दिल्ली: पलायन न करने वाले मजदूर परिवार गेहूं की बालियां बीनकर जिंदा हैं

वो तस्वीरें सब ने देखीं थी, जब लाखों दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चलाने वाले, घर बनाने वाले, ठेला लगाने वालों ने दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों से पलायन किया। कहा गया कि अच्छा होता ये मजदूर जहां थे वहीं रुकते, वर्ना गांवों में संक्रमण की वजह बन सकते हैं। लाखों मजदूर शहरों में रुक भी गए लेकिन जो रुके उनकी हालत अब बदतर है, उनमें से हजारों के सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है।

Arvind ShuklaArvind Shukla   28 April 2020 11:45 AM GMT

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दिल्ली में हरियाणा बॉर्डर के पास रहने वाले निर्माण मजदूरों का एक परिवार भुखमरी की कगार पर पहुंच गया है। ये लोग दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मजदूर के इस परिवार के 10 सदस्य किसानों के खेतों में फसल कटाई के बाद बालियां बीन कर खाने का इंतजाम कर रहे हैं। इन लोगों के पास पैसे काफी पहले ही खत्म हो गए थे। लॉकडाउन शुरु होने के 4-5 दिन तक कुछ लोग खाना (चावल और दाल) देने आए लेकिन उसके बाद वो भी नहीं आए। पिछले करीब 20 दिनों से ये मजदूर परिवार दिनभर बालियां बीन कर अपना गुजरा कर रहा है।

इन मजदूरों की हालत देखकर झुलझुली गांव में रहने वाले एक युवक राहुल यादव ने अपने ट्वीटर पर इस परिवार के बाली बीनने का वीडियो पोस्ट किया। जिसमें उन्होंने बताया कि लॉकडाउन में फंसे चिनाई मजदूर, मजदूर, बेलदार, पल्लेदार जैसा काम करने वाले लोगों तक सरकारी सुविधाएं न पहुंच पाने से उनके सामने भुखमरी की नौबत आ गई है।

अपने वीडियो में राहुल ने इन लोगों से पूछा कि उन्हें दिल्ली में केजरीवाल सरकार द्वारा दिए जाने वाले 5000 रुपए मिले क्या तो उनका जवाब था न, ये परिवार उत्तर प्रदेश में महोबा जिले के चरखारी तहसील का रहने वाला है। मुश्किल में फंसे मजदूरों के मुताबिक उन्हें यूपी सरकार से भी कोई मदद नहीं मिल पाई है।

इस परिवार के सदस्य राजेंद्र कुमार फोन पर बताते हैं, "हमारा पूरा परिवार घर बनाने का काम करता है। लेकिन 21 मार्च से काम बंद हैं। इसके बाद आज तक (27 मार्च) तक सिर्फ दो दिन काम मिला है। जो पैसे थे खत्म हो गए। 4-5 दिन लोग दाल चावल खिलाने आए थे, उसके बाद कोई नहीं आया। अब हम लोग लोगों के खेतों में बालियां बीनते हैं, दिन भर में 10 किलो तक गेहूं का इंतजाम हो जाता है।"


राजेंद्र, दिल्ली से करीब 700 किलोमीटर दूर महोबा जिले के चरखारी तहसील में अमरगुढ़ा गांव के रहने वाले हैं। ये इलाके सूखे के लिए कुख्यात बुंदेलखंड में पड़ता है जो यूपी के हिस्से में आता है। करीब 10 साल पहले राजेंद्र के पिता दयाशंकर सूखे से जूझते अपने गांव को छोड़कर दिल्ली आए थे। फिर धीरे-धीरे उनका परिवार और रिश्तेदार यहां आए गए। लॉकडाउन में उनके इलाके भी बहुत सारे लोग दिल्ली छोड़ गए लेकिन राजेंद्र का परिवार नहीं गया। लेकिन अब उन्हें कई बार लगता है उन्होंने यहां रुककर गलती की है।

"मैं हूं मेरे माता-पिता है। दो बड़े भाई उनकी पत्नियां, दीदी और जीजा को मिलाकर 12 लोग हैं। बड़े भाई अपने परिवार के साथ अलग रहते हैं। हम लोगों ने 1000-1000 रुपए पर कमरे लिए हैं। मकान मालिक ने मकान का किराया नहीं लिया है लेकिन खाना और दूसरे खर्चे तो रोज होते ही हैं। देखो कैसे गुजारा होता है?" राजेंद्र बताते हैं।

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राजेंद्र का परिवार जिस झुलझुली गांव में रुका है वो दक्षिणी पश्चिमी दिल्ली जिले में आता है। जहां से करीब 2-3 दूरी पर हरियाणा का गुरुग्राम जिला है। झुलझुली गांव में रहने वाले राहुल यादव बताते हैं, "हमारे गांव में बहुत सारे मजदूर रहते हैं, ज्यादातर तो चले गए। जो बचे हैं उनकी हालत अच्छी नहीं है। गांव के लोग अपने स्तर पर मदद कर रहे हैं। पहले क्या होता था हमारे यहां ज्यादातर काम मजदूरों से होता था लेकिन इस बार गेहूं की कटाई काम पूरी तरह मशीनों से हुआ है तो मजदूरों के लिए काम नहीं बचा। जिन्हें तूड़ी (भूसा) चाहिए था बस उन्होंने ही मजदूर लगाए। सरकार को इन मजदूरों की मदद करनी चाहिए थी लेकिन मजदूरों के मुताबिक उन्हें कोई मदद अब तक नहीं मिली है।"

राजेंद्र बताते हैं, "कई लोगों से उधार भी लिया है और बस किसी तरह से गुजारा कर रहे हैं। रोज घर की महिलाएं आसपास से लकड़ी बीन लाती हैं, उन्हीं पर खाना बनता है।"

राजेंद्र के मुताबिक गांव के लोग थोड़ी बहुत मदद कर रहे हैं, लेकिन राहुल यादव बताते हैं, गांव के लोगों की मदद ये सशर्त हैं, क्योंकि गांव के लोग अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित भी हैं और लॉकडाउन का नियम है कि कोई बाहर न जाए, इसलिए गांव के लोगों ने इन मजदूरों से भी कहा है कि वो गांव के बाहर न जाएं। जैसे कई मजदूरों के मकान मालिकों ने किराया मांगा नहीं हैं लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि कि उन्होंने माफ कर दिया है।"

ये तस्वीर उत्तर प्रदेश मेरठ जिले की है। रास्ते में फंसे प्रवासी मजदूर खेतों से गेहूं की बालियां बीन रहे हैं। फोटो- मोहित सैनी

एक मोटे अनुमान के मुताबिक दिल्ली में करीब 10 लाख मजदूर रहते हैं, इनमें से ज्यादातर निर्माण कार्य से जुड़े हैं। लेकिन ज्यादातर लॉकडाउन में सरकार से मिलने वाली सुविधाओं से वंचित हैं, क्योंकि सरकार उन्हें ही पैसे दे रही हैं जो रजिस्टर्ड हैं, जबकि ये ज्यादातर मजदूर असंगठित हैं। दिल्ली में ये कार्य ऑनलाइन होने से मजदूरों की समस्या बढ़ गई है।

जनसत्ता वेबसाइट के मुताबिक दिल्ली में कार्यरत मजदूर का ऑनलाइन पंजीकरण कुल मजूदरों के 8 फीसदी से भी कम है। तमाम मजदूर संगठनों ने दावा किया कि दिल्ली में मजदूरों की संख्या 10 लाख से ऊपर है, इनमें से पांच लाख मजदूर किसी मजदूर यूनियन या संगठन, सरकारी विभागों से कार्यकरता है लेकिन बाकी ऐसे ही हैं। लेकिन दिल्ली सरकार की ऑनलाइन प्रक्रिया में सिर्फ 40 मजदूर पंजीकृत हुए हैं। इससे पहले जो मजदूरी किसी भी यूनियन या संगठन में रजिस्टर्ड होता थी उससे मदद मिलती थी।

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जनसत्ता ने दिल्ली सरकार में श्रमिक बोर्ड के पूर्व सदस्य और दिल्ली असंगठित निर्माण मजदूर यूनियन के महासचिव अमजद हसन के सचिव का बयाना छापा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि " निश्चित तौर पर दिल्ली सरकार का ये कहना कि सभी मजदूरों को 5000-5000 रुपए दे दिए गए हैं वो गलत है।" दिल्ली में 10 लाख के रुपए से ज्यादा का कोई निर्माण कार्य होता है तो एक फीसदी सेस देना होता है जो निर्माण मजदूरों के कल्याण में खर्च होना चाहिए।

केंद्र सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा के बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत देश के लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को हर महीने के नियमित राशन के साथ ही प्रति व्यक्ति 5 किलो अतिरिक्त गेहूं या चावल और एक किलो दाल मुफ्त देने की बात कही थी। केंद्रीय खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग के मंत्री राम विलास पासवान ने कहा था कि इससे देश की दो तिहाई से अधिक जनसंख्या को लॉकडाउन के इस चुनौतीपूर्ण समय में खाद्यान्न सुविधा का लाभ मिलेगा, जो कि नागरिकों के 'भोजन के अधिकार' के अंतर्गत आता है। लेकिन लॉकडाउन के बाद औद्योगिक शहरों से प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें निकल कर सामने आ रही हैं, वे कुछ और ही हालत को बयां कर रही हैं।

मुफ्त राशन की सुविधा का यह लाभ उन लोगों को नहीं मिल पा रहा है, जिनके पास या तो राशन कार्ड नहीं है या जो अपने काम के सिलसिले में अपने घर से दूर दूसरे शहरों और राज्यों में रहते हैं। ऐसे प्रवासी मजदूरों की संख्या लाखों में है, जिनके पास कोरोना लॉकडाउन के इस समय में खुद को सुरक्षित रखने के लिए कमरा तो है, लेकिन राशन नहीं होने की वजह से वे लोग रात को भूखे या आधे पेट सोने को मजबूर हैं।

प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो ने प्रवासी मजदूरों के लिए एक मांग पत्र तैयार किया है, उसमें मुफ्त राशन का मुद्दा प्रमुखता से उठाया गया है। इस मांग पत्र के मुताबिक, "सरकार को प्रवासी कामगारों के लिए तत्काल मुफ़्त और कम क़ीमत पर राशन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसके लिए उनसे किसी तरह के पहचान पत्र या निवास प्रमाणपत्र दिखाने को नहीं कहा जाए। केंद्र और राज्य सरकारों ने जो राहत कि घोषणा की है वह उन्हीं लोगों के लिए है जिनके पास राशन कार्ड है। प्रवासी कामगारों के पास उस शहर में राशन कार्ड नहीं होता जहाँ वे काम करते हैं।"

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इस परिवार के दो बच्चे दिल्ली के स्कूलों मे पढ़ते थे, उन्हें मिड डे मील और वजीफा भी मिलता है लेकिन स्कूल बंद होने से मिड डे मील का भी रास्ता बंद हो गया है।

झुलझुली गांव के राहुल यादव कहते हैं, मुझे चिंता इस बात की है फसल कटने के बाद अभी तो खेतों में बालियां हैं लेकिन जुताई का समय नजदीक आ रहा है, किसान आगे की फसल की जुताई के लिए खेतों को जोत देंगे फिर ये ये लोग क्या करेंगे।"

इसका जवाब भी राजेंद्र की बातों में मिलता है, लॉकडाउन खुलती ही वापस लौट जाएंगे, यहां जब न काम है न खाना तो कैसे रहेंगे?ॉ



  

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