीसदी लोग ऐसे मिले जिनके पास राशन कार्ड नहीं था और ऐसे राशन कार्ड विहीन लोगों में से सिर्फ 27 फीसदी लोगों को ही राशन मिल सका। जबकि सरकार ने सभी के लिए निःशुल्क राशन की घोषणा की थी।
  • लॉकडाउन से सबसे अधिक प्रभावित कुशल कामगार और अकुशल मजदूर रहें। 60 फीसदी कुशल कारीगरों का काम पूरी तरह ठप रहा, जबकि 64 फीसदी अकुशल मजदूर भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए और उनका काम पूरी तरह से ठप हो गया।
  • सर्वे के दौरान हर आठ में से एक ग्रामीण परिवार ने कहा कि लॉकडाउन में आर्थिक तंगी के कारण उन्हें कई बार पूरे दिन भूखा रहना पड़ा।
  • सिर्फ 20 प्रतिशत ग्रामीणों ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान मनरेगा के तहत काम मिला। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 70 फीसदी लोगों को मनरेगा के तहत काम मिला, जबकि 65% और 59% के साथ उत्तराखंड और राजस्थान तीसरे स्थान पर रहें। वहीं गुजरात और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर-लद्दाख का प्रदर्शन इस मामले में सबसे खराब रहा और वहां क्रमशः सिर्फ 2% और 4% मजदूरों को ही मनरेगा के तहत काम मिल सका।
  • 68 फीसदी से अधिक ग्रामीणों ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान आर्थिक दिक्कतों का गंभीर सामना करना पड़ा।
  • लॉकडाउन के दौरान 23 फीसदी मजदूर ऐसे रहें, जिन्होंने पैदल ही शहर से अपने घर-गांव की यात्रा की। वहीं 33 फीसदी प्रवासी मजदूरों ने कहा कि वे रोजगार के लिए फिर से शहरों की तरफ वापस जाना चाहते हैं।
  • ऐसे घर जिनमें गर्भवती महिलाएं थी, उनमें से 42 फीसदी लोगों ने कहा कि लॉकडाउन के कारण वे गर्भावस्था के दौरान होने वाली नियमित जांचों (चेकअप) को नहीं करा सकीं। पश्चिम बंगाल (29%) और ओडिशा (35%) इस सूची में सबसे निचले पायदान वाले राज्यों में रहे।
  • डेयरी और पोल्ट्री उद्योग से जुड़े 56 फीसदी लोगों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें अपने उत्पाद बेचने में बहुत कठिनाई हुई जबकि 35 फीसदी ने कहा कि उन्हें अपने उत्पाद का सही कीमत नहीं मिला।
  • 78 प्रतिशत लोगों ने कहा कि लॉकडाउन के कारण उनका काम (रोजगार) पूरी तरह से रुक गया या काफी हद तक प्रभावित हुआ। 44 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उनका काम लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह ठप हो गया।
  • 71 फीसदी ग्रामीण परिवारों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उनके परिवार की मासिक आय में गिरावट आई।
  • सबसे अधिक गरीब प्रभावित हुए। 75 फीसदी गरीब परिवारों और 74 फीसदी निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के मासिक आय में गिरावट दर्ज हुई।
  • 38 फीसदी ग्रामीण परिवारों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें जरूरी दवा या चिकित्सा मिलने में परेशानी हुई। पूर्वोत्तर राज्य इससे सबसे अधिक प्रभावित रहें। असम में 87% और अरुणाचल प्रदेश में 66% परिवारों ने कहा कि उन्हें जरूरी दवा या चिकित्सा उपलब्ध नहीं हुई।
  • आंगनबाड़ी और सरकारी स्कूलों में पंजीकृत बच्चों वाले आधे से अधिक परिवारों (54%) को लॉकडाउन के दौरान सूखा राशन/भोजन प्राप्त हुआ। उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर-लद्दाख और छत्तीसगढ़ में यह प्रतिशत क्रमशः 90%, 89% और 86% रहा, जो कि अधिकतम है। जबकि बिहार और गुजरात में क्रमश: 32% और 25% के साथ सबसे नीचे के राज्य रहें।
  • 64 फीसदी लोगों ने कहा उन्हें या उनके घर में किसी शख्स को लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा भेजी गई आर्थिक सहायता (जनधन 500 रुपए महीना, 2000 रुपए पीएम किसान योजना, 1000 रुपए श्रम कल्याण योजना या उज्ज्वला योजना के तहत एलपीजी गैस की सब्सिडी) बैंक खाते में सीधी पहुंची, हालांकि सबसे गरीब परिवारों को इन डीबीटी योजनाओं का उतना लाभ नहीं मिल पाया।
  • 40% लोगों ने कहा कि लॉकडाउन 'बहुत कठोर' था, जबकि 38% ने कहा कि यह 'पर्याप्त कठोर' था। वहीं 11% ने कहा कि लॉकडाउन को और कठोर होना चाहिए था। जबकि 4% लोग ऐसे भी थे जिन्होंने कहा कि लॉकडाउन बिल्कुल नहीं होना चाहिए था।



  

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