"किसान आंदोलन की एक बड़ी सफलता यह है कि महिलाएं चार दीवारी से बाहर निकलकर मुख्यधारा में आ गयी हैं"

किसान आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हैं। इनमें कई अपने परिवार के साथ आईं हैं तो कुछ का परिवार गांव में ही है। इन में वे हजारों महिलाएं भी शामिल हैं जो अपने घर के पुरुषों के आंदोलन में शामिल होने के बाद खेत का कामकाज संभाल रही थीं।

shivangi saxenashivangi saxena   12 March 2021 5:45 AM GMT

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किसान आंदोलन की एक बड़ी सफलता यह है कि महिलाएं चार दीवारी से बाहर निकलकर मुख्यधारा में आ गयी हैंकिसान आंदोलन में महिलाएं महती भूमिका निभा रही है। (सभी तस्वीरें- शिवांगी सक्सेना, गांव कनेक्शन)

नई दिल्ली। परमजीत कौर (60 वर्ष ) को चक सड़ोके गाँव, फाज़िलका से टिकरी बॉर्डर आये हुए दस दिन हो गए हैं। किसान आंदोलन में शामिल होने के पहले परमजीत 12 साल पहले केवल एक दिन के लिए पंजाब से दिल्ली आई थीं। जिसके बाद अब वे ख़ास महिला दिवस मनाने पहुंची थीं।

"बारह साल पहले एक दिन के लिए दिल्ली स्थित बंगला साहिब मत्था टेकने आये थे। आज इतने सालों बाद अपना हक़ मांगने दिल्ली का दरवाज़ा खटखटाया है," परमजीत कहती हैं।

26 नवंबर 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर चले रहे किसान आंदोलन में बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल हैं। इनमें कई अपने परिवार के साथ आईं हैं तो कुछ का परिवार गांव में ही है। इन में वे हजारों महिलाएं भी शामिल हैं जो अपने घर के पुरुषों के आंदोलन में शामिल होने के बाद खेत का कामकाज संभाल रही थीं।

पंजाब के फाज़िलका से आईं बलवीर कौर (70 वर्ष) के मुताबिक किसान आंदोलन ने गांव की महिलाओं के पैरों में पड़ी रह गईं कुछ अदृश्य बेड़ियों को भी तोड़ दिया है। वे कहती हैं, "गांव में हमें ज़्यादा घूमने-फिरने की आज़ादी नहीं है। यहां तक की शादी के बाद में अपने पति के साथ कभी घूमने नहीं गई। लेकिन आज अपने साथ इतनी सारी महिलाओं को देखकर ख़ुशी हो रही है।"

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आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी के बारे में परमजीत कौर का मानना है कि ये बदलाव का पहला चरण है। यहां से महिलाओं को और आगे जाना है, "किसान आंदोलन ने महिलाओं को घर से बाहर निकाला ज़रूर है लेकिन अभी महिलाओं को और संघर्ष करना है। हालांकि जिस संख्या में महिलाएं इस आंदोलन का हिस्सा बनी हैं उस से ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समाज में बदलाव आ रहा है। महिलाओं को अपने अधिकारों की समझ आ रही है," परमजीत कहती हैं।

परमजीत कई साल पहले अपने पति से अलग हो गईं थीं। इस दौरान उन्होंने तमाम मुश्किलें झेलीं, लेकिन हार नहीं मानी।

फाजिलका की परमजीत काफी समय से किसान आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

आठ मार्च को दुनियाभर ने महिलाओं के प्रति सम्मान में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया। समाचार पोर्टल बीबीसी के मुताबिक करीब एक शताब्दी पहले महिला दिवस एक मजदूर आंदोलन से निकला था। जिसे कई दशक बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में औपचारिक मान्यता दी।

किसान आंदोलन के दौरान भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली की सीमाओं पर सिंघु बॉर्डर, गाजीपुर, टिकरी और पलवल में आयोजित महिला दिवस में हजारों महिलाएं शामिल हुईं। इनमें कई महिलाएं पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से ख़ास महिला दिवस को मनाने पहुंचीं। इस दौरान महिलाओं ने अपने तरीकों से कृषि कानूनों का विरोध जताया, मंच को संभाला और लोगों को नए कृषि कानूनों की खामियां गिनाकर अपनी ल़ड़ाई को जारी रखने की बात की है।

संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल पंजाब-हरियाणा और देश के बाकी हिस्सों के 42 से ज्यादा किसान संगठनों में शीर्ष स्तर पर भले महिलाओं की हिस्सेदारी बेहद कम हो, लेकिन इस लंबे किसान आंदोलन से देश को कई महिला किसान नेता भी मिलने वाली हैं। पंजाब के 20 से ज्यादा जिलों में और पश्चिमी हरियाणा में सक्रिय प्रमुख किसान संगठन भारतीय किसान यूनियन (एकता) उग्राहन के साथ बड़ी आबादी वाली महिलाओं की है। अपनी पहचान के लिए पीले कपड़े ओढ़ने वाली इन महिलाओं ने दिल्ली बॉर्डर पर धरना स्थलों के अलावा किसान पंचायतों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।

महिला किसान (बाएं से) बलवीर और जिंदरपाल

बीकेयू एकता (उग्राहां) में महिला विंग की अध्यक्ष हरिंदर कौर 'बिंदु' किसान आंदोलन का बड़ा चेहरा हैं। गाँव कनेक्शन से खास बातचीत उन्होंने महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने से लेकर उनकी भागीदारी और मुश्किलों पर बात की।

"हम सालों से महिलाओं के लिए लड़ रहे हैं। कृषि कानून जितना पुरुषों पर असर डालेगा है उतना ही महिलाओं पर भी। हमने गांव-गांव, घर-घर जाकर महिलाओं को कृषि कानूनों के बारे में समझाया। महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा खेती-किसानी में कार्यरत है। उनके लिए अपने हक की आवाज़ उठाना ज़रूरी है।" हरिंदर कहती हैं।

वो आगे कहती हैं, "आंदोलन की एक बड़ी सफलता यह है कि महिलाएं चार दीवारी से बाहर निकलकर मुख्यधारा में आ गयी हैं और अपने अधिकारों के लिए सरकार के खिलाफ मज़बूती के साथ खड़ी हैं।"

साल 2018 में आई ऑक्सफेम इंडिया की रिपोर्ट Move over 'Sons of the soil': Why you need to know the female farmers that are revolutionizing agriculture in India के मुताबिक कृषि क्षेत्र मे 80 % महिलाएं रोज़गार पाती हैं। इनमे 33 % महिलाएं खेतिहर मज़दूर और 48 % स्व-नियोजित किसान शामिल हैं। उनके बड़े योगदान के बावजूद महिलाएं भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अदृश्य बनी हुई हैं।

महिला दिवस के दिन किसान आंदोलन की कमान महिला किसानों के हाथ थी।

पंजाब के बाघा पुराना, मोगा जिले की कमलप्रीत पिछले तीन महीनों से आंदोलन का हिस्सा बनी हुई हैं। वो अन्य महिला वालंटियर्स के साथ मिलकर टिकरी बॉर्डर मुख्य स्टेज की सुरक्षा का ध्यान रख रही हैं ,"यहाँ (टिकरी बॉर्डर) लगभग 500 महिला वालंटियर काम कर रही हैं। मुख्य स्टेज आंदोलन की जान है। यहीं सब फैसले सुनाए जाते हैं, ये ज़रिया है किसान नेताओं का आंदोलनकारियों से जुड़ने का।" कमलप्रीत ने बताया।

किसान आंदोलन में महिलाएं शुरू से हिस्सा रही हैं। पांच जून 2020 को अध्यादेश के रूप में आने के बाद कृषि बिलों के खिलाफ पंजाब में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए तो महिलाओं ने इसमें बड़ी भागीदारी निभाई। रेलवे ट्रैक पर बैठने से लेकर टोल प्लाजा तक पर महिलाएं नजर आईं। और जब किसान संगठनों ने 26-27 नवंबर को दिल्ली कूच का ऐलान किया तो पंजाब-हरियाणा से हजारों महिलाएं ट्रैक्टर-ट्राली में राशन लेकर चल पड़ी। किसान आंदोलन के 100 से ज्यादा होने के बावजूद हजारों महिलाएं आज भी दिल्ली बॉर्डर पर जमी हैं।

अमृता कुंडू हरियाणा की रहने वाली हैं और वह किसान परिवार से आती हैं। उन्होंने कहा कि महिलाओं के बिना ये आंदोलन पूरा नहीं हो सकता। किसानी में महिलाओं का योगदान पुरुषों से अधिक महत्वपूर्ण है। सरकार ने कई बार बिजली और पानी की सप्लाई मे रुकावटें पैदा करने की कोशिश की लेकिन महिलाएं मज़बूत हैं और जब तक हमारी मांगें पूरी नहीं हो जाती हम यहां से हिलने नहीं वाले।

महिला किसानों के मुताबिक वो खेती बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। पंजाब के संगरूर से आईं महिंदर कौर की उम्र 70 साल है और अपने नाती-पोते घर छोड़कर आंदोलन में शामिल होने आई हैं। वो कहती हैं, "हमें शौक नहीं है इतनी गर्मी में बैठने का। हम तीन महीने से सरकार से कानून वापस करने के लिए कह रहे हैं लेकिन सरकार चुप बैठी हुई है। उन्हें फर्क नहीं पड़ता अगर किसान मर भी जाएं, हमें चाहे यहां सालों बैठना पड़े, बिना कानून वापस कराए घर नहीं जाएंगे।'


गांव कनेक्शन के शो गांव कैफे में हरिंदर कौर 'बिंदु' कहती हैं, "इस आंदोलन में घरों में भी काफी कुछ बदला है। खेतों में काम तो हम पहले से करते आ रहे थे, बदला ये है कि पुरुष हमारे हिस्से वाले काम करने लगे हैं। जब हम यहां बॉर्डर पर बैठे हैं तो जिन के पति नहीं आए हैं पर पति बच्चों को संभाल रहे हैं। उनके लिए रोटियां पका रहे हैं, उन्हें उन्हें स्कूल भेजते हैं। ये बड़ा बदलाव है।'

किसान आंदोलन में महिलाओं के लिए 100 दिन से ज्यादा का सफर मुश्किलों भरा रहा है। खुले आसमान के नीचे रहने, शौच के लिए कई कई किलोमीटर तक सफर करके, एकांत की तलाशने के लिए घंटों पेशाब रोके रखना जैसी कई मुश्किलें झेली हैं। सरकार के पानी, बिजली बंद करने के दौरान इनकी समस्याएं काफी बढ़ गई थीं लेकिन महिलाएं अड़ी रहीं।

आठ मार्च को दूसरा मौका था जब संयुक्त किसान मोर्चा ने महिलाओं को आगे कर मंच से लेकर आंदोलन तक की बागडोर उनके हाथों में दी थी। इससे पहले 18 जनवरी को महिला दिवस के रूप में मनाया गया था। पुरुषों की भीड़ के बीच मंच की कमान मिलने से महिलाओं का उत्साह बढ़ा है।

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जिंदरपाल कौर (65 वर्ष ) फ़िरोज़पुर की रहने वाली हैं। आखिरी बार वे 12 साल पहले गाँव में महिलाओं के जत्थे के साथ महाराष्ट्र हजूर साहिब (नांदेड़) दर्शन करने गई थीं। उसके बाद ये पहला मौका है कि जिंदरपाल घर से बाहर निकली हैं, "हमारे पिंड मे कोई महिला दिवस नहीं मनाया जाता। ये पहली बार है मै कुछ इस तरह का देख रही हूं, जहां महिलाएं एक दूसरे के साथ मिलकर सरकार का विरोध कर रही हैं। अगर इस आंदोलन से कुछ लेकर गांव वापस लौटूंगी तो वो है आपसी एकता और भाईचारा, "जिंदगी के अपने 6 दशक से ज्यादा के अनुभव पर वो कहती हैं।

आंदोलन मे महिलाएं बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। लेकिन क्या वे मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही हैं? इस सवाल के जवाब में स्वरणजीत कहती हैं कि मर्द नहीं चाहते महिलाएं उनसे आगे बढ़ें, "लड़कों को ईर्ष्या होती है कि महिलाएं वो काम क्यों कर रही हैं जो मर्दों के लिए निर्धारित हैं। जैसे स्टेज की ड्यूटी करना। कुछ बुज़ुर्ग महिलाओं का भी यहीं मानना है। जैसे जब हम टिकरी बॉर्डर पहुंचे तब लड़के झाड़ू लगा रहे थे। तभी माईयों ने आकर हमें (लड़कियों) टोका कि तुम झाड़ू क्यों नहीं लगा रही। वहीं जब से बुज़ुर्ग महिलाएं आंदोलन मे शामिल होने आई हैं खाना भी वहीं बनाती हैं। उनके आने से पहले तक लड़के सब्जी कटवाने मे मदद कर देते थे।"

किसान आंदोलन में भाग लेने के लिए दिल्ली पहुंची महिला किसान।

स्वरणजीत कौर (38 वर्ष ) श्री मुक्तसर साहिब की रहने वाली हैं। वे बताती हैं कि आज भी उनके गांव में महिलाओं को ज़्यादा पढ़ने लिखने की छूट नहीं है। "मेरे पिताजी सरकारी विभाग मे कार्यरत थे इसलिए मुझे कभी पढ़ने से नहीं रोका। लेकिन मेरी मां निरक्षर हैं। हमें वैन में बैठाकर दूसरे गाँव के स्कूल या कॉलेज ले जाया जाता था। 12वीं के बाद आसपास पढ़ाई के कॉलेज नहीं है। बहुत सी लड़कियों की आज भी जल्दी (कम उम्र) शादी करा दी जाती है।"

स्वरणजीत का मानना हैं कि इस आंदोलन ने उन्हें काफी सिखाया है। इस आंदोलन ने हजारों महिलाओं को मुख्यधारा में लाकर खड़ा कर दिया है। लेकिन अब भी महिलाओं को लंबा रास्ता तय करना है। यह यहां बैठीं महिलाएं भी समझती हैं।

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन के बाद कई महिला किसान संगठनों ने महिला विंग का गठन किया है तो कुछ संगठनों ने उनकी भागीदारी बढ़ाई है। कीर्ति किसान यूनियन का महिला विंग केवल इक्का-दुक्का क्षेत्रों में ही सक्रिय था लेकिन अब महिला विंग का नए सिरे से गठन हो रहा है।

बीकेयू एकता (उग्राहां) के अध्य्क्ष जोगिन्दर सिंह उग्राहां ने कहा कहा कि वो महिलाओं के बिना आंदोलन सोच भी नहीं सकते। "इस आंदोलन के सफल होने मे महिलाओं का योगदान सबसे बड़ा है। महिला दिवस के मौके पर महिलाओं की बड़ी तादात देखकर अच्छा लगा था। महिलाओं की हिम्मत और जूनून को सलाम करता हूँ।"

"खेती किसानी मे महिलाओं के 70% भागीदारी को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। इस आंदोलन मे हर तबके से महिलाएँ शामिल होने आई हैं फिर चाहे वो आदिवासी और दलित महिलाएँ ही हों। ये बहुत बड़ी बात है।" किसान नेता और संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य डॉ. दर्शन पाल किसान आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी पर कहते हैं।

    

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