क्रीमों से गोरापन असंभव, इस तरह बदल रहा है बाज़ार

Anusha MishraAnusha Mishra   7 Jan 2019 5:49 AM GMT

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क्रीमों से गोरापन असंभव, इस तरह बदल रहा है बाज़ारबदल रहा है गोरेपन का बाज़ार

यूपी के शाहजहांपुर ज़िले की रहने वाली प्रीति सक्सेना (बदला हुआ नाम) का रंग सांवला है। उनके मम्मी - पापा उनके लिए रिश्ता देख रहे थे लेकिन दो बार उनका रिश्ता सिर्फ इस बात पर टूट गया क्योंकि लड़के को गोरी लड़की चाहिए थी। हमारे समाज में गोरेपन को सुंदरता का पैमाना माना जाता है। हैरानी की बात है कि जिस देश की आधे से ज़्यादा आबादी का रंग गहरा है, उस देश में गोरेपन को पाने के लिए लड़कियां न जाने कितने जतन करती हैं। यहां शादी करने के लिए जितना ज़रूरी लड़की का पढ़ा लिखा होना होता है, कई बार उससे ज़्यादा ज़रूरी उसका गोरा होना हो जाता है। आपने भी किसी न किसी को कहते सुना होगा - लड़की गोरी है, इसे तो अच्छा लड़का मिल जाएगा। लोगों की इसी नब्ज़ को पकड़कर गोरा बनाने वाले उत्पादों का बाज़ा पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़ा है।

फेयरनेस क्रीम, पाउडर, फेस पैक, फाउंडेशन जैसे न जाने कितने उत्पाद बाज़ार में अपनी पैठ जमाए हैं लेकिन पिछले कुछ समय में इस बाज़ार का हाल कई लोगों ने समझने की कोशिश की है। इसे स्त्रीवाद के बढ़ते कदम कहिए, खुद से प्यार करने की कोशिश या जागरूकता का बढ़ना, कई लड़कियां इस बात को मानने लगी हैं कि उनकी असली रंगत में ही उनकी ख़ूबसूरती है और इसे कोई भी क्रीम बदल नहीं सकती। इस सबके बीच हाल ही में आया एक विज्ञापन लोगों में चर्चा का विषय बना हुआ है।

ये विज्ञापन प्रिटी 24 नाम की क्रीम का है। कहने को तो ये भी एक क्रीम का विज्ञापन ही है ये लेकिन इसमें कहीं भी गोरा बनाने का वादा या दावा नहीं किया गया है। विज्ञापन में लड़कियां कहती हैं - "पहले सिखाया गोरापन ही सुंदरता है, फिर उम्मीद जगाई फेयरनेस पॉसिबल है, पल - पल महसूस करवाया फेयर चेहरा ही सक्सेस है लेकिन एक सच कभी नहीं बताया कि चेहरे का रंग कभी नहीं बदल सकता, बहुत हुआ फेयरनेस - फेयरनेस।" ऐसे समय में जब गोरेपन को ही लड़कियों की सफलता की चाबी माना जाता हो और इसके बाज़ार का कारोबार अरबों रुपयों का हो इस तरह के विज्ञापन एक नई उम्मीद जगाते हैं।

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कुछ साल पहले सोशल मीडिया पर एक कैंपेन चली थी, 'डार्क इज़ ब्यूटीफुल'। इस कैंपेन को 'वुमेन ऑफ वर्थ' नाम के ऑर्गेनाइजेशन ने शुरू किया था। इसके विज्ञापन में अभिनेत्री नंदिता दास को लिया गया था जो महिलाओं से ये अपील कर रही थीं कि अपनी फेयरनेस क्रीम के साथ इस ख्याल को भी दिमाग से निकालकर फेंक दो कि सांवला रंग बुरा होता है।

भारत में अपनी रंगत को गोरा करना हमेशा से ही चलन में रहा है लेकिन जैसे - जैसे समाज पर बाज़ारवाद हावी होता गया गोरा बनाने की क्रीम ने भी यहां अपना बर्चस्व बना लिया। पुराने ज़माने में लोग हल्दी, नींबू, चंदन जैसी चीज़ों का इस्तेमाल गोरा होने के लिए करते थे, बाद में इनकी जगह क्रीम ने ले ली। 1975 में हिंदुस्तान यूनीलिवर ने 'फेयर एंड लवली' नाम से एक क्रीम निकाली जो त्वचा की रंगत को हल्का करने का दावा कर रही थी। इसके बाद कई और कंपनियां भी इसी ढर्रे पर चल पड़ीं।

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शुरुआत में तो ये सिर्फ लड़कियों के लिए ही था लेकिन 2005 में जब इमामी ने 'फेयर एंड हैंडसम' क्रीम लॉन्च की तो गोरे होने के लिए पुरुषों की बेताबी भी बढ़ने लगी। ड्रमडॉटकॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ फेयर एंड लवली का भारतीय बाज़ार सालाना 2000 करोड़ रुपये से ज़्यादा का हो गया है।

फ्यूचर मार्केट इनसाइट की रिसर्च के मुताबिक, त्वचा के रंग को हल्का बनाने वाले उत्पादों का वैश्विक बाज़ार 2027 तक 890 करोड़ डॉलर का हो जाएगा। 2017 में ये बाज़ार 480 करोड़ डॉलर का था।

जहां गोरा बनाने का दावा करने वाले उत्पादों का बाज़ार तेज़ी से बढ़ रहा है वहीं ये भी सच है कि ये उत्पाद त्वचा के लिए बेहद ख़तरनाक होते हैं। सीएसई की एक रिपोर्ट के अनुसार बहुत सारी बड़ी कंपनियों के कॉस्मेटिक प्रोडक्ट्स में हैवी मेटल जैसे अर्सेनिक, कैडमियम, लेड, मरकरी, निकेल आदि पाए गए हैं। ये वो मेटल हैं, जो शरीर से लंबे समय तक टच में रहें, तो कैंसर और त्वचा संबंधी अन्य समस्याओं को बढ़ा सकते हैं।

लखनऊ के त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. अबीर सारस्वत बताते हैं, ''ऐसी कोई क्रीम नहीं है जो किसी को गोरा बना दे। फेयरनेस क्रीम के कई नुकसान भी होते हैं।'' वह बताते हैं कि अलग अलग क्रीमों का त्वचा पर अलग - अलग प्रभाव होता है। कई बड़े ब्रांड जो क्रीम बनाते हैं उनमें हानिकारक तत्व इतने ज़्यादा नहीं होते लेकिन ये भी सच है कि ये कोई भी प्रोडक्ट रंग गोरा नहीं कर सकते, चाहे इनकी कीमत कितनी भी ज़्यादा हो।

डॉ. सारस्वत कहते हैं कि गोरेपन का दावा करने वाले ज़्यादातर भ्रामक प्रचार ही करते हैं ऐसे में अगर केाई कंपनी अपने विज्ञापन में नए तरीके का प्रयोग करती है और इस तरह की सामाजिक बुराई को दूर करने की पहल करती है तो ये वाकई तारीफ की बात है लेकिन ये बात भी सच है कि हर कॉस्मेटिक क्रीम का कहीं न कहीं कुछ नुकसान तो त्वचा पर होता है इसलिए इनका इस्तेमाल करते समय विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है।

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इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए 25 जुलाई 2016 को कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विप्लव ठाकुर ने संसद में आवाज़ उठाई थी कि सौंदर्य प्रसाधनों का प्रचार करने वाली कुछ विज्ञापन कंपनियां दावा करती हैं कि इन क्रीमों के इस्तेमाल से रंग गोरा हो जाएगा। यह दावा वास्तव में न केवल रंगभेद को बढ़ावा देता है बल्कि इससे औरतों में हीन भावना भी पैदा होती है। उन्होंने ये भी कहा कि क्या गोरेपन का दावा करने वाली एजेंसियां या इनमें काम करने वाले मॉडल इन क्रीमों का प्रयोग करती हैं। फिर ये एजेंसियां किस आधार पर यह दावा करती हैं कि क्रीम से रंग गोरा हो जाएगा? इसके बाद इस बात की चर्चा हुई थी कि शायद अब गोरापन बढ़ाने का दावा करने वाली क्रीमों पर कुछ हद तक लगाम लगेगी। इसके बाद अगस्त में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड‍्डा ने भी स्टेरॉयड-लेस फेयरनेस क्रीम की अनियमित बिक्री को रोकने संबंधी नियम बनाने के लिए कहा था।

उन्होंने कहा था कि केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) एक प्रस्ताव पर विचार कर रहा है जिसमें कुछ त्वचा रोग विशेषज्ञ फेयरनेस क्रीम की काउंटर द सेल जांच करेंगे कि कहीं उसमें स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले स्टेरॉइड हॉर्मोन कॉर्टिकोस्टेरॉइड का इस्तेमाल तो नहीं किया गया है। हालांकि इस बात का अभी तक कोई परिणाम समाने नहीं आया है। हालांकि अगर आने वाले समय में ये बातें लागू हो जाती हैं तो गोरेपन का दावा करने वाले उत्पादों पर नकारात्मक असर ज़रूर पड़ेगा।

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